नेताजी- ६७

सन १९२८ का अन्तिम चरण और १९२९ यह पूरा वर्ष मशहूर हुआ, क्रान्तिकारी गतिविधियों के कारण। अप्रैल में दिल्ली की असेंब्ली में बम फ़ेकने के तथा अक्तूबर के साँडर्स वध के मामले में सरदार भगतसिंग, सुखदेव, राजगुरु और बटुकेश्‍वर दत्त इनके साथ ही सोलह क्रान्तिकारियों को गिऱफ़्तार किया गया। भगतसिंगजी ने अपने कार्य को क़बूल करते हुए ‘किसी को मारने का हमारा उद्देश्य न होकर भारतीय जनता की भावनाओं को बधीर हो चुकी सरकार तक पहुँचाना यही हमारा उद्देश्य था’ ऐसा कहा। ‘लाहोर षड्यन्त्र’ के रूप में आगे चलकर मशहूर हुए इस मुक़दमे में जतीन दास को भी गिऱफ़्तार किया गया। बमनिर्माण की कला उन्होंने ही भगतसिंगजी आदि को सिखायी थी, यह बात त़फ़तीश में सामने आयी। साथ ही इस घटना के पूर्व और बाद में भी महज़ शक़ की बुनियाद पर, प्रमुख रूप से म़जदूर नेताओं को गिऱफ़्तार किया ही जा रहा था। ऐसे कुल इकत्तीस म़जदूर नेताओं को गिऱफ़्तार किया गया। उनमें कुछ अँग्रे़ज भी थे। इसीलिए कुल मिलाकर इसे ‘कम्युनिस्ट इन्टरनॅशनल की सहायता लेकर भारत की अँग्रे़जी हुकूमत को उखाड़कर रशिया की तरह स्वतन्त्र राज्य की स्थापना करने का सोव्हिएट रशिया का षड्यन्त्र’ ऐसा रंग दिया गया और इंग्लैंड़ के अख़बारों में से भी इसका का़फ़ी डंका पिटा गया। यह दूसरा मुक़दमा ‘मेरठ षड्यन्त्र’ इस नाम से मशहूर हुआ।

जतीन दास बंगाल के क्रान्तिकारी थे और इसीलिए उनके सुभाषबाबू के साथ रहनेवाले ताल्लुकात के सबूत इकट्ठा करने की दृष्टि से कोलकाता पुलीस कमिशनर टेगार्ट ने सुभाषबाबू के चारों ओर अपना शिकंजा कसना शुरू कर दिया।

यहाँ पर लाहोर की जेल में रखे गये राजकीय कैदियों के प्रति सरकार ने बढ़ती हुई प्रतिशोधवृत्ति दर्शाना शुरू कर दिया। राजकीय कैदी होने के बावजूद भी उन्हें एक साधारण कैदी की तरह रखा जाता था। टॉयलेट जैसी मूलभूत आरोग्यसुविधाएँ भी ठीक ढंग से मुहैय्या नहीं करवायी जाती थीं। साथ ही, इस बात पर ग़ौर करना जरूरी है कि तब तक ना तो उनपर दायर किये गये मुक़दमे का कामका़ज कोर्ट में शुरू हुआ था और ना ही उन्हें स़जा हुई थी।

सन १९२९ के मध्य में इस लाहोर षड्यन्त्र के मुक़दमे की शुरुआत हुई। साथ ही इन राजकीय कैदियों की रिहाई की कोशिशें करने के लिए बचाव समिति की स्थापना भी की गयी, जिसमें सुभाषबाबू भी थे। साथ ही, म़जदूरजगत में भी उनका काम चल ही रहा था। ट्रेड युनियन काँग्रेस इस म़जदूर संगठन के केन्द्रीय मंडल के स्तर का काम भी वे करने लगे थे। म़जदूरवर्ग में उनके बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर अंग्रे़ज सरकार के पैरों तले की मानो जमीन ही खिसक गयी थी। साथ ही स्वतन्त्रता आन्दोलन में महिलाओं को भी अधिक से अधिक संख्या में सम्मीलित होना चाहिए, यह उनकी भूमिका थी। महिलाओं में राष्ट्रभावना जागृत होकर वे आत्मीयतापूर्वक राष्ट्रकार्य में शामिल हों, इस उद्देश्य से देशबंधु ने सन १९२१ में ‘नारी कर्म मंदिर’ इस संस्था की स्थापना भी की थी। उनकी मृत्यु के बाद कुछ शिथिल सा पड़ गया उसका काम भी, उसे ‘महिला राष्ट्रीय संघ’ इस नाम से पुनरुज्जीवित कर सुभाषबाबू ने पूरे जोश के साथ शुरू कर दिया था। इस अवसर पर किये हुए भाषण में उन्होंने कहा था कि ‘गाँधीजी ने इस देश में जो कई चमत्कार कर दिखाये हैं, उनमें से एक है – स्त्री को उसके आत्मबल का एहसास कराना।’

युवाशक्ति, म़जदूरशक्ति और स्त्रीशक्ति यदि एकसाथ आगे बढ़ते हैं, तो स्वतन्त्रतासंग्राम में चमत्कार अवश्य होगा, ऐसा सुभाषबाबू पहले से सोचते थे। युवाशक्ति को तो उन्होंने अपने ज्वलज्जहाल भाषणों द्वारा जागृत किया हुआ ही था। अब म़जदूर और महिला वर्ग में जागृति कराने के उद्देश्य से वे काम में जुट गये। म़जदूरवर्ग की एकता के दर्शन उन्होंने कोलकाता अधिवेशन के अवसर पर दुनिया को कराये थे। इस कोलकाता अधिवेशन के प्रारम्भ में उन्होंने जिस तरह फ़ौजी संचलन किया था, उसी तरह म़जदूरों का भी संचलन कर गाँधीजी और अध्यक्ष को मानवन्दना दी थी। सुभाषबाबू के एक लब़्ज के लिए अपनी जान तक कुर्बान करने के लिए तैयार रहनेवाले लगभग दस ह़जार म़जदूर उत्स्फ़ुर्ततापूर्वक इस संचलन में शामिल हुए थे।

यहाँ पर लाहोर की जेल में सरदार भगतसिंग और उनके साथी, राजकीय कैदी होने के बावजूद भी जेल में उनके साथ की जानेवाली पाशवीय बदसलूक़ी के कारण हालाँकि सरकार को बार बार शिकायतें, अर्जिया-बिनतियाँ कर रहे थे, लेकिन पत्थरदिल सरकार बा़ज नहीं आ रही थी। इंग्लैंड़ में मामूली चोरी-ड़कैती के आरोप में जेल में कैद कैदियों को भी इससे बेहतर सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं। अत एव सरकार की इस कुटिलता की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए कैदियों ने अनशन का रास्ता अपनाने का तय किया। ‘अनशन’ यह दोहरा शस्त्र है, यह भली-भाँति जाननेवाले जतीन दासजी पहले इस पक्ष में नहीं थे। कुछ दिन के अनशन के बाद बड़े-बड़े लोगों के निश्‍चय डामाडौल हो जाते हैं, यह वे जानते थे। लेकिन अन्य सभी कैदियों ने अनशन के मार्ग की ही आग्रह किया। जतीनजी ने इस सूचना को इस शर्त पर मान लिया कि एक बार अनशन शुरू करने के बाद, चाहे जो भी हो जाये, लेकिन अपनी मंजिल तक पहुँचने से पहले अनशन के मार्ग पर आगे बढ़ते हुए कदमों को पीछे हटने नहीं देना है। हालाँकि भगतसिंगजी यह जानते थे कि उन्हें फ़ान्सी के त़ख्ते पर चढ़ना है, मग़र फ़िर भी कम से कम अन्य कैदियों को सुविधाएँ उपलब्ध हों, इस उद्देश्य से वे अनशन में शामिल हुए थे।

अनशन शुरू हुआ। जैसे जैसे दिन बीतने लगे, वैसे वैसे शक्तिक्षय होने के कारण एक एक करके कैदी पीछे हटने लगे। महीने भर में लगभग सभी कैदियों ने अनशन तोड़ दिया, लेकिन जतीनजी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं थे। अब सारे भारतवर्ष का ध्यान केन्द्रित था, जतीनजी के अनशन की ओर और प्रसारमाध्यमों द्वारा भी सरकार की कड़ी आलोचना की जाने लगी थी। साथ ही, अब जगह जगह राजकीय कैदियों की भूमिका को समर्थन देने के लिए सभा-निदर्शन आदि होने लगे। सुभाषबाबू ने भी पंजाब का दौरा किया। सर्वत्र उनका स्वागत ‘इन्किलाब जिन्दाबाद’ की घोषणाओं द्वारा किया गया। लाहोर जेल में जाकर उन्होंने सरदार भगतसिंगजी से मिलने की कोशिशें की, लेकिन सरकार ने इसके लिए उन्हें अनुमति नहीं दी। सरदार भगतसिंगजी आदि क्रान्तिकारियों की गिऱफ़्तारी तथा उनके एवं जतीन दासजी के अनशन के कारण देश का माहौल का़फ़ी ख़ौल उठा था।

Leave a Reply

Your email address will not be published.