नेताजी-२३

fl20110814x1c-200x200आय.सी.एस. की पढ़ाई के साथ साथ सुभाष बदलते सामाजिक सन्दर्भों का भी अध्ययन कर रहा था। ज़ाहिर है कि असामान्य बुद्धिमत्ता की देन के कारण तथा उसके मन एवं बुद्धि के द्वार हमेशा खुले रहने के कारण उसे इस कार्य के लिए कुछ ख़ास मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी। आते जाते आसानी से दिखायी देनेवाली, सुनायी देनेवाली हर बात पर उसका ध्यान रहता था। अब उसने वहाँ की ‘इंडियन मजलिस’ इस भारतीय छात्रों की संस्था की सभाओं में उपस्थित रहना शुरू किया। यह संस्था हमेशा ही विभिन्न वक्ताओं के व्याख्यान, चर्चासत्र इनका आयोजन करती थी। सुभाष के इंग्लैंड़ जाने से पहले लोकमान्य टिळकजी जब वहाँ आये थे, तब उन्होंने केंब्रिज के छात्रों के सामने जो भाषण किया था, उसका आयोजन इसी संस्था ने किया था। सुभाष को उसकी रिपोर्ट पढ़ने मिली। साथ ही, सरोजिनीदेवी नायडू और सी.एफ.अँड्र्यूज जैसे वक्ताओं के व्याख्यान सुनने का भी मौक़ा मिला। सी.एफ.अँड्रयूज् पहले इंग्लिश धर्मगुरु रह चुके थे, जो आगे चलकर गांधीजी के निष्ठावान अनुयायी बने। अफ्रीका से भारत लौट आने के लिए गांधीजी को रा़जी करने में उन्होंने अहम भूमिका निभायी थी। वहीं, सरोजिनीदेवी नायडू यह उस समय भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम की एक अग्रणी नेता थीं। स्वाभाविक ही सुभाष को उनके विचार सुनने में दिलचस्पी थी। मूलतः कवयित्री रहनेवालीं सरोजिनीदेवी के धारावाही वक्तृत्व को सुनकर सुभाष काफी प्रभवित हुआ। एक भारतीय महिला अस्खलित अँग्रे़जी में विदेश के श्रोताओं के सामने बेझिझक अपने विचार प्रस्तुत करती है और उन्हें भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम की भूमिका स्पष्ट करती है, यह हर एक भारतीय के लिए गर्व की बात है, यह उसने हेमंतकुमार को लिखे हुए पत्र में स्मरणपूर्वक लिखा था। वहाँ पर व्याख्यान देनेवाले वक्ता मानो भारत की ख़िड़कियाँ ही होते थे। उनके व्याख्यानों में से पश्चिमी जगत को भारत की सामाजिक विचारधाराओं का परिचय होता था।

‘इंडियन मजलिस’ के साथ ही सुभाष केंब्रिज की युनियन सोसायटी की सभाओं में भी उपस्थित रहने लगा। यह सोसायटी एक मुक्तपीठ थी। ता़जा घटनाओं पर वहाँ हमेशा संगोष्ठी, चर्चासत्र आयोजित किये जाते थे। व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब की झड़ी लग जाती थी। विरोधी मत भी जोर-शोर से प्रस्तुत किये जाते थे और उनका भी सम्मान किया जाता था। इसी तरह एक बार ‘जालियनवाला बाग हत्याकाण्ड’ इस विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। अधिकतर अँग्रे़जी वक्ताओं ने जनरल डायर के उस ख़ूँख़ार बर्ताव का समर्थन किया था। सिर्फ  ‘गोरों की श्रेष्ठता के कट्टर समर्थक’ के रूप में मशहूर रहनेवाले एक अँग्रे़ज वक्ता ने ही उस हत्याकाण्ड को ‘पाशवीय’ संबोधित कर अँग्रे़ज सरकार द्वारा भारत में अपनाये जानेवाले दमनतन्त्र की कड़ी आलोचना की थी। हालाँकि अधिकतर अँग्रे़ज अँग्रे़जों के साम्राज्यवाद के पुरस्कर्ता थे, मग़र तब भी अँग्रे़जों के ग़लत कारनामों को ग़लत कहने जितनी सदसद्विवेकबुद्धि अब भी कुछ अँग्रे़जों के पास तो बची है, यह सुभाष ने देखा। साहसीपन, लगन, दीर्घोद्योगिता, प्रखर देशभावना, अच्छे रहनसहन की चाह, सड़क को गँदा न करने जैसी छोटी छोटी अच्छी आदतों का बारीक़ी से पालन करना, दूसरों पर भरोसा रखने की तैयारी इन गुणों के बल पर तथा अपनी समर्थ नौसेना के बलबूते पर इस बिन्दी जितने देश ने आधी दुनिया पर अपनी हुकूमत स्थापित की है, यह भी सुभाष ने जान लिया। विलायत के लोग समय के महत्त्व को भली-भाँति जानते हैं और कम से कम समय व्यर्थ गँवाकर वे निरन्तर कुछ न कुछ करते रहते हैं, यह भी उसके ध्यान में आया। अँग्रे़ज चाहे हम पर कितने भी ज़ुल्म क्यों न करते हो, मग़र तब भी भारतीयों को अँग्रे़जों के इन गुणों को अपनाना ही चाहिए, ऐसी उसकी राय बनी।

छुट्टी के दिन सुभाष और दिलीपकुमार आसपास के शहरों में घूमने जाते थे। दिलीपकुमार की वहाँ के बहुत लोगों से अच्छी-खासी जानपहचान थी। मँचेस्टर में डॉ. धर्मवीर नाम के, भारत के पंजाब प्रान्त से विलायत पढ़ने आये और आगे चलकर वहीं पर बस चुके एक डॉक्टर से उसका परिचय था। ये डॉ. धर्मवीर भी देशभक्त थे और लाला लजपतरायजी के अनुयायी थे। उन्होंने वहाँ की ही एक महिला के साथ विवाह किया था। उनकी पत्नी – पहले की ‘जेन’ अब सभी पहलुओं से भारतीय – ‘जानकी’ बन चुकी थी। शुरू शुरू में सुभाष की ऐसे किसी भी घर में, विशेषतः स्त्रियों की उपस्थिति में संकोच की भावना रहती थी। वह स्त्रियों के खिलाफ  नहीं था, बल्कि वह उनका आदर ही करता था। लेकिन विलायत में पढ़ाई करते समय, उसे अपने लक्ष्य से विचलित कर सकनेवाले दोनों ‘डब्ल्यू’ओं को (वाईन, वुमन) उसने कभी अपने जीवन में प्रवेश करने ही नहीं दिया और उसके इस स्वयं-अनुशासनपूर्ण (सेल्फ-डिसिप्लीन) आचरण का, विदेश आते ही इन दो डब्ल्युओं के पीछे पड़े हुए कई भारतीय सहाध्यायियों को अचरज होता था।

हालाँकि वह इंग्लैंड़ की व्यक्तिस्वतन्त्रता से प्रभावित अवश्य था, मग़र फिर  भी इंग्लैंड़ की महिलाओं के बिनासंकोच बर्ताव से वह संकोच की भावना महसूस करता था। क्योंकि जिस संस्कृति में उसकी परवरिश हुई थी, वहाँ महिलाओं का आचरण इतना स्वतन्त्र नहीं था। अत एव धर्मवीरजी के घर में भी शुरू शुरू में वह थोड़ा सा संकोचपूर्वक रहता था। लेकिन धर्मवीर दंपति उसे घर का एक सदस्य ही मानते थे। एक बार उनके स्वभाव से भली-भाँति परिचित होने के बाद सुभाष का संकोच धीरे धीरे दूर होता गया और वह उनके घर का सदस्य ही बन गया। वे पति-पत्नी भी सुभाष से काफी प्रभावित थे। भारत की तत्कालीन स्थिति पर और उसमें सुधार कैसे लाया जा सकता है, इसपर उनकी घण्टों चर्चाएँ होती थीं। भारतमाता के बारे में उसके तेजस्वी विचार, स्वदेश की पिछड़ी जनता के बारे में उसे रहनेवाली आत्मीयता और उन्हें उस दुष्टचक्र में से मुक्त करने के लिए बड़ी लगन के साथ अध्ययनपूर्वक उसके द्वारा कही जानेवाली प्रॅक्टिकल उपाययोजनाएँ इन सबको सुनने के बाद तो उन पति-पत्नी को यह यक़ीन ही हो चुका था कि इसके जोहर कुछ अनोखे ही हैं। जानकीजी धर्मवीर तो सुभाष को अपना छोटा भाई ही मानती थीं। वे सुभाष की ‘दीदी’ बन गयीं। सुभाष जब भी उनके घर आता था, तब वे उसके खाने-पीने की पसन्द-नापसन्द को भली-भाँति याद रखकर उसके लिए खाना बनाती थीं। इस तरह वह जहाँ जहाँ भी जाता, वहाँ के लोगों को अपना बना लेता और लोगों को भी, इसकी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है, यह भरोसा भी उसके प्रति रहता था।

इस व्यस्तता में सात-आठ महीनें कैसे बीत गये, इसका पता ही नहीं चला। १९२० का जुलाई महीना आ गया। अब आय.सी.एस. की परीक्षा के लिए मात्र पंद्रह दिन ही बाक़ी थे।

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