परमहंस-६४

रामकृष्णजी को हो रही दस्त की तीव्र परेशानी छः महीनों बाद अपने आप ही धीरे धीरे कम होती जाकर बन्द भी हुई।

अद्वैतसिद्धांत साधना के मार्ग पर रामकृष्णजी ने तेज़ी से प्रगति की थी और इतनी शारीरिक पीड़ा होते हुए भी, मन को शारीरिक एवं भौतिक विषयों से अलग करना उन्हें आसानी से संभव होता था। इस कालावधि में उनके साथ इस विषय पर गहरी चर्चा करने कई साधक आकर गये। इतनी शारीरिक पीड़ाएँ होने के बावजूद भी रामकृष्णजी उनसे चर्चा करके उन्हें आसानी से मार्गदर्शन करते ही थे।

अब ब्रह्मप्राप्ति यही एकमात्र ध्यास रहे रामकृष्णजी को उसकी प्राप्ति के लिए कोई भी साधन वर्ज्य नहीं था। सभी पवित्र उपासनामार्ग उन ईश्‍वर के पास ही ले जाते हैं, इस बारे में उनके मन में कोई सन्देह नहीं था और यह तत्त्व सिद्ध करने के लिए वे विभिन्न उपासनामार्ग अपनाकर देखते थे। साथ ही, यदि हमने उनके इस प्रवास को बारिक़ी से देखा, तो हमारे ध्यान में आयेगा कि उन्होंने जिन जिन उपासनामार्गों को अपनाया, उस सभी उपासनामार्गों के मार्गदर्शक उनके जीवन में, मानो जैसे उनकी प्रिय कालीमाता ने ही उन्हें भेजा हो, इस तरह अपने आप ही चले आये; रामकृष्णजी अपने खुद के मन से कोई उपासना करने नहीं गये। यह तो हम जानते ही हैं कि तोतापुरी ने भी जब उन्हें अद्वैतसाधना की दीक्षा देने के लिए पूछा था, तब भी रामकृष्णजी ने कालीमाता की ही अनुमति ली थी।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णजब तक अपने मन में अपना ध्येय सुस्पष्ट है, तब तक, अपवित्र न रहनेवाला कोई भी उपासनामार्ग निषिद्ध नहीं है, यह मन ही मन जाननेवाले रामकृष्णजी ने, अपने इस प्रवास में अद्वैतसिद्धांत साधना के बाद इस्लाम धर्म की उपासना भी करके देखी। सुङ्गी पंथ के एक उपासक से बाक़ायदा दीक्षा लेकर उन्होंने इस्लामधर्मियों की प्रार्थनाएँ आदि करना शुरू किया। इस दौर में उनकी वेशभूषा भी, किसी इस्लामधर्मिय की तरह रहती थी और उनका वास्तव्य भी मंदिरसंकुल के बाहर, मथुरबाबू के घर में था।

इस प्रकार एक के बाद एक की हुईं अलग अलग उपासनाओं के कारण और बीच की दस्त की शारीरिक पीड़ा के कारण उनका शरीर बहुत ही कृश? हो चुका था और स्वास्थ्य भी पुनः ढह गया था। उन्हें विश्राम की और ईलाज़ की ज़रूरत है, ऐसा मथुरबाबू को तथा अन्य आप्तों को भी दृढ़तापूर्वक लग रहा था। इस कारण मथुरबाबू ने रामकृष्णजी को कुछ दिन के लिए पुनः उनके गाँव – कामारपुकूर भेजने का तय किया। उनके साथ हृदय होनेवाला था। लेकिन उनकी माँ ने – चंद्रादेवी ने दक्षिणेश्‍वर में ही – गंगानदी की सन्निधता में रहने का फ़ैसला किया।

रामकृष्णजी आठ साल बाद कामारपुकूर में कदम रख रहे थे। उनकी पत्नी शारदादेवी अब चौदह साल की हो गयी थी और वह अपने मायके में ही यानी जयरामबटी में ही वास्तव्य कर रही थी। उसे भी कामारपुकूर में बुला लिया गया। विवाह के बाद जब रामकृष्णजी कामारपुकूर से दक्षिणेश्‍वर गये थे, तब बिलकुल अबोध बालिका रहनेवाली शारदादेवी अब प्रगल्भ हो चुकी थी और अब वह गृहकृत्यदक्ष भी बनी थी। मुख्य बात, अपने रिश्तेदार आदि जिसे पागल समझते हैं, उस अपने पति का आध्यात्मिक स्थान बहुत ही ऊँचा है, इसका एहसास उसे हो चुका था।
उसने आते ही पूरी परिस्थिति का जायज़ा लिया और अपने आप को अपने पति की सेवा में व्यस्त कर दिया…. पति की सेवा को ही उसने अपना सर्वस्व मान लिया था। रामकृष्णजी के बिगड़े हुए स्वास्थ्य को पुनः पहले जैसा बनाने की उसने ठान ली थी।

इस बार भी रामकृष्णजी के बारे में, ऊपरि तौर पर पागलपन प्रतीत होनेवाली उनकी उपासनापद्धति की कहानियाँ गाँव तक पहुँच गयीं थीं। इस कारण इस बार भी उनके पुराने दोस्त, रिश्तेदार उनकी ओर ज़रासी साशंकता से ही देख रहे थे। लेकिन एक बार रामकृष्णजी के सन्निध आने के बाद उन्हें यक़ीन हो गया कि यह हमारा पहले का ही – वैसे ही खुले दिल से बर्ताव करनेवाला, शरारतीपन कायम रहनेवाला, सत्य से ही दृढ़तापूर्वक बँधा हुआ गदाधर है।

लेकिन आठ साल पहले कामारपुकूर आया हुआ गदाधर और अब आया हुआ गदाधर इनमें कुछ फ़र्क़ निश्‍चित ही था। अब का गदाधर यह पहले के गदाधर की तुलना में अधिक धीरगंभीर, प्रगल्भ बना था। वह हालाँकि पहले जैसा ही हँसीमज़ाक करता था, मग़र फिर भी उसकी हँसीमज़ाक में एक क़िस्म की आदब रहती थी।

मुख्य बात, किसी भी व्यवहारिक, भौतिक विषयों पर चर्चाएँ उसे पसन्द नहीं रहती थीं और ऐसी चर्चाओं में सहभागी होना वह हमेशा टालता था।

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