परमहंस-९४

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

रामकृष्णजी के पास आनेवाले कुछ शिष्य कई बार भक्ति की भोली-भोली कल्पनाओं को दिल में समेतकर आते थे….मेरी अब शादी हो चुकी है, अब मैं कहाँ अध्यात्म कर पाऊँगा? या फिर….जग कैसा भी क्यों न बर्ताव करें, मैं अच्छा बर्ताव कर रहा हूँ यह काफ़ी है; ऐसे कुछ विचार उनके दिल में होते थे।

रामकृष्णजी उन ग़लत विचारों को अचूकता से पहचानकर उनके विभ्रम के गुब्बारों को पिन लगाकर बराब्बर फोड़ देते थे। आगे चलकर उनके निष्ठावान् क़रिबी भक्तों में से एक माने गये जोगींद्रनाथ रॉयचौधुरी नामक भक्त का उदाहरण इस दृष्टि से सुस्पष्ट है।

जोगींद्रनाथ बचपन से ही ईश्‍वरभक्ति से भारित था। यहाँ तक कि खेलते खेलते भी कभी बीच में ही कुछ अलग ही विचार उसके मन में आकर वह स्तब्ध हो जाता था। ऐसे विचार आने पर वह खेल-कूद को बीच में ही छोड़कर एक कोने में जाकर आकाश को निहारता रहता था। ‘मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ?’ ऐसे विचित्र विचार उसके दिल में आते रहते थे। ईश्‍वर के प्रति उसे बहुत ही आकर्षण था और ईश्‍वर पर प्राप्त हुई किसी भी पुस्तक को वह पढ़े बग़ैर नहीं छोड़ता था।

वैसे वह बचपन से ही दक्षिणेश्‍वर आता था। एक दिन जब वह ऐसे ही आया था, तब उसने रामकृष्णजी को कुछ विवेचन करते सुना। ईश्‍वर से प्रेम किस तरह करें, इसे वे एकदम सीधेसादे उदाहरणों से उपस्थितों को बता रहे थे। रामकृष्णजी के बारे में जोगींद्रनाथ ने तब तक – ‘पूजन के समय पागलों जैसा बर्ताव करनेवाला, पागल आदमी’ ऐसी लोगों की चर्चा ही सुनी थी।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णलेकिन उस समय उनके विवेचन का जो थोड़ाबहुत हिस्सा उसने सुना, उससे जोगींद्रनाथ को यक़ीन हो गया कि ये कोई बड़े ईश्‍वरभक्त हैं….ऐसे ईश्‍वरभक्त, जिन्होंने ईश्‍वर के प्रत्यक्ष रूप में देखा है और जो उसे इस सन्दर्भ में मार्गदर्शन कर सकते हैं।

इस कारण दूसरे दिन वह अधिक हिम्मत जुटाकर रामकृष्णजी के कमरे में ही घुस गया। उसका परिचय प्राप्त होने के बाद रामकृष्णजी भी बहुत खुश हुए, क्योंकि वे उसके परिवार को अच्छे से पहचानते थे। रामकृष्णजी ने उसकी प्रशंसा की और उसके स्वभाव में होनेवाली अध्यात्म की आस उसे यक़ीनन ही इस मार्ग पर आगे ले जायेगी, ऐसा कहकर वहाँ नित्यनियमित रूप में आते रहने के लिए उसे कहा।

जोगींद्रनाथ का दक्षिणेश्‍वर में आना-जाना शुरू हुआ। वह हररोज़ रामकृष्णजी से कई बातें सीख जाता था। उसने शादी न करने का मन ही मन दृढ़निश्‍चय किया था। लेकिन घरवालों की सोच बिल्कुल विरुद्ध थी। इस सनकी, आत्ममग्न प्रतीत होनेवाले लड़के की एक बार शादी हो जायेगी, तो यह सुधर जायेगा, ऐसा सोचकर उन्होंने उसकी शादी पक्की की। जोगींद्रनाथ ने पहले शादी करने से इन्कार किया। लेकिन उसकी माँ ने भावनिकदृष्टि से उसे पेंच में डालकर शादी के लिए तैयार किया। अब शादी करने के सिवाय उसके पास और कोई चारा ही नहीं था।

जोगींद्रनाथ की शादी हुई। जो आध्यात्मिक सपने उसने देखे थे, उन्हें चकनाचूर होते हुए वह देख रहा था। मुख्य बात यानी, शादी न करने का अपना निश्‍चय मुझसे टूट गया अर्थात् मैं अब रामकृष्णजी को मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहा, ऐसा मान चलकर उसका दक्षिणेश्‍वर आना ही बन्द हो गया।

रामकृष्णजी अपने प्रिय शिष्य की यह दुविधा समझ रहे थे। उन्होंने कई बार न्योता भेजने के बावजूद भी वह नहीं आया, तब वह गुरुतत्त्व एक अलग ही चाल चला। उन्होंने गुस्सा होने जैसा बर्ताव कर जोगींद्रनाथ के एक दोस्त के ज़रिये न्योता भेजा – ‘कुछ महीने पहले कुछ चीज़ें ले आने के लिए जोगींद्रनाथ को कुछ पैसे दिये थे। उसने अब तक ना तो उनका हिसाब दिया है, ना ही बचे हुए पैसे।’ यह न्योता सुनकर तो जोगींद्रनाथ के होश ही उड़ गये और – ‘मेरा आध्यात्मिक जीवन तो बरबाद हो ही गया है, अब कम से कम ये मुझे चोर तो ना समझें’ ऐसा सोचते हुए, वे सँभालकर रखे बाक़ी पैसे लेकर वह फ़ौरन दक्षिणेश्‍वर आया। रामकृष्णजी का निशाना सही जगह लगा था।

आते ही रामकृष्णजी ने उसे गले लगाया और – ‘अरे बेटा, शादी हुई यानी आध्यात्मिक जीवन समाप्त हुआ ऐसा क्यों सोचते हो? शादी तो मेरी भी हुई है, लेकिन क्या वह मेरी आध्यात्मिक मार्गक्रमणा के आड़े आयी है? फिर तुम क्यों नाहक चिन्ता करते हो?’ ऐसा बहुत ही प्यार से तहे दिल से उसे समझाया। जो बचे हुए पैसे लेकर जोगींद्रनाथ आया था, उसका ज़िक्र तक उन्होंने नहीं किया। धीरे धीरे जोगींद्रनाथ के दिल की अपराधीपन की भावना मिट गयी और वह फिर से नये उत्साह के साथ ईश्‍वरप्राप्ति के लिए प्रयास करने लगा। उसकी गृहस्थी भी आनन्दमयी हो गयी।

अब वह नित्यनियमित रूप से दक्षिणेश्‍वर आने लगा। उसके स्वभाव में होनेवाले कई दोष भी रामकृष्णजी ने धीरे धीरे दूर किये। उदा. वह किसी पर भी झट से भरोसा कर देता था। मैं अच्छा बर्ताव कर रहा हूँ, तो सामनेवाला भी अच्छे से ही पेश आयेगा, यह ग़लत धारणा उसके मन में दृढ़ हुई थी। एक बार रामकृष्णजी ने उसे कुछ पैसे देकर एक कड़ाही लाने बाज़ार भेजा। वह सीधे एक दूकान में गया और कड़ाही ले आया। उसने ना तो चार दूकानों से क़ीमत पूछी, ना ही उस वस्तु की गुणवत्ता की जाँच की। उसने दूकानदार से सिर्फ़ यह बताया कि यह चीज़ भगवान की पूजा के काम आनेवाली होने के कारण वह अच्छी ही ढूँढ़कर दे दें। दुकानदार ने भी ऊपरि तौर पर नम्रतापूर्वक मुस्कुराते हुए वस्तु बाँधकर दे दी। वस्तु ले आने के बाद रामकृष्णजी ने जोगींद्रनाथ के सामने ही कड़ाही का पॅकेजिंग खोला और देखा, तो कड़ाही में एक छेद था। वह दिखाकर उन्होंने उसे अच्छी डाँट पिला दी कि ‘भक्त को व्यवहारिक दृष्टिकोण से भी चौकन्ना रहना ही चाहिए। तुम भले ही हमेशा ईश्‍वर के बारे में सोचते होंगे, लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि तुम्हें चीज़ बेचते समय दूकानदार भी ईश्‍वर के बारे में ही सोचता हों।’ अब जोगींद्रनाथ को अपनी ग़लती का एहसास हो चुका था।

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