परमहंस-७५

यह सारा वाक़या जब घटित हो रहा था, तब भगवानदासजी नाम की माला भी जप रहे थे। ‘आप जैसे साक्षात्कारी महान भक्त को माला जपने की भला क्या ज़रूरत है’ ऐसा हृदय द्वारा उनसे पूछा जाने के बाद, ‘मुझे ज़रूरत नहीं है यह मैं जानता हूँ, लेकिन कई आम लोग मेरा अनुकरण करने जाते हैं, उनके लिए अनुकरणीय बात के तौर पर मैं माला जपता हूँ’ ऐसा उन्होंने हृदय से कहा।

इस मानो अहंकार ही प्रतीत करनेवाले उत्तर के बाद, उस पल तक शान्त बैठे रामकृष्णजी एकदम खौल उठे और उठकर सीधे खड़े हो गये। उन्होंने सिर पर से ओढ़ा हुआ उनका उत्तरीय नीचे गिर गया था और उनका केवल चेहरा ही नहीं, बल्कि पूरा शरीर ही किसी अनामिक तेज से विलसित हुआ होने का एहसास उपस्थितों को हो रहा था।

रामकृष्णजी ने ठेंठ भगवानदासजी को खरी खरी सुनाना ही शुरू किया – ‘तुम्हारा अनुकरण करेंगे लोग?….तुम्हारा? किसलिए? तुम होते ही कौन हो इतने? क्या उन ईश्‍वर ने बताया है तुम्हें, लोगों को सीख देने के लिए? फिर तुम्हारी हिम्मत ही कैसे होती है ऐसी बात करने की? और तुम किसी को संप्रदाय से निकाल बाहर करोगे? किस अधिकार से?’

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णअब तक, आये हुए भक्तों के मुँह से केवल विनम्र, आदरयुक्त भाषा सुनने के आदी होनेवाले भगवानदास बाबाजी, अचानक आये इस ‘तू़ङ्गान से’ एकदम अवाक हो गये। लेकिन वे कुछ भी बोल न सके, क्योंकि रामकृष्णजी के चेहरे पर नज़र जाते ही उनके शब्द ही कुंठित हो गये थे…..उन्हें जो समझना था, वह वे समझ चुके थे।

रामकृष्णजी इतना कहकर ठेंठ भावसमाधि में गये। इकट्ठा हुए सभी सुन हो गये थे। जिस अधिकारवाणी से इन शब्दों का उच्चारण किया गया था, उसे देखते हुए बीच में बोलने की भगवानदासजी की भी हिम्मत नहीं हुई। लेकिन उन्हें अपनी ग़लती का एहसास हो चुका था। दिल से उच्चारे गये इन शब्दों ने ठेंठ उनके दिल को जाकर छू लिया था। मैं केवल उन ईश्‍वर का एक छोटा सा सेवक हूँ और वैसे ही रहना चाहिए….‘उसके’ हाथ का साधन बनकर रहना चाहिए, यह एहसास भगवानदासजी को हो गया था।

थोड़े ही समय में रामकृष्णजी पुनः भावसमाधि में से बाहर आये और आम इन्सानों की तरह ही आचरण करने लगे। कुछ पल पूर्व घटित बात का अंश तक उनके आचरण में नहीं था, मानो वह घटित ही नहीं हुई थी। फिर भगवानदासजी के साथ उन्होंने बातचीत भी की। बातों बातों में भगवानदासजी को जब पता चला कि कोलुताला के सत्संग में चैतन्य महाप्रभु के लिए आरक्षित स्थान पर जाकर खड़ा हो गया वह श़ख्स यही है और इस ख़बर को सुनने के बाद मैंने इसी की कड़ी आलोचना की थी, तब उन्होंने रामकृष्णजी की दिल से माफ़ी माँगी।

भगवानदासजी को दिल से हुए पश्‍चात्ताप जानकर रामकृष्णजी ने भी बीती बातों को नहीं दोहराया और भगवानदासजी की इतने वर्षों की प्रदीर्घ तपस्या के बारे में हृदय को कौतुकपूर्वक बताया। इतना ही नहीं, बल्कि आगे चलकर मथुरबाबू के हाथों भगवानदासजी के संप्रदाय को अच्छाख़ासा धर्मादाय चंदा भी दिलवाया।

उसके बाद इन लोगों ने चैतन्य महाप्रभु के मूल गाँव ‘नाडिया’ जाने का अपना प्रवास नौका से फिर से जारी किया। नौका जब गाँव के किनारे पहुँच रही थी, तब रामकृष्णजी की भावनाएँ तीव्र होकर वे भावावस्था में चले गये थे। इतने की हृदय ने उन्हें कसकर पकड़ रखा था, ताकि वे पानी में गिर न जायें। यहाँ गाँव में पहुँचने से पहले रामकृष्णजी की यह हालत, तो फिर गाँव पहुँचने के बाद भावनाएँ तीव्र होकर उनका क्या होगा, ऐसा डर हृदय और मथुरबाबू को लग रहा था। लेकिन अचरज की बात यानी प्रत्यक्ष उस गाँव में जाने के बाद, वहाँ के मंदिरों के एक के बाद एक दर्शन करके भी उन्हें वैसा कुछ भी नहीं हुआ और वे शांति से नौका में लौट आये।

नौका ने वापसी का प्रवास शुरू किया। नौका किनारे से दूर होते ही पुनः रामकृष्णजी उत्कट भावावस्था में गये और जो दृश्य उन्हें दिखायी दे रहा था, उसे वे बहुत ही आनंदविभोर चेहरे से देखने लगे। बाद में अपने शिष्यों से इस बारे में बात करते हुए रामकृष्णजी ने बताया – ‘दो बहुत ही सलोने एवं आनंदी बालक हाथ उठाकर मेरी ओर आ रहे थे। प्रकाशमय होनेवाले उन बालकों की कांति सोने की तरह चमक रही थी। वे पास….और पास आये और उन्होंने इस देह में (स्वयं की ओर इशारा करते हुए) प्रवेश किया और मैं बेहोश हो गया।’

वे दो ईश्‍वरीय बालक यानी ‘गौरांग चैतन्य महाप्रभु’ और उनके परमसखा ‘नित्यानंद’ थे, ऐसा बाद में एक बार उन्होंने स्पष्ट किया।

‘नाव जब किनारे पर जा रही थी, तब आप भावावस्था में चले गये, लेकिन प्रत्यक्ष उस गाँव में रहते आपको वैसा कुछ क्यों नहीं हुआ’ ऐसा मथुरबाबू द्वारा पूछा जाते ही रामकृष्णजी ने जवाब दिया – ‘जो स्थान फिलहाल (उस ज़माने में) चैतन्य महाप्रभुजी के जन्मस्थान के रूप में दिखाया जाता है, वह दरअसल वह जगह है ही नहीं। उनका असली जन्मस्थान यह पानी के नीचे चला गया है। इस कारण उस असली स्थान पर से नौका जाते समय मुझे भावावस्था प्राप्त हो गयी।’

(आगे चलकर अधिक संशोधन होने पर रामकृष्णजी का कहा सच होने का प्रत्यय लोगों को हुआ। इस घटना के कुछ ही साल बाद नया संशोधन शुरू हुआ और उस समय नदी के पानी के नीचे चला गया एक स्थान चैतन्य महाप्रभु का असली जन्मस्थान है, ऐसा सिद्ध हुआ, जो रामकृष्णजी ने सूचित किये उस स्थान पर ही था।)

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