नेताजी – ४३

आख़िर इतनी नाट्यपूर्ण घटनाओं के बाद युवराज २४ दिसम्बर को कोलकाता में दाखिल हो गये।

लेकिन तब तक गाँधीजी का निर्णय नहीं हो पाया और ‘प्रिन्स ऑफ वेल्स’ के कोलकाता दाखिल हो जाने के बाद भी समझौते के कोई आसार ऩजर न आने के कारण अब सरकार को ही उस समझौते के प्रस्ताव में कोई रूचि नहीं रही।

 Netajisubhash - सुभाषबाबूहालाँकि समझौते का प्रस्ताव तो असफल हो गया, मग़र फिर  भी सुभाषबाबू को उनके गुरु से इस मामले में रो़ज युद्धनीति की नयी सीख मिल रही थी। अपना मुख्य उद्देश्य अहमियत रखता है; इसीलिए उसपर से ऩजर न हटाते हुए, उसे पूरा करने के लिए बीच में चाहे थोड़ी दिशा ही क्यों न बदलनी पड़े, दो कदम पीछे जाना क्यों न पड़े, अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कई बार समीकरण भी क्यों न बदलने पड़ें; फिर  भी बिना झिझक के उसे करना चाहिए, यही ‘सीख’ स्वतन्त्रतासेनानियों के इन ‘प्रिन्स’ को इसमें से मिली, जो आगे चलकर उन्हें भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए विभिन्न जागतिक नेताओं की सहायता माँगते हुए उपयोगी साबित हुई।

ख़ैर! कोलकाता में ‘प्रिन्स ऑफ वेल्स’ का स्वागत बन्द दुकानों तथा सुनसान सड़कों ने किया – कड़ी हरताल मनाकर! व्हाईसरॉय और गव्हर्नर तो मुँह छिपाने के लिए जगह ढूँढ़ रहे थे। शाही गाड़ियों का जत्था ते़जी से गव्हर्नर हाऊस की ओर मुड़ा। शाम को वहाँ के लॉन पर युवराज के लिए शाही दावत का तथा अन्य शाही समारोहों का आयोजन किया गया था। कई ‘नाममात्र’ भारतीय प्रिन्स वहाँ पर युवराज के इर्द-गिर्द मँड़रा रहे थे, उनकी एक ‘कृपादृष्टि’ से अपने आपको भाग्यशाली महसूस कर रहे थे। बाहरी दुनिया का – ब्रिटीश साम्राज्य का ही एक हिस्सा होनेवाले भारत की ग़रीबी का, कोलकाता में मनाये जानेवाले कड़े हरताल का स्मरण तक न हो, ऐसा स्वर्गीय माहौल वहाँ पर निर्माण किया गया था।

युवराज के साथ उनके ‘ए.डी.सी.’ (स्वीय सहाय्यक) के रूप में उनका चचेरा भाई डिकी माऊंटबॅटन भी आया हुआ था। आगे चलकर यही माऊंटबॅटन भारत को स्वतन्त्रता मिलने के पूर्व, भारत का आख़री व्हाईसरॉय (‘लॉर्ड माऊंटबॅटन’) बना।

इधर-उधर की बातों पर से युवराज ने अचानक से बीच में ही असहकार आन्दोलन का मुद्दा उठाया और उन्होंने दासबाबू से मिलने की इच्छा प्रदर्शित की। व्हाईसरॉय और गव्हर्नर तो हड़बड़ा गये। जिस बात का युवराज को स्मरण तक न हो इसलिए यह सब दौड़धूप चल रही थी, वही बात अचानक सामने आ गयी थी। लेकिन युवराज की इच्छा के आगे किसी की एक भी चलनेवाली नहीं थी। दासबाबू को वहाँ पर लाने के लिए गव्हर्नर ने कोलकाता के पुलीस कमिशनर चार्ल्स टेगार्ट को प्रेसिडेन्सी जेल भेजा।

टेगार्ट जेल में पहुँच गया। लेकिन इस ‘समझौता’ मामले में पहुँचे कष्टों के कारण दासबाबू की तबियत बिगड़ चुकी थी। इसलिए उन्होंने, उनके बदले उनके विश्‍वासू सहकर्मी सुभाषबाबू और किरण शंकर रॉय आयेंगे, ऐसा टेगार्ट को बताया। भावी अँग्रे़ज सम्राट से मुलाक़ात करने का, जिंदगी में शायद एकाद बार मिलनेवाला (‘वन्स इन अ लाइफटाइम’) मौका दासबाबू इस तरह गँवा रहे हैं, यह सोचकर टेगार्ट को दासबाबू पर तरस आ रहा था। फिर निकलने से पहले दासबाबू-सुभाषबाबू-किरण इन तीनों के बीच युवराज और माऊंटबॅटन के विषय में चर्चा हुई।

सुभाषबाबू ने कहा कि वे माऊंटबॅटन को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। साधारणतः सुभाषबाबू की ही उम्र का माऊंटबॅटन, जब सुभाषबाबू केंब्रिज में थे, तब वहाँ पर लष्करी प्रशिक्षण ले रहा था और अपने ‘शौकीन मिजा़ज’ के लिए कॉलेज मे मशहूर था। उसे अपने शाही खून का और अँग्रे़जों के विश्‍वविजयी होने का काफी दुरभिमान था।

चर्चा के संभाव्य विषयों के बारे में दासबाबू से जानकारी लेकर सुभाषबाबू और किरण शंकर रॉय टेगार्ट के साथ चल पड़े। दरअसल यह टेगार्ट अड़ियल गुनाहगारों की ‘जबान खुलवाने में’ माहिर था। बयान द़र्ज करते समय कमर के बेल्ट का मनचाहा इस्तेमाल करनेवाला टेगार्ट ‘बयान द़र्ज करने के लिए आ रहा है’ यह सुनते ही कैदी अपने आप ही सभी बातें उगलने लगते थे। लेकिन गुनाहगार और देशभक्त इनके बीच का फर्क अभी भी उसके पल्ले नहीं पड़ा था। उस समय सुभाषबाबू और टेगार्ट दोनों को भी इस बात का पता होना असम्भव था कि भविष्य में उनकी एक-दूसरे से काफी मुलाक़ातें होनेवाली हैं।

गव्हर्नर हाऊस पहुँचने पर पता चला कि युवराज ख़ास उनके लिए ही निर्माण किये गये ‘मनोरंजन कक्ष’ में जा चुके होने के कारण अब किसीसे भी नहीं मिलेंगे और मुलाक़ात के लिए बुलाए सभी को माऊंटबॅटन के साथ चर्चा करने के लिए कहा गया था। सुभाषबाबू तथा किरण एक कोने में माऊंटबॅटन की राह देखते हुए उधर के माहौल का जाय़जा लेने लगे। सुभाषबाबू के मन में वहाँ पर हो रही सम्पत्ति की घिनौनी बरबादी के प्रति और चाटुकारिता के माहौल के प्रति घृणा उत्पन्न हुई। वहाँ पर इकट्ठा हुए खोख़ले भारतीय राजकुमारों को देखकर सुभाषबाबू का पारा चढ़ने लगा था।

इतने में टेगार्ट ने उन दोनों की पहचान माऊंटबॅटन के साथ करा दी। बातचीत के पहले तो-चार सवाल-जवाबों में ही माऊंटबॅटन को यह अँदेशा होने लगा कि उसके साथ बात कर रहा व्यक्ति कोई मामूली आदमी नहीं है। अपनी मातृभूमि को ग़ुलामी की जंजीरों में जक़ड़नेवाले अँग्रे़जों के बारे में अपने विचार इतने स्पष्ट रूप से सुनानेवाले आदमी के साथ पहली ही बार माऊंटबॅटन का पाला पड़ा था। वह तो अच्छे-बुरे का लिहा़ज छोड़कर साम-दाम-भेद-दंड इस तरह के ‘हरसम्भव उपाय द्वारा’ दुनिया भर में ब्रिटीश साम्राज्य का फैलाव  होना ही चाहिए, इस सोच का था। उसकी इस सोच को सुभाषबाबू के विचारों ने एक क़रारा झटका ही दे दिया। उसने चौंककर टेगार्ट से वापस उनका परिचय पूछा। आय.सी.एस. की परीक्षा चौथे नंबर से पास होने के बावजूद भी जिन्होंने ऐसी ‘स्वर्गीय’ नौकरी को ठुकरा दिया, वे ही ये श़ख्स हैं, यह पता चलने के बाद तो माऊंटबॅटन भौंचक्का सा ही रह गया। उनकी चर्चा यही सूत्र पकड़कर आगे जारी रही। माऊंटबॅटन ब्रिटीश साम्राज्य के समर्थन में किसी मुद्दे को प्रस्तुत करता और सुभाषबाबू उस मुद्दे को भारतीयों की दृष्टि से ख़ारिज करते, यही सिलसिला जारी रहा। अपनी मातृभूमि के प्रति सुभाषबाबू के विचार इतने आत्यंतिक थे कि वे उन विचारों को ब्रिटीश युवराज तो क्या, सम्राट तक पहुँचाने में भी नहीं हिचकिचातें।

आख़िरकार चर्चा से कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है, यह देखकर और वहाँ के अमीरी के घिनौने माहौल से ऊबकर सुभाषबाबू ने माऊंटबॅटन से विदा ली।

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