नेताजी-६६

‘नेहरू रिपोर्ट’ की स्वीकृति करने तथा भारत को उपनिवेशीय स्वराज्य देने के बारे में अभिवचन देने के लिए अँग्रे़ज सरकार को ३१ दिसम्बर १९२९ तक की एक साल की मोहलत दी जाती है, यह प्रस्ताव संमत कर कलकत्ता (कोलकाता) अधिवेशन की समाप्ति हुई। गांधीजी ने भी ‘यंग इंडिया’ में से यह घोषित किया कि ‘३१ दिसम्बर १९२९ तक यदि अँग्रे़ज सरकार भारत को उपनिवेशीय स्वराज्य प्रदान नहीं करती है, तो १ जनवरी १९३० को मैं भी पूर्ण स्वतन्त्रता का पुरस्कर्ता बनूँगा।’ अब एक साल तक सारा माहौल ठण्ड़ा रहनेवाला था।

‘नेहरू रिपोर्ट’

हालाँकि स्वतन्त्रतासंग्राम के मोरचे पर सब कुछ ठण्ड़ा पड़ गया था, लेकिन अँग्रे़ज सरकार चूप नहीं बैठी थी। वह अपने पसंदीदा उद्योग में यानि कि सुभाषबाबू पर बारीक़ी से ऩजर रखने में चौकन्नी थी। गत वर्ष में, विशेषतः कोलकाता अधिवेशन के सुभाषबाबू के भाषणों के सन्दर्भ में का़फ़ी सारा मालमसाला गुप्तचरों ने इकट्ठा किया था और उसे बढ़ा-चढ़ाकर लिखकर सरकार दरबार में भेज दिया था। उसका भी विधिपूर्वक – यानि सरकार को जैसा चाहिए उस पद्धति से संकलन करना शुरू था।

सभी गुप्तचरों की रिपोर्ट का सारांश साधारणतः इस प्रकार का था कि ‘स्वतन्त्रता का पुरस्कार यह अब केवल प्रस्ताव पारित करने तक सीमित नहीं रहा है। उस अनुषंग से पिछले सालभर में ‘इंडिपेन्डन्स लीग’, ‘युथ लीग’ आदि विभिन्न संगठन स्थापित किये जा चुके हैं, जिससे कि यह प्रतीत होता है कि कोई बड़ी सा़जिश रची जा रही है। साथ ही, सुभाषचंद्र बोस को देशभर के विभिन्न युवा संगठनों से बढ़ता समर्थन मिल रहा है। सुभाषचंद्र बोस की नीति ‘हाथी के दाँत खाने के अलग दिखाने के अलग’ इस तरह की प्रतीत हो रही है। युवाओं के सामने बोलते हुए वे हमेशा इन्किलाब, प्रतिशोध इन जैसी बातें करके उनके दिलों पर म़जबूत पक़ड़ बना लेते हैं और उन्हें उकसाते हैं। इसलिए उनपर जल्द से जल्द कार्रवाई की जाये।’

….और सुभाषबाबू? उन्हें तो यह एक वर्ष की अवधि ‘क्रिमिनल वेस्टेज ऑफ़ टाईम’ (समय का अक्षम्य अपव्यय) महसूस हो रही थी। क्योंकि यदि इस एक वर्ष में लोग शिथिल हो गये, तो पुनः जनमत के अंगारों को सुलगाने के लिए का़फ़ी समय व्यतीत होगा, यह वे जानते थे। इसी कारण हाथ पर हाथ धरे न बैठते हुए युवकपरिषदों के रंगपूर, लाहौर, अमरावती इस तरह के देशव्यापी दौरे शुरू कर दिये। हर जगह देशप्रेम से ओतप्रोत रहनेवाले अपने ज्वलंत भाषणों से वे युवाओं के हृदय में इन्क़िलाब की चिंगारी को भड़काते थे।

‘जिस तरह मन को हिस्सों में नहीं बाँटा जा सकता, उसी तरह स्वतन्त्रता के भी टुकड़ें नहीं किये जा सकते। स्वतन्त्रता का अर्थ है, केवल स्वतन्त्रता। अत एव चूप मत बैठिये। उठिए, क्रान्ति की मशाल जलाइए। ग़ुलामी में जीनेवाले युवाओं का पहला एवं एकमात्र उद्दिष्ट ‘आ़जाद होना’ यही रहना चाहिए। आज की हमारी किसी भी समस्या का यदि ठीक से अध्ययन करें, तो हमारी ग़ुलामी ही उसकी जड़ है, इसी निष्कर्ष तक आप पहुँचेंगे। अत एव स्वतन्त्रताप्राप्ति यही हमारी प्राथमिकता है। वह हमारे लिए ऑक्सीजन है। इसलिए ‘किसी भी मार्ग पर चलकर आ़जादी प्राप्त करना’ यही हमारा प्रथम उद्दिष्ट रहेगा’ ऐसा वे उपस्थित लोगों से आत्मीयतापूर्वक कहते थे।

आ़जादी के बारे में सुभाषबाबू की भूमिका इतनी आत्यंतिक थी कि अन्याय-अधर्म के ख़िला़फ़ लड़ने के लिए प्रसंगवश यदि हिंसा अपरिहार्य बन भी जाये, तब भी वे उसके लिए उनकी ना नहीं थी। लेकिन गाँधीजी का जिन कारणों से हिंसा को विरोध था, उनका भी उन्हें भली-भाँति एहसास था। एक तो ‘हिंसा हिंसा को बढ़ाती है’ इसका एहसास रहने के कारण ‘कहाँ रुकना चाहिए’ यह भी उन्हें ज्ञात था। हमारे पवित्र ईप्सित को साध्य करने के लिए यदाकदाचित् हिंसा का अपरिहार्य उपयोग करना ही पड़ा, तब भी मंजिल तक पहुँचते ही शस्त्रों को नीचे रख देना चाहिए, इसका एहसास उनके मन में भली-भाँति जागृत था; लेकिन सभी की सोच ऐसी होगी ही यह कहा नहीं जा सकता और इसकी कल्पना रहने के कारण गाँधीजी हिंसा के विरुद्ध थे।

अपने भाषणों द्वारा युवामनों में अंगार भरते हुए सुभाषबाबू यह भली-भाँति जानते थे कि ध्येयप्राप्ति के लिए खौल उठे युवामनों को ध्येयप्राप्ति के बाद खाली रहने देना मुनासिब नहीं है (‘आयड्ल माईन्ड इज डेव्हिल्स वर्कशॉप’)। अत एव मह़ज स्वतन्त्रताप्राप्ति में सन्तोष न मानते हुए उसके बाद जो देशनिर्माण का कार्य करना है, उसके सम्बन्ध में भी वे युवाओं का प्रबोधन करते थे – ‘हमें मह़ज आ़जादी प्राप्त करने का ध्येय नहीं रखना है। स्वतन्त्रताप्राप्ति के लिए शायद हमें विध्वंस का सामना भी करना पड़ सकता है, लेकिन उसीमें से पुनः कल के स्वतन्त्र एवं समर्थ भारत का नवनिर्माण भी करना है और यह काम आप ही करनेवाले है’, इस तरह का आग्रही प्रतिपादन वे करते थे। अपने इन दौरों में उनके द्वारा जगह-जगह पर प्रज्वलित किये गये ये स्फ़ुल्लिंग आगे चलकर असहकार आंदोलन में का़फ़ी उपयोगी साबित हुए।

देश की युवाशक्ति के मन में ख़ौलते हुए असन्तोष को बयान करनेवाली अन्य कुछ घटनाएँ भी देश भर में घटित हो रही थीं। लालाजी की मौत का बदला लेने का पंजाब के क्रांतिकारियों ने तय किया था। सरदार भगतसिंग आदि क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत से दो-तीन महिने पहले ‘हिंदुस्थान सोशालिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ की स्थापना की थी। अब लाठीचार्ज के आदेश देनेवाले पुलीस इन्स्पेक्टर स्कॉट का वध करने का उनका इरादा पक्का हो चुका था। उसके अनुसार लालाजी के पहले मासिक श्राद्धदिन १७ दिसम्बर को वे स्कॉट के हमेशा आनेजाने के मार्ग पर घात में बैठे थे। मोटरसाइकल पर सवार एक पुलीस अ़फ़सर के आगे आते ही नुक्कड़ पर घात में बैठे राजगुरुजी ने अपनी पिस्तौल उसपर खाली कर दी और वे फ़रार हो गये। लेकिन वह स्कॉट न होकर उसका सहायक साँडर्स था। वैसे तो वह भी लाठीचार्ज में शामिल था ही। पुलीस ने चप्पा-चप्पा छान मारने के बावजूद भी उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा।

उसके बाद की दूसरी घटना – ८ अप्रैल १९२९ को दिल्ली की केंद्रीय कौन्सिल में सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक पर चर्चा होनेवाली थी। इस विधेयक का क़ानून में रूपान्तरण हो जाने के बाद सरकार की पाशवीय ताकत को और भी बल मिलता। सरदार भगतसिंगजी दर्शकों की गॅलरी में आकर बैठे थे। मतदान के समय यक़ायक वहाँ से उन्होंने ‘इन्किलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए दो बम फ़ेके। साथ ही ‘हिंदुस्थान सोशालिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ के सरकार को ‘लालाजी की मौत का बदला लेने का’ इशारा देनेवाले पत्रक भी फ़ेके गये। विस्फ़ोट के धुएँ के कारण अ़फ़रात़फ़री का माहौल बन गया। लेकिन इस बार भाग जाने का अवसर होने के बावजूद भी सरदार भगतसिंग निड़रतापूर्वक अपनी जगह पर ही खड़े रहे। उन्हें गिऱफ़्तार किया गया।

इस तरह काँग्रेस का आंदोलन साल भर शिथिल होने के बावजूद भी वह साल गूँजता रहा, असन्तोष के धमाकों से।

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