नेताजी – ५०

कोलकाता म्युनिसिपालिटी के सीईओ के तौर पर शहर में घूमते हुए सुभाषबाबू की मुलाक़ात एक पुरानी पहचान के क्रान्तिकारी की वृद्ध पत्नी से हुई और उनकी दयनीय सांपत्तिक स्थिति को देखकर सुभाषबाबू का दिल दहल गया। इस घटना से सुभाषबाबू के मन में इस समस्या को हल करने के लिए विचारचक्र शुरू हो गया। देशसेवा की एक और राह उनके लिए खुल गयी थी।

Subhash-Netaji- सुभाषबाबू

यह समस्या बम बनानेवाले उन क्रान्तिकारी डॉक्टर की पत्नी तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि ऐसे कई क्रान्तिकारी इन्हीं हालातों का सामना कर रहे थे। सुभाषबाबू जब कॉलेज में थे तब भी और इंग्लैंड़ से वापस आने के बाद भी क्रान्तिकारियों के कई दलों के साथ उनकी ऩजदीकी बढ़ गयी। इसीलिए क्रान्तिकारियों के मन की ज्वलंत देशप्रेम की भावना का एहसास उन्हें था। इन क्रान्तिकारियों के पीछे पुलीस की तहकिकात का झमेला लगने के कारण उनमें से कई लोग भूमिगत हो कार्य कर रहे थे, कई लोग सलाखों के पीछे थे और उनके परिवार, आमदनी का कोई भी स्रोत न होने के कारण दर दर की ठोकरें खाने की कगार पर थे। इन लोगों के लिए कुछ न कुछ तो करना ही चाहिए, ऐसा सुभाषबाबू ने निर्धार किया और फिर उन्होंने धीरे धीरे म्युनिसिपालिटी के ‘सीईओ’ के अपने अधिकार में म्युनिसिपालिटी की खाली जगहों पर देशभक्त क्रान्तिकारियों के परिवारजनों को नियुक्त करना शुरू कर दिया।

इन नियुक्तियों के कारण अब ये अँग्रे़ज अफ़सर सुभाषबाबू को विद्वेष की ऩजर से देखने लगे। अर्थात् सरकार की गुप्तचरयन्त्रणा को नियुक्तियों के पीछे के इस – यानि कि ये सभी नवनियुक्त कर्मचारी क्रान्तिकारियों के ही परिवार के लोग हैं, इस रहस्य का पता चल चुका था, मग़र तब भी यह सबकुछ सुभाषबाबू ने नियुक्तिप्रक्रिया के नियमों का उल्लंघन न करते हुए ही किया था और इसीलिए इस बात को साबित करना नामुमक़िन था। मुख्य बात यह थी कि बंगाल असेंब्ली में स्वराज्य पक्ष का बहुमत सिद्ध हो चुका होने के कारण वहाँ से भी सुभाषबाबू के ख़िलाफ़ किसी भी क़ानूनी कार्रवाई के लिए मंज़ूरी मिलने की गुंजाइश नहीं थी। अत एव उनका पत्ता कैसे काटा जा सकता है, इसका अवसर ये गोरे अफ़सर ढूँढ़ रहे थे। वह अवसर उन्हें जल्द ही प्राप्त हुआ।

हुआ यूँ कि बंगाल के क्रान्तिकारी आन्दोलन के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी रहनेवाली और सुभाषबाबू के बंगाल के इन क्रान्तिकारियों के दलों के साथ, विशेषतः ‘युगांतर’ के साथ कितने गहरे ताल्लुकात हैं, इसकी अतिरंजित और बादरायण संबंध जोड़नेवालीं कहानियाँ रहनेवाली रिपोर्ट बंगाल के सचिव द्वारा भारत सरकार को दी ही गयी थी। साथ ही, कम्युनिस्ट नेता मानवेंद्रनाथ रॉय ने मॉस्को से सुभाषबाबू को भेजा हुआ एक ख़त भी पुलीस के हाथ लग चुका था, जो उन्होंने इस रिपोर्ट के साथ जोड़ा था। एम.एन. रॉय ये पहले ‘युगांतर’ संगठन से संबंधित थे। इसवी १९१७ में जब रशिया में बोल्शेविक क्रान्ति यशस्वी होकर स्थिर हो गयी, उस समय कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित होकर रॉय भारत को कम्युनिझम से परिचित कराने की कोशिशों में थे और इस उपलक्ष्य में रशिया से संपर्क बनाये हुए थे। इस ख़त में उन्होंने कम्युनिस्टों की आन्तरराष्ट्रीय परिषद (‘कॉमइन्टर्न’) में उपस्थित रहने के लिए भारत के प्रतिनिधि के नाते सुभाषबाबू और दासबाबू के पुत्र चिररंजन इन दोनों को मॉस्को आमंत्रित किया था। अँग्रे़ज उस समय रशिया को, दरअसल सभी कम्युनिस्टों को अपना अव्वल नंबर का दुश्मन मानते थे और इसीलिए केवल रॉय ही नहीं, बल्कि भारत के उनके सहकर्मी श्रीपाद अमृत डांगेजी के साथ संपूर्णतः कम्युनिस्ट आन्दोलन पर पुलीस बारीक़ी से ऩजर रखे हुए थी। इसीलिए उनका पत्रव्यवहार अँग्रे़ज गुप्तचर यंत्रणा द्वारा उन ख़तों को खोलकर पढ़ा जाता था। इसी वजह से यह ख़त भी पुलीस के हाथ लग गया। पुलीस को यह ख़त मिल जाते ही उन्हें इसमें आन्तरराष्ट्रीय साजिश की बू आयी और सुभाषबाबू पर रखी हुई ऩजर अब और भी कड़ी हो गयी। अब सुभाषबाबू पर कार्रवाई करने का निश्‍चित होने के बाद उन्हें इसमें फँसाने के लिए योजनाबद्ध रूप से इस ख़त का इस्तेमाल करने का उन्होंने तय किया। हमेशा की पद्धति अपनाकर सुभाषबाबू को वॉरंट वगैरा जारी कर गिऱफ़्तार करना आसान नहीं था। पहली बात तो यह थी कि कोलकाता में सुभाषबाबू की जनप्रियता ने आसमान की बुलंदियों को छू लिया था और इसीलिए उन्हें गिऱफ़्तार करने के बाद ‘लॉ अँड ऑर्डर’ के क़ाबू के बाहर हो जाने की संभावना थी। साथ ही, सुभाषबाबू को किसी भी क़ानून के तहत गिऱफ़्तार कर भी लिया जाये, तब भी न्यायप्रक्रिया के अनुसार उन्हें कोर्ट में पेश करना पड़ता और फिर कोर्ट में दासबाबू और शरदबाबू जैसे क़ानूनी दाँवपेंचों में माहिर रहनेवाले वक़िल इस केस की धज्जियाँ उड़ा देतें।

इस ‘पेंच’ को सुलझाने के लिए गव्हर्नर ने अपना दिमाग लगाकर एक तरक़ीब निकाली। अध्यादेश! यस्, इन सभी क़ानूनी तकनीकी बातों को टालकर सुभाषबाबू को गिऱफ़्तार करना हो, तो किसी अध्यादेश को ही जारी करना पड़ेगा। फिर उस अध्यादेश जारी करने के लिए वे व्हाईसरॉय के पीछे ही पड़ गये। लेकिन लोकनियुक्त प्रतिनिधि पर इस तरह के ग़ैऱिजम्मेदाराना और बेबुनियाद इल़्जाम लगाकर उसे ग़िऱफ़्तार करने के लिए न्यायीपन के बुऱके को उतारना पड़ता और ऐसा करना तत्कालीन परिस्थिति में दुःसाहसभरा साबित होता। इसीलिए सचिव, व्हाईसरॉय, लंडनस्थित भारतमन्त्री इन सभी ने गव्हर्नर को सब्र रखने का मशवरा दिया। लेकिन ग़ुस्सा सिर पर सवार हो चुके गव्हर्नर अपनी बात पर अड़े रहे। इस पत्रव्यवहार में कुछ दिन बीत गये। उसी दौरान ब्रिटन में सार्वत्रिक चुनाव हुए और उसमें ‘भारतमित्र’ लेबर पार्टी की पराजय होकर कॉन्झर्वेटिव्ह पार्टी सत्ता में आ गयी। पुनः बंगाल के गव्हर्नर का हौसला बढ़ गया और उन्होंने अध्यादेश को जारी किया जाये, यह तका़जा करना शुरू कर दिया। लेकिन इस बार वे क़ामयाब हुए। नये भारतमन्त्री ने ऐसे अध्यादेश को जारी करने के लिए अपनी मंज़ूरी व्हाईसरॉय को दे दी।

अध्यादेश निकालने की अपनी माँग के समर्थन में गव्हर्नर ने सचिव की रिपोर्ट और यह ख़त जोड़ा हुआ था। साथ ही, बीच के समय में इन देसी नियुक्तियों से बेचैन हुआ पुलीस कमिशनर टेगार्ट सुभाषबाबू की कचहरी में जानबूझकर आकर नयी नियुक्तियों की सूचि को अपने साथ ले गया था और उसे भी उस दस्तावे़ज के साथ जोड़ दिया गया था। उस समय व्हाईसरॉय छुट्टी पर थे और आराम फरमाने सिमला गये थे। अत एव इन सभी दस्तावे़जों को लेकर गव्हर्नर किसी और को न भेजते हुए स्वयं ही उसी रात को सिमला जाकर व्हाईसरॉय से मिले और सभी तकनीकी बातों को पूरी करके उसी रात को ही अध्यादेश जारी कर दिया गया।

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