नेताजी- १२४

सुभाषबाबू की बिगड़ती हुई सेहत की ख़बरें लोगों तक पहुँचते ही बंगाल का माहौल भड़क उठा। पहले ही, बग़ैर मेरी इजाज़त के बंगाल सरकार ने यह कदम क्यों उठाया, इस वजह से व्हाईसरॉय लिनलिथगो ख़फ़ा थे। उन्होंने बंगाल के गव्हर्नर को खरी खरी सुनाई। साथ ही, बंगाल के मुख्यमन्त्री फ़ज़लुल हक ने भी, जेल में यदि सुभाषबाबू को कहीं कुछ हो जाता है, तो मेरी सरकार भी नहीं रहेगी और साथ ही, बंगाल में अभूतपूर्व दंगे़फ़साद के हालात बन जायेंगे, यह गव्हर्नर से कहा। तब गव्हर्नर दोनों तऱफ़ से बुरी तरह फ़ॅंस गये।

आख़िर मजबूरन उन्होंने, सुभाषबाबू की सेहत सुधरने के बाद उन्हें पुनः फ़ॅंसाया जा सकता है, यह तय करके सुभाषबाबू को रिहा करने के आदेश दे दिये। लेकिन उनपर दायर किये गये मुक़दमे बरख़ास्त नहीं किये। लेकिन कोर्ट में पेश होने की हालत में न होने के कारण उन मुक़दमों में तारीख़ पे तारीख़ पड़ रही थी।

इस तरह २९ नवम्बर १९४० को अनशन की शुरुआत किये सुभाषबाबू को ५ दिसम्बर को रिहा कर दिया गया। सुभाषबाबू कारावास से बाहर तो निकले, लेकिन उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था। स्ट्रेचर से उन्हें उनके एल्गिन रोड़ स्थित घर ले जाया गया। हालाँकि उन्हें बिना शर्त के रिहा किया गया था और उनके कहीं जाने-आने पर पाबन्दी भी नहीं लगायी गयी थी, मग़र तब भी ख़ु़फ़िया पुलीस की नज़र मुझपर रहने ही वाली है, यह भी वे जानते थे।

अब सुभाषबाबू अन्तर्मुख हो गये थे। वे किसी से ज़्यादा बातचीत भी नहीं करते थे। उनकी उस हालत को देखकर माँ-जननी का दिल पिघल जाता था। लेकिन कम से कम सुभाष मेरी आँखों के सामने तो है, इस विचार से वह माता अपने दिल को तसल्ली देती थी।

जेल में ही सुभाषबाबू ने मूँछ-दाढ़ी बढ़ाना शुरू कर दिया था, जिससे कि उनकी उम्र कुछ ज़्यादा लगने लगी थी। जेल से छूटकर आने के बाद उन्होंने आध्यात्मिक उपासना भी शुरू कर दी थी। माता चण्डिका की तसबीर, जपमालाएँ, भगवद्गीता आदि ग्रन्थ, ऊद-धूप की महक इन सब बातों से अब वह किसी नेता का घर नहीं, बल्कि किसी साधक का मठ लग रहा था। सेहत का बहाना बनाकर, उन्होंने लोगों से मिलना भी धीरे धीरे कम कर दिया था। बासन्ती-माँ जैसी कोई अतीव आदरणीय व्यक्ति हो, तो ही वे उनसे मिलते थे और उन्हें विदा करने अपने कक्ष से बाहर निकलते थे। बाक़ी किसीसे भी वे नहीं मिलते थे। एक बार तो कोलकाता के मेयर को भी आधे-पौने घण्टे तक इन्तज़ार करके, उनसे बिना मिले ही लौटना पड़ा था। फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के एक प्रतिनिधिमण्ड़ल को भी मिलने की अनुमति नहीं मिली थी। इस तरह, उनसे न मिल सकनेवाले लोगों को विदा करते हुए ‘रंगाकाकाबाबू और कुछ दिनों तक तो किसीसे भी नहीं मिलेंगे’ यह जानबूझकर – सुभाषबाबू द्वारा पढ़ाई गयी पट्टी के अनुसार घर का कोई सदस्य ऊँची आवाज़ में कहता था, जिससे कि उनपर नज़र रखनेवाली आसपास की ख़ु़फ़िया पुलीस को भी उनके बीमार होने पर और भी यक़ीन हो जाये

‘सुभाषबाबू अपने कमरे के बाहर कभी कभार ही दिखायी देते हैं और लोगों से भी वे नहीं मिलते हैं, इसलिए लगता है कि वे बहुत ही बीमार हैं’ यह ख़ु़फ़िया पुलीस द्वारा ‘दर्ज़’ किया गया था। ख़ु़फ़िया सूत्रों की इस ‘जानकारी’ के कारण सुभाषबाबू किसी दुर्धर बीमारी के शिकार हो चुके हैं, इस बात पर सरकार को यक़ीन हो गया था। साथ ही, सुभाषबाबू द्वारा एमिली को भेजे गये ख़त पकड़ने में सरकार को क़ामयाबी मिली थी। लेकिन वे दोनों भी अपने अपने ख़तों को लिखते हुए अत्यधिक सावधानी बरतते थे और औपचारिक बातचीत के अलावा अन्य बातों का ज़िक्र नहीं करते थे, इसलिए सरकार को उस ‘क़ामयाबी’ से भी कुछ हाथ नहीं लगा। साथ ही, सरकार ने फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के अधिकतर प्रमुख सदस्यों एवं अग्रसर कार्यकर्ताओं को गिऱफ़्तार कर दिया था और अब फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के प्रतिनिधि मण्ड़ल से मिलने से भी सुभाषबाबू ने इनकार कर दिया है, यह भी ख़ु़फ़िया सूत्रों द्वारा दर्ज़ किया गया था। इन ‘सबूतों’ के कारण, सेहत बिगड़ जाने की वजह से सुभाषबाबू ने विदेश जाने की बात फ़िलहाल रद कर दी है, इसपर सरकार को यक़ीन हो गया और उनके घर के आसपास के ख़ु़फ़िया पहरे को भी सरकार ने शिथिल कर दिया। लेकिन उनके घर से कुछ ही दूरी पर तैनात किये गये गुप्तचरों को आँखों में तेल डालकर नज़र रखने के लिए कहा गया था। वहीं से तीन-चार मिनट की दूरी पर वूडबर्न रोड पर शरदबाबू का घर था। गुप्तचरों ने पहरा देने के लिए ऐसी जगह को चुना था, जहाँ से इन दोनों घरों पर एकसाथ नज़र रखना संभव था। लेकिन अब सुभाषबाबू से मिलने आनेवाले लोगों की संख्या घटने के कारण धीरे धीरे उनके काम में भी ढिलाई आने लगी थी। सुभाषबाबू के कमरे की रोशनी बन्द हो जाते ही पहरेदार भी गहरी नीन्द सो जाते थे।

यहाँ पर सुभाषबाबू की आध्यात्मिक उपासना भी ज़ोरों पर थी। जो भविष्यकालीन योजना उनकी बुद्धि में साकार हो रही थी, उसका बिना आध्यात्मिक बल के सफ़ल होना नामुमक़िन था, यह वे भली-भाँति जानते थे। वे माँ चण्डिका से अपने देश की, अपनी कै़फ़ियत बयान करते थे। भारतमाता को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद करने के लिए मुझे शक्ति दो, यह प्रार्थना वे उन परात्परमाता से करते थे।

इसी दौरान न्यायालय में चल रहे मुक़दमों में ‘अब आपको अगली तारीख नहीं मिलेगी’ यह सा़ङ्ग सा़ङ्ग कहकर न्यायमूर्ति ने कोर्ट में पेश होने के लिए उन्हें आख़िरी तारीख़ दी थी – २७ जनवरी १९४१।

यानि अब इस एक महीने के भीतर ही कुछ करना ज़रूरी हो गया था। सुभाषबाबू ने माँ चण्डिका का स्मरण करते हुए अपने पक्के इरादों के अनुसार निर्धारित की गयी योजना पर अमल करना शुरू कर दिया।

एक रात उन्होंने अपने एक भतीजे शिशिरकुमार को वूडबर्न पार्क रोड़ स्थित घर से बुला लिया। शरदबाबू का यह १८-१९ साल की उम्र का बेटा उस समय मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहा था। हालाँकि उसे उसके ‘रंगाकाकाबाबू’ से बहुत प्यार था, लेकिन उनके प्रति रहनेवाले सम्मानयुक्त डर के कारण वह उनके साथ कभी कभार ही कुछ बात करता था, वरना हमेशा ही उनसे दूर रहता था।

‘रंगाकाकाबाबू’ भला मुझे क्यों बुलाया होगा, यह सोचते सोचते वह थोड़ीबहुत मानसिक दबाव की स्थिति में ही सुभाषबाबू से मिलने गया। उनके कमरे में उस वक़्त वे अकेले ही मौजूद थे।

‘बेटा, क्या तुम मेरा एक काम करोगे?’ यह उन्होंने उससे पूछा और साथ ही, इसके बारे में किसी से कुछ भी न कहने के लिए उसे आगाह कर दिया।

‘ऐसा’ क्या काम है ‘रंगाकाकाबाबू’ का, यह सोचकर शिशिर हैरत में पड़ गया।

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