नेताजी-७०

व्हाईसरॉय आयर्विन पर हुए हिंसक हमले का निषेध करनेवाले प्रस्ताव के पारित होने के बाद गाँधीजी फिर एक बार भाषण करने खड़े हो गये। अब गाँधीजी क्या कहनेवाले हैं? उपस्थितों की उत्सुकता चरमसीमा पर थी। उसके बाद गाँधीजी ने – ३१ दिसम्बर १९२९ की मध्यरात्रि को – स्वयं ही ‘सम्पूर्ण स्वराज्य’ का प्रस्ताव प्रस्तुत किया….

‘सम्पूर्ण स्वराज्य’

….तब उपस्थितों के मन खुशी से झूम उठे। आख़िर हमारी सम्पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग को काँग्रेस के द्वारा अधिकृत रूप में मंज़ूरी मिली है, यह देखकर युवावर्ग में खुशी की लहरें दौड़ रही थीं। उस मध्यरात्रि को रावी नदी के तट पर जवाहरलालजी ने सम्पूर्ण स्वतन्त्रता का ध्वज लहराया, तब उपस्थित ह़जारों लोगों में खुशी का ज्वार सा आ गया था। जवाहरलालजी तो खुशी में चूर हो गये थे। सारा माहौल इस घटना से अभिमन्त्रित हो गया था। सभी दिशाओं से एक ही स्वर में ‘इन्किलाब जिन्दाबाद’की गगनस्पर्शी घोषणाएँ सुनायी दे रही थीं। सुभाषबाबू भी खुश तो हुए थे, लेकिन पल भर के लिए ही….

हमेशा ‘प्रॅक्टिकली’ सोचनेवाले सुभाषबाबू का किसी भी घोषणा के कारण वास्तव के साथ रिश्ता टूट जाना मुमक़िन ही नहीं था। ‘सम्पूर्ण स्वराज्य यह काँग्रेस का ध्येय रहेगा और इस ध्येय को साध्य करने के लिए सविनय कायदेभंग के आन्दोलन को किसी भी समय शुरू करने के सर्वाधिकार काँग्रेस कार्यकारिणी को सौंपे जा रहे हैं, यह प्रस्ताव प्रस्तुत तो किया गया, लेकिन उसे ‘प्रॅक्टिकली’ किस तरह साध्य किया जानेवाला है, इस संबंध में किसी भी कार्यक्रम की घोषणा नहीं हुई, इसपर सुभाषबाबू को ऐतरा़ज था।

दरअसल गाँधीजी ने भी यह प्रस्ताव थोड़ीबहुत अनिच्छा से ही प्रस्तुत किया था। स्वतन्त्र सम्पूर्णता के लिए इस देश के नागरिक अब भी मानसिक दृष्टि से परिपक्व नहीं हैं, ऐसा गाँधीजी का प्रामाणिक मत था। आ़जादी मिलने के बाद हर बात की जिम्मेदारी इस देश के नागरिकों पर ही होगी, उसके लिए फिर किसी को दोषी ठहराया नहीं जा सकेगा। अत एव शासन करने का किसी भी प्रकार का पूर्व-अनुभव न रहते हुए व्यर्थ ही जल्दबा़जी करके प्राप्त हुए इस तरह के अपरिपक्व स्वराज्य के कारण समस्याएँ और भी भयानक स्वरूप धारण कर लेंगी, यह गाँधीजी की इस भूमिका के पीछे की विचारधारा थी। लेकिन एक वर्ष पूर्व स्वयं ‘यंग इंडिया’ में दिये हुए – एक वर्ष में यदि सरकार स्वराज्य की घोषणा नहीं करती, तो मैं भी ‘इंडिपेन्डन्सवाला’ बन जाऊँगा – इस वचन को निभाने के लिए और युवावर्ग से उनकी भूमिका को हो रहे विरोध को मद्देऩजर रखते हुए एक कदम पीछे हटकर गाँधीजी ने इस प्रस्ताव को प्रस्तुत किया था।

गाँधीजी तथा अध्यक्ष महोदय से अनुमति लेकर सुभाषबाबू इस सूचना की उपसूचना प्रस्तुत करने के लिए खड़े हो गये। अपने भाषण में उन्होंने पहले, ‘सम्पूर्ण स्वराज्य’ को काँग्रेस ने ध्येय के रूप में स्वीकार करने के प्रस्ताव पर गाँधीजी को बधाई दी। लेकिन इस प्रस्ताव में सविनय क़ायदेभंग का मह़ज उल्लेख किया गया है, उस सन्दर्भ में किसी ठोस कार्यक्रम का सुझाव नहीं किया गया है, इसलिए निराशा जाहिर की। म़जदूर वर्ग, किसान वर्ग, समाज का पिछड़ा वर्ग इनकी समस्याओं को हम जब तक हल नहीं करेंगे, तब तक वे इस स्वतन्त्रतासंग्राम में आत्मीयता से शामिल नहीं होंगे और फिर केवल घोषणाएँ फिज़ूल साबित होगीं, ऐसा सुभाषबाबू ने सा़ङ्ग सा़ङ्ग कहा। केवल स्वतन्त्रता की माँग करते रहने से अधिक महत्त्वपूर्ण है कि अँग्रेज़ों के साथ रहनेवाले सभी रिश्तेनाते तोड़कर ‘हमें आपकी सरकार मंज़ूर ही नहीं है’ ऐसा सबसे पहले इस ज़ुल्मी अँग्रे़जी हुकूमत को कड़े शब्दों में सुनाना चाहिए और उसके लिए हमारी अपनी समान्तर ‘प्रतिसरकार’ की स्थापना करना जरूरी है, यह सुभाषबाबू ने अपने क़रारे भाषण में रहा।

‘प्रतिसरकार’, हमारी अपनी सरकार –  इस संकल्पना को सुनकर लोगों में खलबली मच गयी, काना़फूसी शुरू हुई। लेकिन इस उपसूचना के उत्तर में  – इस पड़ाव पर ‘प्रतिसरकार’ की स्थापना करने का कदम उठाना जल्दबा़जी साबित होगी, ऐसी राय गाँधीजी द्वारा ज़ाहिर किये जाने के बाद इस उपसूचना को ख़ारिज कर दिया गया। उसके बाद हुई कार्यकारिणी की बैठक में नये वर्ष की कार्यकारिणी घोषित की गयी। उसमें से – कामका़ज सुचारु रूप में चलने की दृष्टि से कार्यकारिणी में समविचारी लोगों का होना आवश्यक है, यह वजह देकर – सुभाषबाबू और श्रीनिवास अय्यंगारजी का समावेश नहीं किया गया। वहीं, सेनगुप्ताजी को कार्यकारिणी में शामिल किया गया।

सम्पूर्ण स्वतन्त्रता का आग्रह करने की मेरी माँग को कम से कम काँग्रेस के द्वारा औपचारिक रूप में स्वीकार किया गया, इसकी सुभाषबाबू को हालाँकि खुशी हुई थी, लेकिन उनकी भूमिका के हो रहे विपर्यास को देखकर उन्हें सदमा पहुँचा। उन्हें स्वयं के लिए तो किसी भी पद की अपेक्षा कभी भी नहीं थी। ‘भारतमाता को आज़ाद हुआ देखना’ इस ध्येय को जल्द से जल्द हासिल करने के सामने उनके लिए सबकुछ तुच्छ ही था। इसीलिए कार्यकारिणी में समाविष्ट न किये जाने के बावजूद भी उन्होंने अपनी कोशिशें जारी रखीं। उन्होंने काँग्रेस पक्ष के अन्तर्गत ही ‘काँग्रेस जनतन्त्रवादी पक्ष’की स्थापना की। काँग्रेस कार्यकारिणी की उस बैठक में २६ जनवरी १९३० यह दिवस ‘स्वतन्त्रता की माँग करने के दिवस’ घोषित किया गया था। गाँधीजी तथा कार्यकारिणी ने एक घोषणापत्र तैयार किया था, जिसका वाचन उस दिन सम्पूर्ण भारतवर्ष में विभिन्न व्यासपीठों पर से तथा सामाजिक एवं व्यक्तिगत स्तर पर से ज़ाहीर रूप में करने का कार्यक्रम था।

अधिवेशन की खट्टी-मिठी यादें लेकर सुभाषबाबू कोलकाता लौट आये। अब उनकी भुजाएँ फड़क रही थीं, २६ जनवरी के लिए। २६ जनवरी के इस कार्यक्रम के लिए बंगाल की पिछड़ी जनता से लेकर सभी को उत्स्फूर्ततापूर्वक अधिक से अधिक प्रमाण में किस तरह सम्मीलित किया जा सकता है, इस बारे में उनके दिमाग में विचारचक्र शुरू था। इसके लिए उन्होंने म़जदूर वर्ग, किसान इनकी सभाएँ लेने का जोरदार दौर शुरू कर दिया। हर सभा में वे उस संबंधित वर्ग को परेशान करनेवाली समस्याओं पर चर्चा कर श्रोताओं के दिल जीत लेते थे।

लाहोर अधिवेशन में सुभाषबाबू ने किये हुए भाषण के हर एक शब्द की ख़बर रखनेवाली टेगार्ट की गुप्तचरयन्त्रणा भी घात में बैठी इस २६ जनवरी की राह देख रही थी – सुभाषबाबू पर अपना शिकंजा कसने के लिए!

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