नेताजी- ६८

राजकीय कैदियों को जेल में मूलभूत सुविधाएँ तो दी जानीं चाहिए, इस उद्देश्य से लाहोर षड्यन्त्र के राजकीय कैदियों ने, ख़ास कर जतीन दासजी ने शुरू किये हुए अनशन ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचे रखा था। प्रसारमाध्यम भी सरकार की ही आलोचना कर रहे थे। सभाएँ, निदर्शन आदि के कारण सारा माहौल ही खौल उठा था।

 जतीन दास

इस असन्तोष के कारण बेचैन होकर सरकार ने जतीनबाबू का अनशन तोड़ने की सभी पर्याप्त कोशिशें कीं। यहाँ तक कि जतीनजी को जबरदस्ती से खाना खिलाने की कोशिशें भी करके देखीं। लेकिन जिद्दी जतीनजी अब पीछे हटने के लिए तैयार नहीं थे। चारों तऱफ़ से सरकार पर दबाव बढ़ता जा रहा था। आख़िर निरुपाय होकर सरकार ने मानो एहसान ही कर रही है इस दिखावे के साथ, अनशन के कारण जिनकी सेहत बिगड़ती जा रही है, ऐसे कैदियों को ‘मेड़िकल ग्राऊंड पर’ ‘विशेष मामले के रूप में’ इनमें से कुछ सुविधाएँ प्रदान करने की तैयारी दिखायी। लेकिन अनशन करनेवालों को ये सुविधाएँ केवल स्वयं के लिए नहीं, बल्कि सभी राजकीय कैदियों के लिए और वह भी स्थायी रूप में चाहिए थीं। सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी। इसलिए जतीनजी का अनशन जारी रहा।

आख़िर अनशन के इकसठवें दिन १३ सितम्बर १९२९ को जतीनजी के प्राणपँखेरू उड़ गये। मह़ज पच्चीस वर्ष की उम्र में ही जतीन दासजी हुतात्मा बन गये। बंगाल ही नहीं, बल्कि सारा देश शोकसागर में डूब गया। उनके मृतदेह को जब लाहोर से रेल्वे द्वारा कोलकाता लाया जा रहा था, तब बीच के हर स्टेशन पर गाड़ी रोककर देशवासियों ने शोकाकुल अवस्था में उनके दर्शन किये। अपना एक समर्थ सहकर्मी अब सदा के लिए बिछड़ गया, इस वजह से शोकाकुल हुए सुभाषबाबू स्वयं जतीनजी की अन्तिम यात्रा की तैयारियाँ देख रहे थे। कोलकाता में उनकी अन्तिम यात्रा में लोग इतनी बड़ी संख्या में सहभागी हुए थे कि सभी को देशबन्धु की अन्तिम यात्रा का ही स्मरण हुआ। शोकसँदेसें लगातार आ रहे थे। उनमें से एक ख़ास शोकसन्देश आयर्लंड के कॉर्क शहर के पूर्व मेयर आयरिश नेता टेरेन्स मॅकस्विनी इनके परिवार के सदस्यों से प्राप्त हुआ था। मॅकस्विनी भी दस साल पूर्व ऐसे ही ज़ुल्मी अँग्रे़जी हुकूमत के ख़िला़फ़ के आयर्लंड के स्वतन्त्रतासंग्राम में अनशन करते हुए चौहत्तर दिनों बाद हुतात्मा हो चुके थे और उस वक़्त नागपूर में आयोजित काँग्रेस अधिवेशन में मॅकस्विनी को श्रद्धांजली अर्पित की थी। उस बात का स्मरण रख उनके परिवार के सदस्यों ने जतीन दासजी के हौतात्म्य को आदरांजली अर्पित की और आयर्लंड की तरह ही भारत भी जल्द ही आ़जाद हो जायेगा, ऐसी शुभकामनाएँ भी दीं।

लाहोर षड्यन्त्र के मुजरिमों से सरकार प्रतिशोध की भावना से पेश आ रही है, इसके निषेध के रूप में और उसके ख़िला़फ़ जनजागृति करने हेतु सन १९२९ के अगस्त महीने में सुभाषबाबू ने एक बड़े निदर्शन का आयोजन किया था। उस समय सरकार ने उन्हें ग़िऱफ़्तार भी किया था। लेकिन आठ ही दिनों में उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया। लेकिन सरकार ने उनका वह मुकदमा ख़ारिज नहीं किया था। वह उसे वक़्त आने पर शस्त्र के रूप में इस्तेमाल करनेवाली थी।

इन घटनाओं पर ग़ौर करते करते ही १९२९ यह वर्ष अस्त की ओर बढ़ने लगा। अब सभी को बेसब्री से इन्त़जार था – गाँधीजी ने घोषित किया हुआ एक साल ख़त्म होने का और दिसम्बर के काँग्रेस अधिवेशन का। संजोगवश उस साल का अधिवेशन भी लाहोर में ही होनेवाला था।

इसी दौरान इंग्लैंड़ में जून महीने में जनरल इलेक्शन्स होकर लेबर पार्टी सत्ता में आयी थी। रॅम्से मॅकडोनाल्ड प्रधानमन्त्री और कॅप्टन वेजवूड-बेन भारतमन्त्री बन चुके थे। उन्होंने व्हाईसरॉय लॉर्ड आयर्विन को भारत की परिस्थिति का जाय़जा लेने के लिए लंदन बुला लिया। कुछ महीनें बाद भारत लौटने पर आयर्विन ने – भारत को धीरे धीरे क्रमानुसार उपनिवेशीय स्वराज्य बहाल करने की नये सरकार की नीति होने की पुरानी धुन को ही आलापना शुरू कर दिया और सायमन रिपोर्ट आने के बाद चर्चा के लिए भारतीय नेताओं को ‘गोलमेज परिषद’ के लिए लंदन बुलाया जायेगा, ऐसा कहा।

इस चर्चा की तैयारी करने के लिए विठ्ठलभाई पटेल के दिल्लीस्थित निवासस्थान में प्रमुख भारतीय नेताओं की बैठक बुलायी गयी। एक नामचीन वक़ील रहनेवाले विठ्ठलभाई पटेल ये काँग्रेस के निष्ठावान् नेता होने के बावजूद केन्द्रीय असेंब्ली के अध्यक्ष भी थे। संसदीय कार्यपद्धति का बारिक़ी से अध्ययन करने के कारण वे किसी भी मामले में सरकार को ख़़ङ्गा न होने देते हुए भी भारतीयों को इसमें से कैसे लाभ हो सकता है, इस हेतु प्रयत्नशील रहते थे। भगतसिंग असेंब्ली बमविस्फ़ोट प्रकरण का फ़ायदा उठाकर जब सरकार अपने ख़ास गार्ड्स तैनात कर असेंब्ली को ही अपने कब़्जे में करना चाहती थी, तब अपने सारे वक़िली और संसदीय हुनर काम में लाते हुए विठ्ठलभाई ने सरकार की उस योजना को नाक़ाम बना दिया था। लॉर्ड आयर्विन से भी उनके अच्छे ताल्लुकात थे। अतः वे कई बार व्हाईसरॉय और भारतीय नेताओं के बीच में मध्यस्थ की भूमिका निभाते थे।

१ नवम्बर को विठ्ठलभाई के घर हुई इस बैठक में गाँधीजी, सुभाषबाबू, मोतीलाल एवं जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, सरोजिनी नायडू, डॉ. अ‍ॅनी बेझंट आदि ३१ नेता सम्मीलित हुए थे। इस बैठक में सभी ने ‘भारत को उपनिवेशीय स्वराज्य प्राप्त हो, इस हेतु व्हाईसरॉय द्वारा आत्मीयता से किये जा रहे प्रयासों के लिए’ व्हाईसरॉय की सराहना कर उन्हें आवश्यक ऐसा पूरा सहकार्य देने का प्रस्ताव रखा गया। इस प्रस्ताव पर सभी नेताओं ने दस्तख़त किये।

दस्तख़त नहीं किये, वह स़िर्फ़ सुभाषबाबू ने। वे अब ‘पूर्ण स्वन्तत्रता’ के अलावा अन्य किसी भी बात पर सन्तुष्ट होनेवाले नहीं थे। सुभाषबाबू ने अपना अलग निवेदन जाहिर किया। उसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘स्वराज स्वराज कहकर यदि अँग्रे़जों का ही झण्ड़ा दिल्ली पर लहरानेवाला है, तो यह झूठी तसल्ली देनेवाला स्वराज क्या कोई मायने रखता है? और उसके लिए तो चर्चाओं की भी क्या आवश्यकता है? यदि अँग्रेज भारत छोड़कर जानेवाले हैं, तब ही गोलमेज परिषद मायने रखती है, अन्यथा नहीं।’

सुभाषबाबू ने अलग निवेदन जाहिर करने पर वे आलोचना के शिकार हो गये, तब उन्होंने अपने जनरल सेक्रेटरी पद से इस्ती़ङ्गा मोतीलालजी के पास भेज दिया।

इसी दौरान दिसम्बर के अधिवेशन के अध्यक्ष के संभाव्य नामों की चर्चाएँ शुरू हुईं। पिछले वर्ष से ही चर्चा में रहनेवाले सरदार वल्लभभाई पटेलजी के नाम पर इस साल भी ग़ौर किया गया। लेकिन मोतीलालजी ने गाँधीजी को ही ‘आप ही अध्यक्ष बन जाइए’ ऐसा सुझाव दिया। गाँधीजी को अध्यक्ष बनने में कोई दिलचस्पी नहीं है, यह मोतीलालजी को मालूम था। लेकिन गाँधीजी का नाम चर्चा में आने के बाद वल्लभभाई का नाम पीछे रह गया और मोतीलालजी के दिल की बात जाननेवाले गाँधीजी ने जवाहरलालजी के नाम का सुझाव दिया। एक बार गाँधीजी की पसन्दगी मालूम होने के बाद फ़िर जवाहरलालजी का चयन तो बिनाविरोध ही हो गया। उसके पश्चात् जवाहरलालजी युवाशक्ति का गुट छोड़कर गाँधीजी के मार्ग पर से ही चलते गये।

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