परमहंस-७४

रामकृष्णजी मथुरबाबू के गाँव में निवास कर दक्षिणेश्‍वर लौटने के कुछ ही दिनों में एक विलक्षण घटना घटित हुई!

कोलकाता के पास के कोलुताला गाँव में कालीनाथ दत्त नामक एक वैष्णवसंप्रदायी भक्त रहते थे। पंद्रहवीं सदी के महान वैष्णव सन्त ‘गौरांग चैतन्य महाप्रभु’ ये उनके आराध्यदेवता थे। उनके घर में हमेशा उनके ‘चैतन्य महाप्रभु’ संप्रदाय के सत्संग, धार्मिक ग्रंथवाचन, आध्यात्मिक चर्चाएँ आदि होतीं रहतीं थीं। ऐसी बैठक में हमेशा एक मुख्य आसन ‘गौरांग चैतन्य महाप्रभु’ के नाम से पुष्पमाला, फूल आदि से सुशोभित किया होता था, जिसपर स्वयं चैतन्य महाप्रभु सूक्ष्मरूप में आकर बैठते हैं, ऐसी वहाँ पर इकट्ठा हुए लोगों की मान्यता थी।

उनमें से कुछ लोगों ने रामकृष्णजी की ख्याति सुनी ही थी। एक दिन उन्हीं में से किसी ने रामकृष्णजी को अपने एक सत्संग का निमंत्रण दिया। रामकृष्णजी भी हृदय के साथ आनन्दपूर्वक वहाँ पर गये। वहाँ भागवत का पठन ऐन ज़ोरों से चल रहा था। सुनते सुनते रामकृष्णजी एकदम बेभान होकर भावावस्था में गये। भावावस्था में ही अपनी जगह से उठकर वे ठेंठ, चैतन्य महाप्रभु के लिए आरक्षित रखे गये आसन पर जा खड़े हुए और चैतन्य महाप्रभु भावावस्था में चले जाने के बाद जिस प्रकार आसमान की ओर ध्यान केंद्रित कर, दोनों बाहें उठाकर खड़े रहे हम कई चित्रों में देखते हैं, वैसी मुद्रा रामकृष्णजी ने धारण की।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णउपस्थित लोग अचंभे से देखने लगे – कुछ आनन्दपूर्वक, कुछ ग़ुस्से से! यहाँ तक कि भागवत का पठन करनेवाला भी पठन बीच में ही रोककर आश्‍चर्यपूर्वक रामकृष्णजी की ओर देखने लगा। भावावस्था में जाकर इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु जैसी मुद्रा में खड़े रहे रामकृष्णजी का निरीक्षण करना कइयों के लिए आनंददायी अनुभव साबित हो रहा था। कुछ समय पूर्व जब भैरवी दक्षिणेश्‍वर में थी, तब उसने निकाला हुआ – ‘गौरांग चैतन्य महाप्रभु के जीवनप्रवास के साथ रामकृष्णजी का जीवनप्रवास बहुत ही मिलताजुलता है’ यह निष्कर्ष भी कइयों को मालूम था। लेकिन कुछ लोगों को, अपने आराध्यदैवत के आसन पर रामकृष्णजी का इस तरह खड़ा रहना बिलकुल पसन्द नहीं आया। मग़र रामकृष्णजी को कुछ कहने की, वहाँ पर इकट्ठा हुए लोगों में से किसी की भी हिम्मत नहीं थी। तब किसी ने उत्स्फूर्त रूप में गजर गाना शुरू किया। अब लोग गजर में रममाण हो गये। रामकृष्ण भी उस गजर के ताल पर तल्लीन होकर नाचने लगे। काफ़ी देर तक यह सत्संग चलता रहा।

सत्संग संपन्न होने तक रामकृष्णजी पुनः सभान हो गये और हृदय के साथ दक्षिणेश्‍वर चले गये। लेकिन उसके बाद कई दिनों तक, वहाँ आनेवाले चैतन्य महाप्रभु संप्रदायियों के लिए यह चर्चा का विषय बना रहा। उनके ज़रिये यह चर्चा उनके संप्रदाय के दूर-दूर के भक्तों तक पहुँचा। बरद्वान ज़िले के कालना गाँव में इस संप्रदाय के ‘भगवानदास बाबाजी’ नामक एक विख्यात संत रहते थे। अस्सी से ऊपर आयु होनेवाले बाबाजी की शोहरत केवल इसी संप्रदाय में ही नहीं, बल्कि पूरे बंगाल में ही फैली थी। अपने आध्यात्मिक प्रश्‍नों के उत्तर ढूँढ़ने, आध्यात्मिक विवादों में निर्णय करने के लिए लोग दूर-दूर से उनके पास आते थे।

जब उनतक यह बात पहुँची, तब वे ग़ुस्से से खौल उठे। उन्हें रामकृष्णजी के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी। इस कारण, अपने सर्वोच्च आराध्यदैवत के पवित्र आसन पर कोई भी आकर बैठें, यह बात उन्हें रास नहीं आयी थी। उन्होंने इस वाक़ये को लेकर वहाँ के सत्संग के आयोजकों की आलोचना की और पुनः ऐसे प्रकार न हों इसके बारे में अधिक एहतियाद बरतने की चेतावनी दी।

उसके तुरन्त बाद, यहाँ दक्षिणेश्‍वर में रामकृष्णजी ने अचानक, ‘हम चैतन्य महाप्रभु के जन्मगाँव यानी ‘नाडिया’ होकर आयेंगे’ ऐसा कहा। फिर रामकृष्णजी, हृदय और मथुरबाबू ऐसे तीन ही जन नौका से नाडिया जाने निकले। प्रवास के दौरान इन भगवानदास बाबाजी के ‘कालना’ गाँव तक पहुँचते ही रामकृष्णजी ने – ‘हम यहाँ पर थोड़ी देर विश्राम करते हैं’ ऐसा सुझाव मथुरबाबू को दिया। उनके सुझाव को भी आज्ञा की तरह ही माननेवाले मथुरबाबू ने फ़ौरन उसपर अमल किया और वे रामकृष्णजी के ठहरने का प्रबन्ध करने में लग गये। ‘वह प्रबंध होने तक, यहाँ पर ‘भगवानदास बाबाजी’ नामक एक सन्त रहते हैं, उनके दर्शन करके आते हैं’ ऐसा रामकृष्णजी ने मथुरबाबू से कहा और हृदय को लेकर वे भगवानदासजी के निवासस्थान पर आ गये।

रामकृष्णजी ने पहले हृदय को अपने आने का प्रयोजन भगवानदासजी को बताने के लिए कहा। वे जब भगवानदासजी के कमरे में पहुँचे, तब वहाँ पर भगवानदासजी की उनके संप्रदाय के कुछ लोगों के साथ चर्चा शुरू थी। उनके संप्रदाय में से किसी एक के हाथों कुछ ग़लती हुई होने की शिक़ायत लेकर वे लोग आये थे। वह शिक़ायत सुनते ही भगवानदासजी ने – ‘उस व्यक्ति को हमारे संप्रदाय में से बहिष्कृत कर दो’ यह सज़ा फ़रमायी। वे जब यह सज़ा फ़रमा रहे थे, तभी हृदय तथा रामकृष्णजी वहाँ पहुँचे थे। लेकिन रामकृष्णजी ने अपने उत्तरीय को अपने सिर पर से लपेटकर सिर और चेहरा काफ़ी हद तक ढक दिया था।

‘मेरे मामा आपके दर्शन करना चाहते हैं। मामा भी भक्तिमार्ग में लीन हैं और ईश्‍वर के नाम के केवल उच्चारण से उनके अष्टभाव जागृत हो जाते हैं’ ऐसा हृदय ने नम्रतापूर्वक रामकृष्णजी का परिचय करा दिया। प्राथमिक नमस्कार आदि होने के बाद ‘आप कौन, कहाँ से आये’ आदि मामूली सवाल रामकृष्णजी से भगवानदासजी ने पूछे और वे पुनः अपनी चर्चा में मग्न हुए। रामकृष्णजी दूर जाकर कमरे के एक कोने में शांति से बैठ गये।

लेकिन वह ‘तूफ़ान के पहले की शांति’ साबित होनेवाली थी….

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