परमहंस-७६

मथुरबाबू का रामकृष्णजी के साथ परिचय होकर पंद्रह से भी अधिक साल बीत चुके थे। रामकृष्णजी से पहली ही बार मिलने के बाद कुछ ही दिनों में, रामकृष्णजी के दिव्यत्व को पहचान गये मथुरबाबू का व्यक्तित्व उनके सान्निध्य में सोने की तरह चमक उठा था।

‘ये कोई तो हैं’ इस धारणा से शुरू हुआ प्रवास अब ‘ये ही सबकुछ हैं’ इस पड़ाव तक आ पहुँचा था। इस कालावधि में मथुरबाबू ने अपना सारा जीवन रामकृष्णजी के चरणों में समर्पित किया था। ‘देवीमाता की इस लाड़ली सन्तान का – रामकृष्णजी का खयाल रखना’ इसीको उन्होंने अपना ‘जीवनध्येय’ मानने के बाद – रामकृष्णजी कामारपुकूर हो आने जैसे कुछ अपवादों (एक्सेप्शन्स) को छोड़कर, मथुरबाबू का हर दिन रामकृष्णजी की सेवा में ही – उन्हें अधिक से अधिक सुकून कैसे दिया जा सकता है, इसी विचार में व्यतीत होता था।

लेकिन अब बिछड़ने की घड़ी आ चुकी थी….

जुलाई १८७१ में मथुरबाबू टाईफॉईड़ से बीमार पड़ गये। जगह जगह के नामचीन डॉक्टरों-वैद्यों को दिखाया, लेकिन तबियत नहीं सुधरी। रामकृष्णजी तो शान्त ही थे। अब मथुरबाबू का मृत्युलोक से बिदा लेने का समय आ गया है, यह वे जानते थे। उन्हें मथुरबाबू की फ़िक्र तो थी ही। मथुरबाबू की ख़बरबात लेने के लिए और उनकी ज़रूरतों का ख़याल रखने के लिए वे हृदय को हररोज़ मथुरबाबू के पास भेजते थे।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णलेकिन जब ‘वह’ दिन आया, उस दिन उन्होंने हृदय को मथुरबाबू के पास नहीं भेजा। दोपहर को वे अचानक समाधिअवस्था में चले गये। लगभग तीन घण्टें वे उसी अवस्था में थे। लगभग शाम ५ बजे वे समाधि में से बाहर आये और उन्होंने हृदय को – ‘मथुरबाबू ने दुनिया से विदा ली है’ यह जानकारी दी। वह सुनकर हृदय सुन ही हुआ, लेकिन रामकृष्णजी ने शान्ति से उसे समझाया कि ‘क्यों व्यर्थ शोक कर रहे हो? मथुर केवल इस मृत्युलोक से देवीलोक में यानी देवीमाता के पास गया है।’

रात को मथुरबाबू के गाँव से – मथुरबाबू का ‘लगभग शाम ५ बजे’ निधन हुआ होने की ख़बर दक्षिणेश्‍वर पहुँची। निधन का समय सुनकर हृदय चकरा ही गया। रामकृष्णजी ठीक उसी समय समाधि में से जागृत हुए थे और मथुरबाबू का निधन हुआ होने की ख़बर उन्होंने हृदय तक पहुँचायी थी।

मथुरबाबू के जाने से दक्षिणेश्‍वर मंदिर का एक बहुत ही बड़ा आधारस्तंभ तो धराशायी हो ही गया था, लेकिन रामकृष्णजी के जीवन में भी अपने इस प्रिय सेवक के जाने से खालीपन निर्माण हुआ था।

यहाँ उनके गाँव में पीछे रह गयी उनकी पत्नी शारदादेवी अब अठारह साल की हो चुकी थी। पिछली बार कामारपुकूर में उसे प्राप्त हुआ रामकृष्णजी का सान्निध्य, यह उसके जीवन की आनन्द की अमिट निधि थी और इसी अमिट आनंद से उसका भावविश्‍व पूरी तरह भर चुका था। मूलतः ही शुद्ध मन की होनेवाली शारदादेवी उस पवित्र सान्निध्य से अब अधिक ही मृदु, अधिक चिन्तनशील, अधिक प्रगल्भ हो चुकी थी और उसका मन अपार अनुकंपा से भर गया था। रामकृष्णजी कामारपुकूर से दक्षिणेश्‍वर लौट आने के बाद वह उसके मायके यानी जयरामबाटी चली गयी थी। लेकिन उसका मन दक्षिणेश्‍वरस्थित रामकृष्णजी के चरणों से ही बँधा हुआ था और जब उन्हें उचित लगेगा, तब वे मुझे वहाँ बुलायेंगे, इस बात का उसे यक़ीन था।

लेकिन गाँव के लोग उसपर तरस खाकर रामकृष्णजी के बारे में, अब तक लौकिक दृष्टिकोण से आकार धारण न की हुई उसकी गृहस्थी के बारे में अनापशनाप बकते रहते थे, ‘तुम्हारा पति अब कैसे पूरी तरह पगला गया है’ आदि कहीसुनीं बातें मिर्चमसाला लगाकर बताते थे। उसपर हालाँकि इस बात का कोई असर नहीं हो रहा था, मग़र फिर भी इस निरन्तर अपप्रचार के कारण उसके भी मन में – ‘क्या सही है और क्या ग़लत, यह एक बार चलकर खुद अपनी आँखों से देख लूँ’ ऐसा विचार उठा और उसने दक्षिणेश्‍वर जाने का तय किया।

कुछ ही दिन बाद आनेवाले एक पवित्र पर्व पर, दूर दूर से लोग पवित्र गंगानदी में स्नान करने हेतु कोलकाता आते थे। शारदादेवी के गाँव से भी कुछ लोग वहाँ जानेवाले थे। उसने भी उनके साथ जाने का तय किया। उसके पिता भी उसके साथ आने के लिए तैयार हो गये। लेकिन यह लगभग ८० मील की दूरी – पालक़ी आदि सुविधाएँ काफ़ी महँगी होने के कारण, पैदल ही तय करने का विचार उन्होंने किया था। लेकिन रामकृष्णजी की अर्धांगिनी को भला केवल पैसे की कमी के कारण मजबूरन पैदल चलना पड़ें, यह बात भला उस देवीमाता को कैसे रास आती?
प्रवास के पहले २-३ दिन अच्छे गुज़रे। बाद में अचानक शारदादेवी को काफ़ी तेज़ बुख़ार चढ़ गया। मजबूरन् औरों को आगे भेजकर वह पिताजी के साथ एक धर्मशाला में ठहरी। तेज़ बुख़ार के कारण उसे नीन्द भी नहीं आ रही थी। ऐसे में थोड़ीसी ग्लानि आ गयी, तो उसे एक सपना आया। सपने में उसने देखा कि एक अत्यधिक साँवले रंग की, लेकिन बहुत ही दैवी सुंदरता होनेवाली स्त्री उसके पास बैठी है। उस स्त्री ने अपने मृदु-मुलायम शीतल हाथ को शारदादेवी के शरीर पर से फेरा। उसीके साथ शारदादेवी को हो रही पीड़ा थमने लगी। ‘तुम कहाँ से आयी हो?’ ऐसा शारदादेवी के द्वारा पूछा जाने के बाद उसने – ‘दक्षिणेश्‍वर से’ ऐसा जवाब दिया। तब अचरज से शारदादेवी ने कहा, ‘मैं भी अपने पति से मिलने दक्षिणेश्‍वर ही जा रही हूँ, लेकिन बीच में यह बुखार की अड़चन आ गयी।’ उसपर – ‘क्यों चिन्ता करती हो? तुम यक़ीनन ही बुख़ार से उठकर उसे मिलने जानेवाली हो। मैंने तुम्हारे लिए ही तो उसे वहाँ पर सुरक्षित रखा है’ ऐसा उस स्त्री ने उसे कहा। ‘कितनी दयालु हो तुम! लेकिन तुम हो कौन’ ऐसा शारदादेवी द्वारा पूछा जाते ही – ‘मैं तुम्हारी बहन हूँ’ ऐसा उस स्त्री ने शारदादेवी से कहा। तभी शारदादेवी की आँख लग गयी।

सुबह उठकर देखते हैं, तो बुख़ार ग़ायब! फिर वे अगले प्रवास के लिए चल पड़े। लेकिन फिर से ऐसी कुछ आपत्ति न आयें, इसलिए उसके पिताजी ने उसके लिए पालक़ी तय कर ली और धीरे धीरे वे दक्षिणेश्‍वर पहुँच गये।

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