परमहंस-८१

केशवचंद्र सेनजी के पीछे पीछे ब्राह्मो समाज के तथा उनके समविचारी संप्रदाय के प्रभावशाली व्यक्ति धीरे धीरे रामकृष्णजी के पास आने लगे। तक़रीबन सन १८७९ से १८८१ इस अवधि में रामकृष्णजी के पास आनेवाले लोगों का प्रवाह धीरे धीरे बढ़ गया। इनमें जिस तरह ईशप्राप्ति का प्रखर ध्यास लिये हुए मुमुक्षु साधक, ज्ञानमार्गी, योगी, बैरागी होते थे, वैसे ही आम प्रापंचिक लोग भी हुआ करते थे।

रामकृष्णजी के लिए सभी एकसमान ही थे और ईशप्राप्ति के लिए अपनाये जानेवाले किसी भी पवित्र मार्ग का उन्हें परहेज़ नहीं था, यह बात उन्होंने स्वयं ही विभिन्न मार्गों की उपासनाएँ कर और उसमें सफलता प्राप्त कर सिद्ध भी की थी। लेकिन हर बार उन्होंने यही बात दृढ़ कर ली कि हम जिससे प्रेम करते हैं और जो हमें क़रिबी प्रतीत होता है, वही ईश्‍वर का रूप हमारे लिए सुयोग्य होता है।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णनिर्गुण निराकार ब्रह्म की प्राप्ति के लिए प्रखर परिश्रम करनेवालों को भी वे ‘ईश्‍वर प्रेमस्वरूप – मातृस्वरूप है’ यह बात समझाकर बताते थे। एक बार उन्होंने केशवचंद्रजी तथा उनके समर्थकों के साथ बात करते हुए कहा था – ‘ईश्‍वर कितना महान है, यह बात लोगों को समझाकर बताने के चक्कर में तुम क्यों पड़े हो? वह महान है ही, लेकिन वह ‘कितना’ महान है, यह क्या अब तक कोई समझ पाया है? यदि हम इसी बात का अध्ययन करते रहें कि वह कितना महान है, तो उसकी और नयीं महानताएँ हमें ज्ञात होतीं रहेंगी; और फिर इस सारी प्रक्रिया में वह हमसे दूर प्रतीत होता है, हमें क़रिबी प्रतीत नहीं होता। ईश्‍वर हमें ‘क़रिबी’….‘सबसे क़रिबी और सबसे प्रिय’ प्रतीत होना चाहिए। ईश्‍वर से ‘प्रेम’ करके ही उसे ‘जान सकते हैं’।

कोई छोटा बच्चा क्या इस बात की खोज करता है कि उसके पिताजी कितने अमीर हैं, उनका घर कितना बड़ा है, कितनी गाड़ियाँ-घोड़ें है? नहीं ना? वह हमेशा ही – ‘पिताजी मुझसे कितना प्रेम करते हैं’ यही देखेगा!’

गृहस्थी करने के लिए वे मना नहीं करते थे; लेकिन गृहस्थी में उलझे, अन्य सभी प्रापंचिक, व्यावहारिक बातों के पीछे पड़कर, ईश्‍वर को कम से कम प्रधानता देनेवाले, ईश्‍वर को केवल अपनी पारिवारिक समस्याओं को हल करने का साधन माननेवाले प्रापंचिक जनों को देखकर वे दुखी हो जाते थे।

लेकिन उनकी सीख के अनुसार जो प्रापंचिक गृहस्थी की ओर प्रेमपूर्ण कर्तव्यबुद्धि से देखते थे (महज़ कठोर कर्तव्यबुद्धि से नहीं) और अपने परिवार के प्रति होनेवाले प्रापंचिक कर्तव्यों को बख़ूबी निभाकर जो ईशप्राप्ति का ध्यास रखते थे और उसके लिए प्रयास करते थे; ऐसे मथुरबाबू, केशवचंद्रजी जैसे लोगों से रामकृष्णजी अपार प्रेम करते थे।

ईशप्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहनेवाले किसी मनुष्य की भक्तिविषयक संकल्पना क्या है यह जानकर, उसकी धारणा को कुछ ख़ास धक्का न देते हुए वे उस संकल्पना के ही आसपास, उस मनुष्य के लिए होनेवाली सीख बुनते थे।

प्रतापचंद्रजी मजुमदार, पंडित विजयकुमारजी गोस्वामी, पंडित शिवनाथजी शास्त्री ऐसे उस समय समाजमान्यताप्राप्त लोग रामकृष्णजी से मिलने आये और उन्हीं के शिष्यगण बन गये। ये सभी ज्ञानमार्गी होने के कारण उनके दिमाग में होनेवालीं संकल्पनाएँ पक्कीं हुई होती थीं। रामकृष्णजी जो कहते थे, उसमें से सभी बातें उन्हें पहली बार ही रास आती थीं ऐसा हरगिज़ नहीं था। कुछ लोग तो पूरी तरह नास्तिक ही होते थे। कई बार कुछ लोग वाद-विवाद पर भी उतर आते थे। लेकिन रामकृष्णजी ने अपना मत किसी और पर कभी नहीं थोंपा। एक नियत मर्यादा तक ही वे सामनेवाले को बोलते थे, लेकिन यदि उसके बाद भी सामनेवाले ने अपनी ज़िद नहीं छोड़ी, तो फिर वे मौन धारण करते थे।

इन बाहर से आये ज्ञानमार्गी लोगों पर से भी रामकृष्णजी को, ‘लोगों की सोच किस तरह की है और फिलहाल समाज में कैसी हवाएँ बह रहीं हैं’ इस बात का क़रीब से अँदाज़ा हुआ; जो कुछ साल बाद उनकी सीख लोगों तक सुचारू रूप से पहुँचाने में उनके काम आया।

केशवचंद्रजी से मुलाक़ात होने के कुछ ही दिनों में रामकृष्णजी के मन में – ‘गौरांग चैतन्य महाप्रभु की संकीर्तन शोभायात्रा किस तरह होगी’ ऐसा कौतुहल निर्माण हुआ और हैरानी की बात यह है कि उनकी आँखों के सामने वह पूरी शोभायात्रा – यहाँ तक कि स्वयं चैतन्य महाप्रभु भी – साकार हुई। शोभायात्रा में कुछ चेहरे उन्हें भली-भाँति याद थे। आगे चलकर एक के बाद एक कर उनके शिष्यगण जब दक्षिणेश्‍वर आने लगे, तब उनमें से कुछ लोगों के चेहरे उस शोभायात्रा के उन स्मरण में रहे चेहरों के साथ मिलतेजुलते हैं, ऐसा उन्हें महसूस हुआ।

उसके कुछ ही समय बाद उन्होंने पुनः कामारपुकूर की भेंट की। यह उनकी कामारपुकूर की आख़िरी मुलाक़ात साबित हुई। इस भेंट में उन्होंने कई गाँवों में संकीर्तनदौरा किया। इन संकीर्तनों के दौरान वे कई बार भावव्याकुल हो जाते थे। उनके इन संकीर्तनों की ख्याति इतनी फ़ैल गयी कि दिन-रात की परवाह न करते हुए सभी संकीर्तनों को हमेशा ही भारी-भरकम भीड़ इकट्ठा होने लगी। आगे चलकर तो लोग उनके घर आकर भी इकट्ठा होने लगे। कई बार थोड़े से विक्षाम के लिए हृदय उन्हें ज़बरदस्ती वहाँ से बाहर जे जाया करता था।

कुछ महीने बाद रामकृष्णजी पुनः दक्षिणेश्‍वर लौट आये।

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