परमहंस-७२

देर रात पंचवटी की दिशा में निकले रामकृष्णजी का पीछा करते हुए चलनेवाले हृदय को ऐसा दिखायी दिया कि रामकृष्णजी भौतिक हड्डी-माँस के न बने होकर, वे तो प्रकाशरूप बन गये हैं।

लेकिन उससे भी अधिक, उसने जब सहज ही अपने शरीर को देखा, तो उसे अधिक बड़ा आश्‍चर्य का झटका लगा।

वह स्वयं भी रामकृष्णजी की तरह ही ‘प्रकाश’ रूप बन गया था!

आसपास का सबकुछ हमेशा की तरह ही….भौतिक; लेकिन केवल वे दोनों प्रकाशरूप।

अब तो आश्‍चर्य की सारी सीमाएँ पार कर चुके हृदय से रहा नहीं गया। यह सब अपनी उपासनाओं का ही परिणाम होने का यक़ीन उसे हो चुका था। अब उसने मामा को ज़ोरज़ोर से पुकारना शुरू किया – ‘मामाऽ, अरे मामाऽ! ये देखो….हमारी उपासनाओं के परिणामस्वरूप हम दोनों प्रकाशरूप बन गये हैं। हम इस दुनिया से हैं ही नहीं। हम अब स्थलकाल के बंधन को लाँघकर कहीं भी जा सकते हैं। चलो, विश्‍वभ्रमण करके हम इस दुनिया की आत्माओं को दुख से मुक्ति दिलाते हैं।’

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णउसका चिल्लाना सुनकर, उसके आगे आगे ही, अपनी ही धुन में चल रहे रामकृष्णजी की टकटकी टूट गयी और वे दौड़ते हुए ही हृदय के पास आये और उन्होंने उसे बहुत ही खरी खरी सुनायी, ‘‘अरे, क्यों शोर मचा रहे हो इतनी रात गये? लोग सोचेंगे कि हमपर कोई संकट का पहाड़ टूट पड़ा है….’’

लेकिन हृदय उनकी एक नहीं सुन रहा था, उसकी बकबक जारी ही थी। तब रामकृष्णजी ने उसकी छाती पर अपना हाथ रखा और देवीमाता से प्रार्थना की – ‘हे माता, इसे पुनः पहले जैसा इस भौतिक विश्‍व में ले आओ’; और अगले ही पल, हृदय की नज़रों के सामने से वह सारा दिव्य दृश्य ओझल हो गया और उसे सबकुछ पहले जैसा ही दिखायी देने लगा।

वह मायूस हुआ और रोते रोते रामकृष्णजी से शिक़ायत करने लगा, ‘‘ओह मामा! क्यों तुम मुझे पुनः इस भौतिक विश्‍व में ले आये? अब ऐसा सुंदर अनुभव मुझे पुनः कब दिखायी देगा?’’

रामकृष्णजी ने उसे समझाया, ‘‘मुझे मजबूरन् वैसा करना पड़ा। यह अनुभव एक साधारण अनुभव है, इसमें इतना होहल्ला मचाने की क्या बात है? इस तरह के कई अनुभव मुझे हर दिन प्राप्त होते रहते हैं, तब क्या तुमने मुझे ऐसा चिल्लाते हुए देखा है कभी? इसीलिए मैं तुमसे कह रहा था कि हर एक का समय आना चाहिए। यदि किसी को उचित समय से पहले अनुभव हुआ, तो वह उसे पचा नहीं सकेगा, जैसा अब तुम्हारे साथ हुआ है। अरे, क्यों चिन्ता करते हो? तुम्हारा समय आने पर तुम्हें भी ऐसे अनुभव प्राप्त होने ही वाले हैं।’’

हृदय हालाँकि उस समय के लिए चुपचाप बैठ गया, मग़र फिर भी उसका मन नहीं मान रहा था। मुझे यह अनुभव पुनः प्राप्त होना ही चाहिए, इस ईर्ष्या के साथ ने उसने अपने जाप, नामस्मरण, पूजन में बढ़ोतरी की। रामकृष्णजी हालाँकि सबकुछ समझ रहे थे, लेकिन वे चुप थे।

एक दिन हृदय के मन ने ठान ली कि चूँकि रामकृष्णजी पंचवटी में उपासना के लिए जाते हैं, उस स्थान में ही कुछ तो होना चाहिए; अत एव मुझे भी वहीं पर उपासना करनी चाहिए। ऐसा सोचकर फिर वह एक रात उठकर अकेला ही चुपके से पंचवटी में गया और शुरू शुरू में – ध्यानधारणा के लिए झोपड़ी बाँधने से पहले रामकृष्ण जिस वृक्ष के तले उनकी उपासनाएँ किया करते थे, उस स्थान पर गया….

यहाँ पर ठीक उसी समय, अपने कमरे में चिंतन कर रहे रामकृष्णजी को अचानक क्या हुआ पता नहीं, वे उठकर तेज़ी से पंचवटी की दिशा में चलने लगे।

इसी दौरान रामकृष्णजी की उपासना के स्थान तक पहुँचा हृदय उनकी उपासना के स्थान पर बैठ गया और जाप करने की कोशिश करने लगा।

लेकिन कुछ ही पल में, जाप करना तो दूर ही रहा, वह अचानक एक भयानक वेदना से चीखने-चिल्लाने लगा। उतने में उसे वहाँ पर पहुँच चुके रामकृष्णजी दिखायी दिये और उसकी जान में जान आ गयी। अब वह मामा को पुकारते हुए रोने लगा – ‘मामाऽ, मुझे बचाओ….अरे, मैं यहाँ जाप करने बैठ ही रहा था कि तभी अचानक किसीने कहीं से तो मेरे बदन पर थाली भरकर जलते कोयलें फेंके। मेरा पूरा बदन जल रहा है। अब मुझसे यह सहा नहीं जा रहा है। जल्द ही कुछ करो….!’

रामकृष्णजी ने उसका धीरज बँधाकर उसे शान्त किया और फिर उसके पूरे बदन पर से हाथ फेरा। तब जाकर कहीं उसके शरीर को हो रहा दाह धीरे धीरे कम होता गया और फिर पूरी तरह थम गया। रामकृष्णजी ने खिन्नतापूर्वक उसे फिर से समझाया – ‘अरे, तुम्हें यह सब करने की क्या ज़रूरत है? ऐसी बेसब्री मत दिखाना। ‘मेरी उपासनाओं के दौरान मेरा खयाल रखना’ यही फिलहाल माता ने तुम्हें दी हुई उपासना है। वह निष्ठापूर्वक करो। तुम्हारा उद्धार होकर, तुम्हें यक़ीनन ही ऐसे अनुभव प्राप्त होंगे।’

लेकिन इस घटना में से हृदय अच्छाख़ासा सबक सीख गया था और उसने मन ही मन में यह गाँठ बाँध ली कि ‘चाहे जो भी हो, मामा की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना है। वह जो कहता है, वही और उतना ही करना है। उसीमें अपना उद्धरण है;’ और फिर वह ग़लती से भी ऐसे अनुभवों के पीछे नहीं पड़ा।

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