परमहंस-६५

रामकृष्णजी का कामारपुकूर में दैनंदिन जीवन शुरू था। पत्नी शारदादेवी, अपने पति की उच्च योग्यता को पहचानकर उनकी सेवा में निमग्न थी। उनकी पत्नी तो वह थी ही, साथ ही अब वह उनकी निस्सीम भक्त एवं प्रथम शिष्या भी बनी। ‘रामकृष्णजी’ ही उसके जीवन की केंद्रबिंदु बने थे। छोटी छोटी बातों के लिए भी वह उनसे मशवरा लेती थी।

रामकृष्णजी के मन में उसके बारे में अपरंपार अनुकंपा थी। वह धीरे धीरे सारीं व्यवहारिक बातें, पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ भी सीख लें, आत्मनिर्भर बनें, ईश्‍वर की भक्ति करें और गृहस्थाश्रम में रहकर ऐसी भक्ति करते करते आख़िर ईश्‍वरचरणों में समर्पित हों, ऐसा उन्हें लगता था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णइसलिए रामकृष्णजी ने भी ‘अपनी पत्नी का सर्वांगीण विकास’ यह अपना कर्तव्य ही मानकर उस कर्तव्य को निभाने का प्रण किया। यहाँ पर उन्हें उनके अद्वैतसिद्धांतसाधना के गुरु तोतापुरी ने बतायी एक बात हमेशा याद आती थी। तोतापुरी ने जब रामकृष्णजी से यह कहा थी कि ‘यह साधना शुरू करने से पहले तुम्हें संन्यास लेना होगा’; तब रामकृष्णजी ने उन्हें अपने विवाहित होने के बारे में कहा था। उस समय तोतापुरी ने उन्हें – ‘उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? पत्नी के सान्निध्य में रहते हुए भी जिसका वैराग्य और विवेक बरक़रार रहते हैं, वही सच्चा ब्रह्मज्ञानी हो सकता है। जो स्त्री एवं पुरुष में भेद न करते हुए, ‘दोनों में भी समान आत्मा है, जो उन परमात्मा का अंश है’ यह जानता है और दोनों के साथ समान आचरण करता है, उसे ही ब्रह्मज्ञान हुआ है, ऐसा कह सकते हैं’ ऐसा कहा था और इस बात को रामकृष्ण ने हमेशा ध्यान में रखा था।

इस कारण, पत्नी के इस सहवास को एक क़िस्म की इष्टापत्ति ही मानकर, तोतापुरी द्वारा बताये गये इस मापदंड (निकष) पर मैं खरा उतरता हूँ या नहीं, यह आज़माने का यह अच्छा अवसर है, ऐसा उन्हें लगा; और एक बार मन ने कोई बात करने की ठान ली, तो उसे अंजाम तक पहुँचाये बिना उन्हें सुकून नहीं मिलता था।

इस बार भी, पत्नी की आध्यात्मिक प्रगति करने की उन्होंने ठान ली। हररोज़ थोड़ा समय विभिन्न आध्यात्मिक बातों पर सादे-सरल शब्दों में वे उसका प्रबोधन करते थे; लेकिन उसीके साथ, व्यवहारिक पहलुओं और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के क्षेत्र में भी वह औरों से पीछे न छूटें, इसका भी वे खयाल रखते थे।

रामकृष्णजी कामारपुकूर जानेवाले हैं, इसका पता लग जाते ही भैरवी भी पुनः दक्षिणेश्‍वर आकर उनके साथ गाँव आयी थी और रामकृष्णजी के मँझले भाई रामेश्‍वर के घर उसके ठहरने का प्रबंध किया गया था। वह रामकृष्णजी की गुरु होने के कारण उसे गाँव से बहुत सम्मान मिलता था। यहाँ तक कि शारदादेवी भी, रामकृष्णजी द्वारा भैरवी के बारे में बताये जाने के बाद उसे अपनी साँस जितना ही सम्मान देती थी, उसकी सेवा करती थी और उसकी हर बात सुनती थी।

लेकिन भैरवी की साधना ने चाहे कितनी भी ऊँचाई क्यों न हासिल की हो, वह अभी तक पूर्णत्व तो प्राप्त नहीं हुई थी; इस कारण उसके मन में, रामकृष्णजी की गुरु होने का सूक्ष्म अहंकार धीरे धीरे जड़ पकड़ रहा था। इसी कारण, तोतापुरी जब दक्षिणेश्‍वर में रामकृष्णजी को अद्वैतसाधना की दीक्षा प्रदान करना चाहते थे, तब भी उसने तीव्र नाराज़गी प्रकट की थी। कई बार वह रामकृष्णजी पर अधिकार जताने की भी कोशिश करती थी, ऐसा मत रामकृष्णजी के कई चरित्रकारों ने व्यक्त किया है।

कामारपुकूर आने के बाद भी, ‘रामकृष्णजी से संबंधित कोई भी बात मेरे बतायेनुसार ही होनी चाहिए’ ऐसा उसका आग्रह रहता था, जो धीरे धीरे दुराग्रह में परिवर्तित हुआ और गाँव के लोग उससे परेशान होने लगे।

रामकृष्णजी हालाँकि भैरवी के मन में चल रहे ये आंदोलन अच्छी तरह जानते थे, मग़र उन्होंने कभी उसकी ओर कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया और जो स्वयं को उचित लगता था, वही वे करते थे। पत्नी शारदादेवी का सर्वांगीण विकास करने के लिए रामकृष्णजी का इस तरह प्रयास करना भी भैरवी को रास नहीं आया था और वैसा उसने रामकृष्णजी को बताया भी। ‘पत्नी के सान्निध्य में रहकर तुम गृहस्थी में उलझ जाओगे और अब तक तुमने जो आध्यात्मिक ऊँचाई हासिल की है, उसे खो दोगे’ ऐसा उसने रामकृष्णजी से कहा। रामकृष्णजी ने हालाँकि उसके साथ कुछ वादविवाद नहीं किया, मग़र अपने आचरण में रत्ती भर भी बदलाव उन्होंने नहीं किया।

ऐसे ही एक बार किसी मामूली बात को लेकर भैरवी का गाँव की महिलाओं के साथ झगड़ा हुआ। भैरवी भी अपनी ज़िद पर उतर आयी। उस समय हृदय भी उस विवाद में सहभागी हो गया और स्पष्टोक्ति करते हुए उसने ‘तुम्हारी ही इसमें ग़लती है’ यह भैरवी को बताया। फिर भी वह नहीं मानी। आख़िरकार विवाद गाँव के वरिष्ठ लोगों तक जा पहुँचा। उन्होंने भी भैरवी के विरोध में निर्णय किया। ये सारीं बातें रामकृष्ण तक पहुँचने पर भी वे शान्त ही थे।

लेकिन यहाँ पर भैरवी के अहंकार को ज़ोरदार झटका लगा था। उसके बाद भैरवी अंतर्मुख हो गयी। उसके मन में विचारमंथन शुरू हुआ…. और उसे – केवल इस विवाद की ही नहीं, बल्कि कुल मिलाकर उससे हो रही सारी ग़लती का ही एहसास हो गया। वह रामकृष्णजी पर अधिकार जताने की कोशिश करती है, इसका कारण उसमें निर्माण हुआ सूक्ष्म अहंकार है, यह बात उसके ध्यान में आ गयी। कुछ दिन इसपर सोचविचार करने के बाद उसके मन का निश्‍चय हो गया। एक दिन उसने गंधपुष्पों से रामकृष्णजी का – उन्हें ‘गौरांग चैतन्य महाप्रभु’ ही मानकर पूजन किया और वहाँ से जाने के लिए उनसे अनुमति माँगी। उसे अपनी ग़लती का एहसास हो गया है, इस बात से रामकृष्णजी को आनंद हुआ था। वह वहाँ से वाराणसी गयी और उसने अब नये से सत्य की खोज शुरू की। आख़िरकार वहीं पर उसकी साधना पूर्णत्व को प्राप्त हुई।

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