नेताजी-११४

इस तरह अध्यक्ष की स्वतन्त्रता को संकुचित करनेवाला ‘पंतप्रस्ताव’ पारित होने के बाद ही त्रिपुरी काँग्रेस अधिवेशन समाप्त हुआ। हालाँकि ऊपरि तौर पर इसमें सुभाषविरोधकों की जीत हुई है, यह भले ही दिखायी दे रहा हो, लेकिन इससे आख़िर ‘नोबडी विन्स-ऑल-लूज’ ऐसे ही हालात बन चुके थे। अब सुभाषबाबू इस परिस्थिति का मुक़ाबला किस तरह करते हैं, अपमानित स्थिति में नामधारी अध्यक्ष के रूप में रहना पसंद करते हैं या सम्मान पूर्वक इस्तीफ़ा देकर इसमें से बाहर निकलते हैं, यह जानने के लिए सभी उत्सुक थे। दर असल फिलहाल वे किसी भी हालत में – शारीरिकदृष्टि से भी एक कदम तक उठाने की स्थिति में नहीं थे और इसीलिए फ़ौरन कुछ होने की संभावना भी नहीं थी। हार से भी अधिक उन्हें दुख हुआ था, जिनपर उनकी दारोमदार थीं, जिन्हें वे ‘अपना’ मानते थे, उन्होंने ही ऐन मौके पर की हुई धोख़ाधड़ी से। उनके गुट के माने जानेवालों में से कइयों ने सुभाषविरोधकों की कुटिल राजनीति का शिकार होकर या तो पंतप्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था या फिर मतदान के समय ‘तटस्थ’ रहकर पंतप्रस्ताव के पारित होने के मार्ग को आसान बना दिया था। अत एव व्यथित मन से उन्होंने अपने परिवार के साथ त्रिपुरी से विदा ली।

लेकिन इस घटनाक्रम के कारण उनकी सेहत अब और भी बिगड़ गयी। क्या वे कोलकाता तक ठीक से पहुँच सकेंगे भी या नहीं ऐसी उनकी हालत हो गयी थी। इस वजह से डॉ. सुनीलचंद्रजी से सलाह लेकर शरदबाबू ने उन्हें हवाबदली के लिए अपने दूसरे भाई के पास – जमदोबा भेजने का फ़ैसला किया। हिमालय की गोद में बसे जमदोबा की सूखी हवा से सुभाषबाबू की सेहत में काफ़ी सुधार होगा, यह सोचकर १४ मार्च को उन्हें जमदोबा ले जाया गया। वहाँ भी वे अधिवेशन के घटनाक्रम के बारे में सोचते थे। इन्सान पर का उनका भरोसा ही उड़ जाने के कारण सब कुछ त्यागकर हिमालय में जाकर एकान्त में चिंतन एवं आध्यात्मिक उपासना करने की भावना भी उनके मन में काफ़ी तेज़ी से उछल रही थी।

‘पंतप्रस्ताव’ पारित

इसी दौरान उनकी सेहत जल्द से जल्द सुधर जाये, इस आशय के टेलिग्राम्स, खत देश के कोने कोने से आ रहे थे। इनमें से ही कुछ में, उन्हें ज़हर खिलाया गया है इस बात से लेकर जारणमारण आदि काली जादू का उनपर प्रयोग किया गया है, यहाँ तक की कईं संभावनाओं का ज़िक्र किया गया था। कइयों ने विभूति, ताईत आदि भी भेजे थे। देश भर में उनकी सेहत के लिए प्रार्थनाएँ की जा रही थी।

दर असल मूलत: ही उनका मानसिक अधिष्ठान आध्यात्मिक रहने के कारण उनका मन तो सबल था ही। इसीलिए चंद कुछ ही दिनों में उन्होंने अपने विचारों के तू़फान में भटकती हुई मन की कश्ती को क़ाबू में कर लिया। हर मनुष्य में परमात्मा का अंश रहता ही है, यह भावना पुन: दृढ़ हो गयी और इससे इन्सानों के प्रति खोया हुआ विश्‍वास भी पुन: जागृत हुआ। त्रिपुरी यह संपूर्ण देश नहीं है, यह अपने मन को समझाकर वे अब अपनी सेहत सुधारने में जुट गये।

इस दौरान गाँधीजी के साथ उनका पत्रव्यवहार चल ही रहा था। उसमें उन्होंने सुसंगत रूप से अपनी भूमिका स्पष्ट की थी। ‘मेरी मनोभूमिका किसी बॉक्सर की तरह है’ यह भी उन्होंने लिखा था। जिस तरह एक बॉक्सर पूरी ताकत लगाकर खेलता है और प्रतियोगिता ख़त्म हो जाने के बाद जिस तरह वह प्रतिद्वन्द्वी से मुस्कुराते हुए हाथ मिलाता है और जो भी निर्णय हो, उसका सम्मान करता है, उसी तरह मैं भी किसी के प्रति ईर्ष्या न रखते हुए एकदिल से देशकार्य करने के लिए उत्सुक हूँ, यह लिखा था। लेकिन कार्यकारिणी का चयन करते समय यदि मेरी राय को नज़र अंदाज़ किया जानेवाला है तो सिर्फ़ नामधारी अध्यक्ष बने रहने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है, यह भी उन्होंने साफ़ साफ़ लिखा था।

लेकिन अब उनकी और गाँधीजी की राहें अलग हो चुकी हैं, यह साफ़ साफ़ दिखायी दे रहा था। लेकिन भारत को आज़ाद करने के लिए सुभाषबाबू की हिंसात्मक मार्ग का अनुसरण करने के लिए ना न होना यह बात गाँधीजी को कदापि मंज़ूर नहीं थी और ऐसे व्यक्ति के हाथ काँग्रेस के सूत्र सौंपने के लिए वे कभी भी तैयार नहीं थे। अभी भी अँग्रेज़ों की अच्छाई पर भरोसा रहने के कारण यदि हम विश्‍वायुद्ध के दौरान की ब्रिटन की नाज़ुक हालत का फ़ायदा न उठाकर उनकी मदद करते हैं तो वे यक़ीनन हमें स्वतन्त्रता बहाल करेंगे, यह विश्‍वास होने के कारण फ़िलहाल काँग्रेस को सामोपचार के मार्ग का स्वीकार करना चाहिए, यह गाँधीजी की राय थी। साथ ही उस समय काँग्रेस में हुए बँटवारे के कारण मची अव्यवस्था की वजह से काँग्रेस फ़िलहाल किसीभी जनआंदोलन को छेड़ने में असमर्थ है, यह उन्होंने सुभाषबाबू को लिखे हुए खत में कहा था। साथ ही यदि सुभाषबाबू चाहें तो वे अपनी इच्छा से संपूर्ण कार्यकारिणी का चयन कर सकते हैं, ज़रूरत पड़ जाने पर इस काम में पुराने कार्यकारिणी सदस्यों के साथ विचारविमर्श कर सकते हैं, लेकिन फिर उन्हें उस कार्यकारिणी की मंज़ूरी महासमिति से लेनी पड़ेगी, यह गाँधीजी की भूमिका थी। लेकिन कार्यकारिणी सदस्यों का चयन करने के बारे में उन्होंने जब पटेल आदि सदस्यों से पूछा तब उन्होंने अनजान बनकर जिसका चयन गाँधीजी करेंगे वही कार्यकारिणी, ऐसा सुभाषबाबू से साफ़ साफ़ कहा।

इस टालमटोल के कारण सुभाषबाबू और गाँधीजी के बीच महीने भर में तेरा खतों एवं बत्तीस टेलिग्राम्स द्वारा संपर्क होने के बावजूद भी सुभाषबाबू के खत नाकाम साबित हो गये और उससे मसला और भी उलझ गया।

साथ ही जिस तरह होली का दिन बीत जाने के बाद भी उससे जुड़े किस्से कईं दिनों तक लोगों में प्रचलित रहते हैं, उसी तरह त्रिपुरी अधिवेशन का नाट्य अब भी चल ही रहा था। बल्कि सुभाषबाबू को काँग्रस से निकाल बाहर करने तक वह ख़त्म भी नहीं होनेवाला था। इसी वजह से ‘अध्यक्ष के इस तरह से गंभीर रूप से बीमार रहने के कारण वे भला कामकाज़ कैसे चलायेंगे, अत एव उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए’, इस उद्देश्य से उनपर दबाव लाया जा रहा था। दर असल दृढ़ जनतन्त्रवादी रहने के कारण उन्होंने काँग्रेस प्रतिनिधियों द्वारा बहुमत से पारित किये गये पंतप्रस्ताव का सम्मान करने का तय किया था। लेकिन सुभाषविरोधकों की मंज़िल वह नहीं थी। गाँधीजी की तत्त्वप्रणालि को विरोध करनेवाले इस मनुष्य को सबक सिखाना इसी एकमात्र उद्देश्य के साथ वे काम में जुट गये थे। सुभाषबाबू को कुर्सी का तो बिलकुल भी मोह नहीं था, लेकिन केवल बीमार रहने के कारण इस्तीफ़ा देने की बात उन्हें मंज़ूर नहीं थी।

आख़िर यह कश्मकश जब बरदाश्त करने की हद को पार कर गयी, तब उन्होंने इस प्रश्‍न की गुत्थी सुलझाने का तय करके २९ अप्रैल १९३९ को कोलकाता के वेलिंग्टन स्क्वेअर में काँग्रेस महासमिति की बैठक बुलायी।

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