परमहंस-५९

तोतापुरी से वेदांतसाधना सीखने की अनुमति कालीमाता से प्राप्त होने के बाद रामकृष्णजी खुशी से तोतापुरी के पास आए और उन्होंने – यह साधना करने के लिए माँ की अनुमति होने की बात तोतापुरी को बतायी। वास्तविक अधिकारी साधकों के समूह में एक और साधक समाविष्ट होनेवाला है, इस बात की तोतापुरी को भी खुशी हो रही थी।

लेकिन यह साधना शुरू करने से पहले, साधक का सर्वसंगपरित्याग करके संन्यास धारण करना आवश्यक है, ऐसा तोतापुरी ने कहा। दरअसल संन्यास धारण करने के पश्‍चात् संन्यासी को जिन परहेज़ों का पालन करना आवश्यक है, उनमें से अधिकांश परहेज़ों का पालन अपने आचरण के द्वारा रामकृष्णजी पहले से ही कर रहे थे। फिर भी इस औपचारिक विधि का करना आवश्यक था। लेकिन यह साधना करने के लिए कालीमाता से अनुमति प्राप्त हुई होने के कारण, अन्य किसी भी बात की परवाह न होनेवाले रामकृष्णजी उसके लिए भी तैयार हुए।

लेकिन केवल एक ही अड़चन थी। उस दौरान रामकृष्णजी की जन्मदात्री माँ चंद्रादेवी दक्षिणेश्‍वर में ही निवास कर रही थी और बाक़ी बचाकुचा जीवन भी वहीं पर, रामकृष्णजी की सन्निधता में ही व्यतीत करना उसने तय किया था। इसलिए मथुरबाबू ने उसके लिए, वह हररोज़ खिड़की से गंगामैया के दर्शन कर सकें ऐसे, जीवनावश्यक सुविधाओं से युक्त ऐसे स्वतंत्र कमरे का प्रबंध किया था।

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इस कारण, परंपरागत पद्धति से जीवन जीती आयी बूढ़ी माँ से अब इस उम्र में – अपना बेटा संन्यासी बन रहा है, यह सदमा बर्दाश्त नहीं होगा, यह जानकर रामकृष्णजी ने गुप्त रूप से यह संन्यास धारण करने का तय किया था। रामकृष्णजी जहाँ पर अपनी साधनाएँ करने अ़क्सर जाते थे, वह दक्षिणेश्‍वर के नज़दीक का ही ‘पंचवटी’ यह निर्जन स्थान इसके लिए चुना गया था।

निर्धारित दिन को, मध्यरात्रि के बाद तोतापुरी अपने इस शिष्य को लेकर पंचवटी में गये और रामकृष्णजी को सामने बिठाकर उन्होंने दीक्षाप्रदान विधि की शुरुआत की। रामकृष्णजी किसी आज्ञाकारी शिष्य की तरह अत्यधिक नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर अपने इस नये गुरु के सामने बैठे थे।

सबसे पहले वहाँ पर अग्निकुंड चेताकर, मंत्रोच्चारण करते हुए तोतापुरी ने रामकृष्णजी से, अपने दिवंगत पूर्वजों का आख़िरी बार श्राद्ध करने के लिए कहा, क्योंकि एक बार संन्यास धारण करने के बाद रामकृष्णजी ऐसी विधियों में सहभागी नहीं हो सकते थे।

उसके बाद तोतापुरी ने रामकृष्णजी से – अपने परिजनों के प्रति, आप्तेष्ट-मित्रों के प्रति होनेवाले लोभमोह-स्नेहभावना, इस नश्‍वर जग के प्रति होनेवाली आसक्ति, साथ ही, अपने षड्रिपु, अन्य मायामोह, भौतिक सुख की इच्छा, हाथों घटित हुए अच्छेबुरे कर्म, कर्मफल की आशा, इस लोक में घटित हुए अच्छे कर्मों के पुण्य की उम्मीद, देहभाव, अहंकार ऐसीं देह-धर्म-समाज इनसे बाँधे रखनेवाली बातों को मंत्रोच्चारण के साथ, एक के बाद एक प्रतिकात्मक रूप से उस होम में जला देने के लिए कहा।

यहाँ तक कि ईश्‍वर के सगुण रूपों से (रघुबीर, कृष्ण, राधा, इतना ही नहीं बल्कि कालीमाता से भी) होनेवाला रामकृष्णजी का भावनिक नाता भी उन्होंने अग्नि में बतौर ‘आहुती’ अर्पण करने के लिए रामकृष्णजी से कहा!

कालीमाता यानी सर्वस्व होनेवाले रामकृष्णजी के लिए यह बात सबसे कठिन थी, लेकिन यह साधना करने की माता की ही आज्ञा होने के कारण रामकृष्णजी जैसा तोतापुरी कहें वैसी एक एक बात करते जा रहे थे।

फिर तोतापुरी ने रामकृष्णजी को अपना खुद का श्राद्ध करने के लिए कहा, क्योंकि जिस प्रकार व्यक्ती के मृत होने के बाद इस भौतिक जग से उसका रिश्ता ख़त्म हुआ होता है, उसी प्रकार वास्तविक संन्यासी का भी इस भौतिक जग से होनेवाला नाता ख़त्म हुआ होता है। जब माता ने कहा है, तो मैं करूँगा ही, यह दृढनिश्‍चय रहनेवाले रामकृष्णजी ने ज़रा सा भी न मुक़र जाते हुए अपने खुद के श्राद्ध की विधि तत्काल की। रामकृष्णजी के बालों के गुच्छे की आहुति होमकुंड में डाली गयी।

सारी विधियाँ संपन्न होने के बाद तोतापुरी ने रामकृष्णजी को संन्यास का प्रतीक माने जानेवाले भगवे वस्त्र प्रदान किये।

कुल मिलाकर वातावरण भारित हुआ प्रतीत हो रहा था। अतः इन सभी क्रियाकलापों में रात ख़त्म होने जा रही है और भोर होने को है, यह बात समझ में ही नहीं आयी थी।

तोतापुरी ने रामकृष्णजी को अद्वैत साधना का पहला पाठ पढ़ाना शुरू किया….

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