परमहंस-१२२

रामकृष्णजी कीं स्त्रीभक्त

रामकृष्णजी की निष्ठावान स्त्रीभक्तों में ‘योगिन (जोगिन) माँ’ तथा ‘गोलप माँ’ इन नामों से आगे चलकर विख्यात हुईं अग्रसर स्त्रीभक्त थीं।

इनमें से ‘योगिन माँ’ (मूल नाम ‘योगींद्रमोहिनी मित्रा’) ये अमीर परिवार से थीं। लेकिन बहुत पैसा होने के बावजूद भी घर में पति की व्यसनाधीनता के कारण सुखशांति नहीं थी। घर में निरन्तर चल रहीं किसी न किसी समस्याओं के कारण वे दुखी रहती थीं। आख़िरकार यह सब उनकी बर्दाश्त से बाहर हो गया और वे अपनी इकलौती बेटी को लेकर घर त्यागकर अपने मायके आकर रहने लगीं। मूलतः ही सात्त्विक वृत्ति होने के कारण, निरन्तर संकटों से वे धीरे धीरे अंतर्मुख होने लगीं और मन का रूझान धीरे धीरे ईश्‍वर की ओर मुड़ने लगा। रामकृष्णजी के शिष्यगणों में से एक बलराम बोस ये उनके रिश्तेदार थे। उनसे योगींद्रमोहिनीजी को रामकृष्णजी के बारे में पता चला। योगींद्रमोहिनीजी के मन में अब, रामकृष्णजी से मिलकर ईशप्राप्ति के लिए उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर लेने की तीव्र इच्छा होने लगी और एक दिन जब रामकृष्णजी बलराम बोसजी के घर आये थे, तब वे आकर रामकृष्णजी से मिलीं।

रामकृष्णजी के प्रथम दर्शन होते ही योगींद्रमोहिनीजी अपने सारे दुखों और संकटों को मानो भूल ही गयीं और वे रामकृष्णचरणों में लीन हो गयीं। उनकी आध्यात्मिक लगन को पहचानकर रामकृष्णजी ने कुछ ही दिनों में उन्हें दीक्षा दी।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णरामकृष्णजी के मार्गदर्शन में योगिन माँ ने भक्तिमार्ग में धीरे धीरे, लेकिन निरंतर प्रगति की। रामकृष्णजी हमेशा अपने शिष्यों के पास उनकी सराहना करते हुए कहते थे कि ‘योगिन माँ में बहुत ही दुर्लभ ऐसे आध्यात्मिक गुण हैं। यह एक दिन में झट से खिलनेवाला सामान्य फूल न होकर, यह भक्तिबेल पर का सहस्रदलों का फूल है, जो धीरे धीरे ही खिल उठेगा।’

योगिन माँ ने लगभग संन्यस्त जीवन का स्वीकार किया होने के बावजूद भी अपने सांसारिक कर्तव्यों से मुँह नहीं फेरा। वे हालाँकि कभी गृहस्थी में उलझ नहीं पड़ीं, लेकिन फिर भी वे अपने सांसारिक कर्तव्य प्रेमपूर्वक करती थीं; फिर चाहे वह अपनी इकलौती बेटी के निधन के बाद उसके तीन बच्चों की परवरिश करना हो या अन्य कुछ। रामकृष्णजी के जिन पटशिष्यों ने युवावस्था में ही संन्यास का स्वीकार कर रामकृष्णजी के कार्य के लिए अपने आप को समर्पित किया था, उनसे तो वे माँ की तरह ममता बरसाती थीं और उन्हे विभिन्न व्यंजन बनाकर खिलाने से लेकर उनकी बीमारी में उनका ख़याल रखने तक सबकुछ वे प्रेमपूर्वक करती थीं। गृहस्थी में होनेवाली गृहिणी को भक्तिमार्ग पर चलते समय किस प्रकार आचरण करना चाहिए, इस बात का ‘योगिन माँ’ यानी अक्षरशः एक वस्तुपाठ ही था। रामकृष्णपरिवार की एक विदेशी शिष्या ने उनके बारे में बताते समय इसी बात को अधोरेखित किया है – ‘योगिन माँ ये अपने सांसारिक कर्तव्यों से कभी भी मुँह न फेरनेवालीं आदर्श गृहस्थाश्रमी स्त्री थीं। लेकिन आध्यात्मिक बाबतों में उन्होंने स्वयं को ही लगाये नियम और उनका उन नियमों को कर्मठता से पालन करना, यह किसी सर्वसंगपरित्याग करके संन्यास धारण की हुई साधिका को भी पिछाड़नेवाला था। गृहस्थी है, यह बहाना बनाकर कभी किसी आध्यात्मिक कर्तव्यों से मुँह फेरना नहीं कि आज के उपासनादि आध्यात्मिक कर्तव्य करना बाक़ी है ऐसा बताकर किसी सांसारिक कर्तव्यों से मुँह फेरना नहीं।’

उनकी इसी निष्ठा को पहचानकर रामकृष्णजी ने अपनी पत्नी शारदादेवी (रामकृष्ण शिष्यपरिवार की ‘होली मदर’) से उनकी भेंट करायी। अब उन्होंने गुरुपत्नी शारदादेवी की सेवा में अपने आपको समर्पित कर दिया। उन्हें क्या चाहिए-क्या नहीं, इसका ख़याल रखने से लेकर, उनसे विभिन्न विषयों पर चर्चा कर मार्गदर्शन प्राप्त करा लेने तक, दिन का अधिकांश अब वे शारदादेवी के साथ बिताती थीं। रामकृष्णजी ने कुछ समय बाद देहत्याग करने के बाद तो वे परछाई की तरह शारदादेवी के साथ रहकर उनका खयाल रखती थीं। आगे चालकर वे शारदादेवी के साथ कई तीर्थयात्राओं में भी सहभागी हुईं थीं।

रामकृष्णजी के बाद कुछ सालों में जब शारदादेवी का स्वास्थ्य ढ़हने लगा, तब वे कभी भी खुद के मुँह से किसी के पास इसका ज़िक्र नहीं करेंगी, यह जानकर उनके बिगड़ते स्वास्थ्य का एहसास रामकृष्णपरिवार को करा देने का काम भी योगिन माँ ने किया। योगिन माँ ने शारदादेवी के अन्त तक उनका खयाल रखा।

इस प्रकार, आम लोगों की तरह ही होनेवाली एक सामान्य गृहस्थाश्रमी स्त्री ने, गृहस्थी न छोड़ते हुए भी, केवल अपने गुरु के शब्द पर विश्‍वास रखकर, गुरु के शब्द का अचूकता से पालन करके, गुरु की सेवा और उपासना करके एक बहुत ही ऊँचा आध्यात्मिक मुक़ाम हासिल किया और अपने जीवन को स्वर्णिम बनाया।

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