नेताजी- १०३

हरिपुरा अधिवेशन में अपने प्रागतिक एवं क्रान्तिकारी विचारों से भरे अध्यक्षीय भाषण को समाप्त कर सुभाषबाबू जब अपने आसन पर विराजमान हुए, तब का़फी देर तक तालियों की कड़कड़ाहट को साथ जयघोष के नारे गूँज रहे थे। बूढ़ी माँ-जननी तृप्त दृष्टि से उन्हें निहार रही थीं। गाँधीजी भी कौतुक के साथ उन्हें देख रहे थे।

अधिवेशन का समारोप २२ तारीख़ को हुआ। समारोप समारोह में भी सरदार पटेल, सरोजिनीदेवीजी नायडू आदि नेताओं ने सुभाषबाबू की का़फी प्रशंसा की। लेकिन गाँधीजी और सुभाषबाबू इनके बीच की बढ़ती हुईं नज़दीकियाँ कइयों को रास नहीं आ रही थी। यह गुट हमेशा ही गाँधीसमर्थकों के साथ काना़फूसी करके उन्हें सुभाषबाबू के ख़िला़फ भड़काता रहता था।

कुल मिलाकर स़फल हुए इस अधिवेशन से सन्तुष्ट हुए सुभाषबाबू मुंबई लौटे। मुंबई के व्हिक्टोरिया टर्मिनस (आज का छत्रपति शिवाजी टर्मिनस) से लेकर गिरगाँव की काँग्रेस कचहरी तक भव्य शोभायात्रा निकाली गयी। मुंबई में भी उन्होंने कई सभाओं में भाषण किये। उनमें से आज़ाद मैदान में हुई सभा में लाखों लोग शामिल हुए थे। अब नित्यशः अपने भाषणों में से सुभाषबाबू, तेज़ी से करवटें बदल रहे आन्तर्राष्ट्रीय हालातों के प्रति लोगों को सचेत कर रहे थे। इस युद्ध के कारण इंग्लैंड़ जल्द ही सुलह करने की स्थिति में आ जायेगा, जिसका भारत को फायदा उठाना चाहिए, यह भी वे बार बार कहते थे। सुभाषबाबू के ज्वलन्त भाषणों से देश में एक नवचेतना संचारित होने लगी थी।

गाँधीजी

१० मार्च को सुभाषबाबू कोलकाता लौटे। १ अप्रैल को काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक कोलकाता में सुभाषबाबू के घर में ही हुई। उसमें गाँधीजीसहित कई मान्यवर नेता उपस्थित रहे थे। उस समय भी गाँधीजी सुभाषबाबू के घर न ठहरें, इस हेतु से कइयों द्वारा कोशिशें की गयीं। लेकिन नियोजित कार्यक्रम के अनुसार गाँधीजी सुभाषबाबू के घर ही ठहरे। इस बैठक में भी सुभाषबाबू ने नियोजन पर ही ज़ोर दिया।

कुछ ही दिनों में सुभाषबाबू जागतिक राजनीति की नस नस से किस तरह भली-भाँति वाक़िब हैं, इसका परिचय सभी को मिला – हिटलर ने हमला बोलकर ऑस्ट्रिया को अपने कब्ज़े में कर लिया था और ऑस्ट्रिया में जर्मन फौज के घुसने के बावजूद भी, जनतन्त्र की डींगें हाँकनेवालीं और ‘वक़त आने पर हम ऑस्ट्रिया की ह़िफाज़त करेंगे’ यह भरोसा दिलानेवालीं इंग्लैंड़, फ्रान्स, इटली इन उस समय की तथाकथित महासत्ताओं ने हिटलर के ख़िला़फ एक लब्ज़ तक नहीं कहा। वैसे तो ऑस्ट्रिया ने फ्रान्स और रशिया के साथ मित्रता का क़रारनामा भी किया था और इंग्लैंड़ के साथ उसके मित्रतापूर्ण सम्बन्ध भी थे। लेकिन पहले विश्‍वयुद्ध के ज़़ख्म पूरी तरह न भर चुके इन राष्ट्रों की मानसिकता फिलहाल हिटलर के साथ दुश्मनी मोल लेने की नहीं थी। दरअसल इससे पहले ही इंग्लैंड़ और फ्रान्स इनकी प्रतिक्रियाओं का अँदेशा लेने के लिए हिटलर ने व्हर्साय समझौते का भंग कर र्‍हाईनलँड में घुसपैठ की थी; लेकिन फ्रान्स के द्वारा विरोध किये जाने पर पीछे हटने का आदेश उसने अपने सेनापतियों को दिया था। मग़र हिटलर के ख़िला़फ आक्रमक रवैया लेने की हिम्मत फ्रान्स ने नहीं दिखायी और हिटलर के लिए युरोप पर धावा बोलने के दरवाज़ें खुल गये।

ऑस्ट्रिया में हो रहे घटनाक्रम से सुभाषबाबू बेचैन हो गये थे। आख़िर उनके जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण वर्ष उन्होंने वहीं पर तो बिताये थे। उनकी बिगड़ी हुई सेहत में सुधार ऑस्ट्रिया के वास्तव्यकाल में ही हुआ था और आख़िर उनकी प्रिय एमिली भी वहीं पर थीं। उसकी चिन्ता उन्हें सताये जा रही थी। अब उन्हें झेकोस्लोव्हाकिया के बारे में भी चिन्ता लगने लगी, क्योंकि झेकोस्लोव्हाकिया के सुडेटनलँड इला़के में लगभग तीस लाख जर्मन भाषिक लोग रहते थे और इसलिए हिटलर स्वाभाविक रूप से उस ओर रूख ज़रूर करेगा, इस बारे में उन्हें यक़ीन था और हुआ भी ठीक वैसा ही।

सुडेटनलँड में अधिकांश जर्मन भाषिक वास्तव्य कर रहे हैं, इस वजह की आड़ में हिटलर की नज़र झेकोस्लोवाकिया पर है, इसका एहसास होते ही संभाव्य जंग को टालने के उद्देश्य से इंग्लैंड़ के तत्कालीन प्रधानमन्त्री चेंबर्लेन की अगुआई में फ्रान्स के प्रधानमन्त्री दालादिए और इटली का तानाशाह मुसोलिनी इन्होंने हिटलर के साथ म्युनिक में चर्चा की। यह महज़ एक फार्स था। क्योंकि उसमें पहले से ही गुप्त रूप में तय किये जाने के अनुसार मुसोलिनी ने चर्चा के दौरान ‘जर्मनी को १० अक्तूबर तक सुडेटनलँड का कब्ज़ा मिल जाना चाहिए’ यह – मूलतः जर्मनी द्वारा ही उसे रटाया गया प्रस्ताव प्रस्तुत किया और उसे ‘व्यापक आन्तर्राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखकर’ पारित भी कर दिया गया। झेकोस्लोव्हाकिया से उसकी राय पूछने का तो कोई सवाल ही नहीं था। सबकुछ ताकतवर सत्ताओं के बीच की राजनीति थी। इसे ‘म्युनिक समझौता’ कहा जाता है। ‘होशियारी दिखाकर’ जंग की नौबत न आने देने में सफल हुए चेंबर्लेन का मातृभूमि लौटते ही युद्ध में जीत हासिल कर लौटे किसी विजेता के ठाठबाट से स्वागत किया गया। लेकिन सुडेटनलँड पर कब्ज़ा करने के बाद तो कम से कम हिटलर चूप बैठ जायेगा यह उनकी अपेक्षा ग़लत साबित हुई और आगे चलकर हिटलर ने पूरे झेकोस्लोव्हाकिया को ही निगल लिया।

ख़ैर! सुभाषबाबू ने इस घटनाक्रम के बारे में ‘हिंदुस्थान स्टँडर्ड’ में लेख लिखकर जागतिक सद्यःस्थिति एवं उसके पीछे चल रही ताकतवर सत्ताओं की अपनी अपनी सहूलियत की राजनीति से भारतीयों को अवगत कराया। सुभाषबाबू की विचारधारा का स्वीकार करनेवालें विद्वानों की, डॉ. मेघनाद साहा और डॉ. प्रफुल्लचंद्र रॉय जैसे शास्त्रज्ञों की एवं सामान्यजनों की भी संख्या भारत में बढ़ रही थी। मग़र तब भी कई पुराने काँग्रेसजन अपने सुभाषद्वेष से मुक्त नहीं हो रहे थे।

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