नेताजी-६४

सभी को लंबे अरसे तक याद रहे, इस तरह अध्यक्ष महोदय के शानदार ‘फ़ौजी’ स्वागत के बाद कार्यकर्ता काम में जुट गये। अब थोड़े ही समय में विषयनियामक समिति की मीटिंग शुरू होनेवाली थी। दूसरे दिन के खुले अधिवेशन में ‘नेहरू रिपोर्ट’ प्रस्तुत करने से पहले उसपर चर्चा की जानेवाली थी। ‘उपनिवेशीय स्वराज्य या संपूर्ण स्वतन्त्रता’ इस भूमिका को इसी मीटिंग में तय किया जानेवाला था। दोनों पक्ष अपनी अपनी भूमिका पर दृढ़ थे।

संपूर्ण स्वतन्त्रता

अर्थात् ‘अँग्रे़जों की हुकूमत नहीं चाहिए’ इसपर दोनों पक्षों की सहमति थी। लेकिन अब भी हम संपूर्ण स्वतन्त्रता के लिए परिपक्व नहीं हुए हैं, इसीलिए पहले पायदान के रूप में ‘उपनिवेश का स्वराज्य’ प्राप्त कर लेना चाहिए, ऐसी काँग्रेस के ‘प्रस्थापित’ ‘बुज़ुर्ग’ गुट की भूमिका थी। साथ ही हिंसा अधिक हिंसा को जन्म देती है और फ़िर जिसे कोई भी रोक नहीं सकता ऐसे प्रतिशोधचक्र का जन्म होता है; अत एव जितने अधिक से अधिक शान्ति के मार्ग पर चलकर स्वराज्य मिलेगा, उतना ही वह अल्प क्लेशदायक होगा यह इस गुट की सोच थी। इन सब बातों के कारण संपूर्ण देश के एकमात्र प्रस्ताव के रूप में ‘नेहरू रिपोर्ट’ अँग्रे़जों के सामने प्रस्तुत की जानी चाहिए, ऐसी काँग्रेस के ‘बुज़ुर्ग’ गुट की भावना थी;

वहीं, अँग्रे़ज जितने अधिक समय तक इस देश में रहेंगे, उतना ही वह जोंक की तरह भारत का शोषण करते ही रहेंगे। रही बात कि हम संपूर्ण स्वतन्त्रता के लिए परिपक्व हैं भी या नहीं, तो यह हमारा आपसी मामला है। अँग्रे़जों को फ़ौरन इस देश से खदेड़ना होगा और भारत को संपूर्ण आ़जादी मिलनी ही चाहिए, यह ‘युवा’ गुट की भूमिका थी। युवक काँग्रेस के अधिवेशन में सुभाषबाबू ने किये हुए ज्वलंत देशभक्ति से ठसाठस भरे भाषण में युवाओं में आ़जादी का जुनून पैदा कर दिया था। उन्हें अब ‘संपूर्ण स्वतन्त्रता’ के अलावा अन्य किसी भी बात का स्वीकार करना मंजूर नहीं था।

दरअसल टिळकजी के ही समय का यह ‘नर्मवादी और गर्मवादी’ संघर्ष यहाँ पर नये रूप में दिखायी दे रहा था। ‘जनरेशन गॅप’ ही दिखायी दे रही थी। ‘होमरूल’ की माँग करनेवाले टिळकजी के मुक़ाबले में सरकारदरबार में मह़ज छोटेमोटे सुधारों के लिए अर्ज़ी-बिनतियाँ करनेवाले ‘नर्मवादी’ साबित हुए थे और वे अपनी भूमिकाओं पर अड़े रहने के कारण अस्तंगत भी हो चुके थे। वहीं, टिळकजी ने देशजागृति करते हुए पहले संपूर्ण स्वतन्त्रता का ही आग्रह किया था। लेकिन जब अधिक से अधिक पाशवीय क़ायदेक़ानून बनाकर, स्वतन्त्रता की माँग करनेवालों को एक के बाद एक करके राजद्रोह के मुक़द्दमे में उलझाने के दाँवपेंच जब अँग्रे़जों ने लड़ाना शुरू कर दिया, तब उस चाल को नाक़ाम करने के लिए एक कदम पीछे जाते हुए टिळकजी ने समय के अनुसार अपनी भूमिका में उचित परिवर्तन कर आयरिश स्वतन्त्रतासंग्राम की धर्ती पर ‘होमरूल’ के प्यादे को आगे बढ़ा दिया। उसके आड़े अब वे मुक्त स्वतन्त्रता का प्रचार निर्धोकतापूर्वक कर सकते थे। समय के साथ चलने के कारण वे स्वतन्त्रतासैनिकों की सभी पीढ़ियों के लिए तथा विचारधाराओं के लिए वंदनीय साबित हुए।

लेकिन अब वक़्त बदल चुका था। टिळकजी ने ही ‘स्व’त्व का एहसास जगायी हुई पीढ़ी अब उपनिवेशीय स्वतन्त्रता से खुश होनेवाली नहीं थी। इसीलिए उसके बाद दस-पंद्रह वर्षों में ही ‘होमरूल’ अर्थात् उपनिवेशीय स्वराज्य की माँग करनेवाले ‘नर्मवादी’ क़रार दिये जाने लगे।

इस कोलकाता काँग्रेस के अधिवेशन में इसी द्वन्द्व को फ़िर एक बार कसौटी पर खरा उतारा जानेवाला था। व्यक्ति के रूप में एक-दूसरे के प्रति अत्यधिक सम्मान तथा प्रेम की भावना रहनेवाले गाँधीजी और सुभाषबाबू इनकी विचारधाराएँ पहली बार ही आमनेसामने टकरानेवाली थीं। टिळकजी के निर्वाण के बाद स्वतन्त्रतासंग्राम की अगुआई गाँधीजी के पास आने के बाद उन्हें इस तरह चुनौती देने का साहस अब तक किसीने नहीं दिखाया था। आगे क्या होगा, इसकी चिन्ता सभी को थी। इसी माहौल में विषयनियामक समिति की बैठक शुरू हुई।

‘का़फ़ी विचारविमर्श करने के बाद ‘नेहरू रिपोर्ट’ तैयार की गयी है। अत एव उसे ज्यों का त्यों मंज़ूर किया जाना चाहिए’ ऐसा सूतोवाच गाँधीजी ने किया। उसके जवाब में ‘संपूर्ण स्वतन्त्रतावादी’ युवाओं ने – सुभाषबाबू एवं जवाहरलालजी ने अपनी भूमिका स्पष्ट की और ‘उपनिवेशीय स्वराज्य’ नहीं, बल्कि ‘संपूर्ण स्वतंत्रता’ यही काँग्रेस का ध्येय रहेगा, ऐसा सुधार करने का आग्रह किया। अहम बात यह थी कि गत वर्ष में मद्रास (चेन्नई) काँग्रेस में ‘संपूर्ण स्वतन्त्रता यह काँग्रेस का ध्येय है’ यह प्रस्ताव पारित होने के बावजूद भी अब ‘उपनिवेशीय स्वराज्य’ की बात करना यह स्वतन्त्रतासंग्राम की घड़ी के काँटों को उल्टी दिशा में घुमाने जैसा है। इसीलिए अब ‘संपूर्ण स्वतन्त्रता’ के अलावा अन्य किसी भी मुद्दे पर सन्तोष नहीं मानना चाहिए, ऐसा आग्रही प्रतिपादन उन्होंने किया।

कई घण्टों तक इसपर बहस चली। दोनों गुट अपनी भूमिका पर अटल रहे। मोतीलालजी बहुत ही मायुस होने लगे। ‘यहाँ पर विषयनियामक समिति में भी यदि ‘नेहरू रिपोर्ट’ पास नहीं होगी, तो कल खुले अधिवेशन में इसकी धज्जियाँ ही उड़ जायेंगी। फ़िर मेरा यहाँ रुकना ही बेकार है।’ ऐसी आत्मक्लेशात्मक भूमिका उन्होंने ली। आख़िर बिगड़ते हुए हालात को देखकर गाँधीजी ने बैठक के सूत्र अपने हाथ में ले लिये। पहले ही सुबह के फ़ौजी प्रकार के कारण वे नारा़ज थे। एक ही ताल में खाडखाड करते हुए बजनेवालें फ़ौजी जूतों के नीचे अहिंसा का तत्त्व ही रौंदा जा रहा है, ऐसा उन्हें लग रहा था। मेरे अधिनायक पद पर रहने तक इस देश का स्वतन्त्रतासंग्राम अहिंसा के ही मार्ग पर से चलेगा, यह उनका अटल निश्चय था। इन बातों से व्यथित होकर – यदि इस ‘नेहरू रिपोर्ट’ को ज्यों का त्यों पास नहीं किया गया, तो काँग्रेस का त्याग करने का निश्चय उन्हें घोषित किया। इसीके साथ नर्मवादियों का पलड़ा भारी हो गया और कई लोगों की भूमिका में बदलाव आया। स्वयं जवाहलालजी भी हक्काबक्का रह गये। ‘गाँधीजी के बिना काँग्रेस’ यह कल्पना ही उनके मन को दहला रही थी। सुभाषबाबू भी गद्गद हो गये। बैठक में कानाफ़ूसी शुरू हो गयी। आख़िर गाँधीजी को – ‘उपनिवेशीय स्वराज्य के लिए अँग्रे़ज सरकार को हम दो साल का वक़्त देते हैं; तब तक यदि सरकार ने उस दिशा में अपेक्षित कार्यवाही नहीं की, तो काँग्रेस को असहकार आन्दोलन छेड़ना होगा’ ऐसी घोषणा करनी पड़ी और उससे भी युवाओं की नारा़जगी कम नहीं हो रही है, यह देखकर उन्होंने उस अवधि को एक साल तक कर दिया। इन सभी आन्दोलनों में से गु़जरते हुए आख़िर विषयनियामक समिति ने ‘नेहरू रिपोर्ट’ मतदान द्वारा पारित कर दी। सुभाषबाबू के पास कोई चारा नहीं था। उनकी भूमिका को बढ़ता हुआ समर्थन रहने के बावजूद भी मह़ज उल्टी दिशा की भावनिक लहर के कारण उनकी विचारधारा को गौण स्थान प्राप्त हुआ था। उन्होंने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। अब उन्हें प्रतीक्षा थी, अगले दिन के खुले अधिवेशन की।

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