परमहंस-१२३

रामकृष्णजी की स्त्रीभक्त

‘योगिन माँ’ की तरह ही रामकृष्ण-परिवार में विख्यात होनेवालीं दुसरीं स्त्रीभक्त यानी ‘गोलप माँ’। रामकृष्णसंप्रदाय स्थापन होने के शुरुआती दिनों में उसे ठीक से आकार देने का काम जिन्होंने निष्ठापूर्वक किया, उनमें से एक गोलप माँ थीं।

‘अन्नपूर्णा देवी’ उर्फ ‘गोलप सुंदरी देवी’ ऐसे पूर्वनाम होनेवालीं गोलप माँ रामकृष्णजी के पास आयीं, उस समय उनके जीवन में दुख का दौर शुरू था। उनके पति, इकलौता बेटा और बेटी इनकीं एक के बाद एक हुईं मृत्यु ही उनकी इस शोकाकुल अवस्था कारण थीं।

इस शोकाकुल अवस्था में होते समय उन्हें, उनके पड़ोस में रहनेवालीं ‘योगिन माँ’ से रामकृष्णजी के बारे में पता चला और एक दिन उनसे मुलाक़ात करने का मन में निश्‍चय कर वे योगिन माँ के साथ रामकृष्णजी के पास आयीं।

अब तक जिस प्रकार कइयों ने अनुभव किया था, वैसा ही उन्हें भी हुआ – रामकृष्णजी के सान्निध्य में आते ही उन्हें भी मनःशांति महसूस होने लगी। रामकृष्णजी ने उन्हें आश्‍वस्त किया। रामकृष्णजी के मार्गदर्शन में उनकी आध्यात्मिक मार्गक्रमणा शुरू ही थी। वे धीरे धीरे रामकृष्णजी की सेवा में भी आ गयीं। रामकृष्णजी का कमरा सा़ङ्ग करने से लेकर उन्हें खाना देने तक, हाथ आयी हर सेवा वे करती थीं।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णवे वैसे अच्छीख़ासी शिक्षित भी थीं, इसलिए भगवद्गीता, महाभारत आदि ग्रन्थों का अध्ययन वे करती थीं। रामकृष्णजी की सेवा में आने के कुछ दिन बाद रामकृष्णजी ने उन्हें शारदादेवी की भी सेवा का भार सौंपा। उन्होंने शारदादेवी की सेवा में अपने आपको समर्पित कर दिया। वे परछाई की तरह शारदादेवी के साथ रहती थीं – केवल दक्षिणेश्‍वर में ही नहीं, बल्कि शारदादेवी जहाँ कहीं भी जातीं वहाँ। योगिन माँ और गोलप माँ इन्हें शारदादेवी मज़ाकिया अन्दाज़ में ‘जया-विजया’ कहकर बुलाती थीं। आगे चलकर रामकृष्णजी के बाद शारदादेवी का मार्गदर्शन प्राप्त करने जब लोग आने लगे, तब कई बार पुरुषभक्तों को शारदादेवी गोलपमाँ और योगिनमाँ के ज़रिये ही मार्गदर्शन करती थीं।

ऐसी ही आध्यात्मिक प्रगति साध्य की हुईं एक और स्त्रीभक्त थीं – ‘अघोरमणीदेवी’!

रामकृष्णपरिवार में ‘गोपालर माँ’ नाम से विख्यात हुईं अघोरमणीदेवी की भक्ति रामकृष्णजी के शिष्यों में वात्सल्यभक्ति का आदर्श मानी जाती थी। ‘गोपालर माँ’ यानी ‘गोपाल की माता’ अर्थात् ‘कृष्ण की माता’। उन्हें इस नाम से संबोधित किया जाने लगा, क्योंकि अघोरमणीदेवी का आराध्य था ‘बालकृष्ण’ – भगवान श्रीकृष्ण का बालरूप। कृष्ण के इस बालरूप से उन्होंने माँ की तरह प्रेम किया।

उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुसार उनकी बचपन में ही शादी हो चुकी थी। लेकिन सुयोग्य उम्र होकर पति के घर गृहस्थी के लिए जाने से पहले ही उनके पति का देहान्त हो गया था। उसके बाद आध्यात्मिक मार्ग की ओर उनका रूझान हुआ। एक बार आध्यात्मिक मार्ग पर कदम रखने के बाद श्रद्धावान को हमेशा ही यह प्रचिती आते रहती है कि उसके लिए अगला मार्ग ईश्‍वर ने सुनिश्‍चित कर रखा है और उसे केवल उसपर चलना होता है। अघोरमणीदेवी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उनका भाई यह एक राधा-कृष्णजी के मंदिर में पुरोहित था। उसके साथ वे भी उस मंदिर में नित्यनियमित रूप में जाने लगीं। ऐसे कुछ साल बीत गये। उनका मंदिर जाना, जपजाप्य आदि करना, मंदिर में जो हाथ आये वह हर एक सेवा करना शुरू ही था। इसी दौरान, मंदिर जिस जगह में था, उस जगह की मालकीन से उनका परिचय हुआ था। जैसे जैसे दिन का अधिक से अधिक समय वे मंदिर में ही बीताने लगीं, वैसे एक दिन मालकीन ने उन्हें मंदिरपरिसर में ही बाँधा हुआ एक छोटासा कमरा रहने के लिए दे दिया। अब वे वहाँ रहने लगीं। उस कमरे में उनका कुछ ख़ास सामान तो था नहीं। केवल रामायण की एक पुरानी कापी, जिसे वे नित्यनियमित रूप से पढ़ती थीं और एक जाप की माला इतनी ही उनकी ‘संपत्ति’ थी। वह जाप की माला भी उन्हें बहुत प्रिय थी। जाप करते करते एक एक मणि खींचते हुए वे उसकी ओर प्यार से देखती ही रहती थीं। रात के दो बजे ही उनका ‘दिन’ शुरू होता था। स्नान आदि करके वे जाप करने बैठती थीं। सुबह होते ही वे मंदिर में सेवा करने जाती थीं। दोहपर का और रात का खाना एकदम सादा रहता था।

ऐसे लगभग ३० साल बीत गये और उन्होंने अब उम्र का साठ साल पार किये थे। तब तक सन १८८० का दशक शुरू होकर, दक्षिणेश्‍वरी रहनेवाले रामकृष्णजी की किर्ती चारों ओर फैलने लगी थी। उनसे मिलकर कुछ आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु अघोरमणीदेवी दक्षिणेश्‍वर आयीं।

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