नासिक भाग – ३

ब्रह्मगिरि पर उद्गमित गोदावरी जब नासिक शहर में प्रवेश करती है, तब उसके दक्षिणी तट पर बसे स्थान को ‘नासिक’ इस नाम से जाना जाता है; वहीं उत्तरी तट पर बसे स्थान को ‘पंचवटी’ इस नाम से जाना जाता है।

प्रभु रामचन्द्रजी के वास्तव्य से यह स्थान पावन हुआ ही है, साथ ही ऐसा भी कहा जाता है कि इस पंचवटी से कुछ ही दूरी पर अगस्त्य ऋषि का स्थान है, जहाँ पर कुछ अवधि तक उनका निवास था। गोदावरी के उत्तरी तट को ‘गौतम तट’ और दक्षिणी तट को ‘वसिष्ठ तट’ भी कहा जाता है। इससे ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इन दोनों ऋषियों ने अगस्त्य ऋषि को उनके कार्य में अमूल्य सहयोग दिया होगा।

ब्रह्मगिरि

संक्षेप में, इस भूमि को केवल श्रेष्ठ ऋषियों के ही नहीं, बल्कि साक्षात् मर्यादापुरुषोत्तम परमात्मा के चरणों का स्पर्श भी हुआ था और उन्होंने कुछ समय के लिए यहाँ पर निवास भी किया था। तो फिर ऐसी इस पावन भूमि की गणना प्रमुख तीर्थों में होना तो स्वाभाविक है।

नासिक की गणना पाँच प्रमुख क्षेत्रों में की जाती है। नासिक, प्रयाग, पुष्कर, नैमिषारण्य और गया ये वे पाँच क्षेत्र हैं।

नासिक की इस पुण्यभूमि में गोदावरी के तट पर कई मन्दिर हैं और गोदावरी के पात्र में कई कुण्ड  भी हैं।

पेशवाओं के शासन काल में नासिक में कई मन्दिरों का निर्माण किया गया।

नासिक के काला राम मन्दिर’ इस राम मंदिर का नाम आपने शायद सुना होगा। त्रिभुवनसुन्दर श्रीराम को इस प्रकार सम्बोधित करनेवाले की बुद्धि के विषय में क्या कहें? ख़ैर, जाने दीजिए। गत कुछ शतकों से श्रीराम यहाँ पर इसी नाम से स्थित हैं। यह मन्दिर पेशवाओं के शासनकाल में बनाया गया। इस पूरे मन्दिर के निर्माण में लगभग १२ वर्ष लगे थे, २००० मजदूर इसके निर्माणकार्य में जुटे हुए थे और उस समय इसके निर्माण के लिए २३ लाख रुपये खर्च किये गये थे, ऐसा कहा जाता है।

हालाँकि इस मन्दिर पर अधिक शिल्पकाम अथवा नक़्काशीकाम किया हुआ नहीं दिखायी देता, मग़र फिर भी इस मन्दिर की भव्यता और चमक देखनेवाले के मन पर अपनी मुहर लगा ही देती है। जिन श्रीराम ने मात्र पितृवचन के लिए पल की भी देरी न करते हुए सम्पूर्ण राजवैभव का त्याग किया, उन श्रीराम की भव्यता और उनके चरित्र में ओतप्रोत भरी पारदर्शकता ये बातें मानो जैसे इस मन्दिर के स्थापत्य में प्रतिबिम्बित हुई हैं। इस मन्दिर के निर्माण में उपयोग में लाये गये पत्थर पास के रामशेज पर्वत से लाये गये। यह नासिक क्षेत्र का प्रमुख मन्दिर है। मन्दिर के चारों ओर पत्थर से ही बनी चहारदीवारी है और मन्दिर के अहाते में भाविकों के निवास के लिए अग्रशालाओं का निर्माण किया गया है।

प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के बाद अब चलिए, चलते हैं दूसरे मन्दिरों में।

नासिक और पंचवटी के अधिकांश प्रमुख मन्दिर हेमाडपंतीय स्थापत्यशैली द्वारा निर्मित हैं। हम जिस त्र्यंबकेश्‍वर मन्दिर को देख चुके हैं, वह भी हेमाडपंतीय शैली का ही बेहतरीन नमूना है। अन्य मन्दिरों में जाने से पहले इस हेमाडपंतीय स्थापत्यशैली के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

श्रीसाईसच्चरित में देवगिरी के यादव राजाओं के कारोबार में प्रमुख पद विभूषित करनेवाले हेमाद्रि अथवा हेमाडपंत का उल्लेख मिलता है। उन्हीं के नाम से यह स्थापत्यशैली विख्यात हुई। लेकिन इसके कर्ता स्वयं वे हेमाद्रि थे या नहीं, इस विषय में अनुसन्धानकर्ताओं में दोराय है।

इतिहास-अन्वेषक और अध्ययनकर्ताओं की राय में यह विशिष्ट प्रकार की रचनापद्धति है। इस पद्धति से मन्दिरों का निर्माण करते हुए चूना अथवा किसी भी अन्य पदार्थ का इस्तेमाल नहीं किया जाता था। अर्थात् जब पत्थरों पर पत्थर रखकर दीवारों अथवा शिखरों का निर्माण किया जाता था, तब उन पत्थरों को आपस में जोड़ने के लिए चूना अथवा अन्य किसी भी पदार्थ का इस्तेमाल नहीं किया जाता था। केवल एक विशिष्ट रचनापद्धति द्वारा उन पत्थरों को एक-दूसरे पर रखा जाता था अथवा विशिष्ट छेद बनाकर उन्हें एक-दूसरे में म़जबूती से दृढ़तापूर्वक रख दिया जाता था। इस वर्णन से यक़ीनन हम उस जमाने की प्रगत स्थापत्यशैली के बारे में सोचकर अचम्भित हो जाते हैं।

नासिक के मंदिरों का निर्माण भी हेमाडपंतीय शैली द्वारा किया गया है। इन मन्दिरों की रचना में ऊपरोक्त विशेषताओं के अलावा कुछ समान रचनाएँ दिखायी देती हैं। हर एक मन्दिर में प्रवेश करने के लिए महाद्वार, उसके बगल में दो पक्षद्वार होते हैं। महाद्वार में से प्रवेश करने के बाद हम सभामण्डप में पहुँचते हैं और वहीं से गर्भगृह यानि कि प्रमुख देवता का स्थान दिखायी देता है। गर्भगृह पर ही शंकु के आकार का चौकोर ऊँचा शिखर है, जो मन्दिर के बाहर से ही पूरी तरह दिखायी देता है।

रामकुण्ड के पास ही ‘कपालेश्‍वर का मन्दिर’ है। इस मन्दिर के नाम से यह किन देवता का स्थान है, इसका शायद बोध नहीं होगा। कपालेश्‍वर अर्थात् भगवान शिव यहाँ शिवलिंग के रूप में स्थित हैं। इस मन्दिर की एक बात अनूठी है कि यहाँ पर शिवजी के वाहन अर्थात् नन्दी आपको कहीं भी दिखायी नहीं देंगे। कहा जाता है कि शिवजी ने उन्हें यहाँ पर अपनी सेवा से मुक्त कर दिया।

इसके विषय में क्षेत्रमाहात्म्य में एक कथा बतायी गयी है। उस कथा का सारांश यह है कि एक गाय के बछड़े के मुख से भगवान शिवजी को गोदावरी में स्थित अरुणासंगम तीर्थ के महत्त्व के बारे में पता चला और वहाँ पर स्नान करने के बाद शिवजी चिंतामुक्त हो गये। इस प्रकार नन्दी के मुख से प्राप्त इस ज्ञान के कारण यहाँ के कपालेश्वर भगवान शिवजी ने उसे अपनी सेवा से मुक्त कर दिया।

इसी मन्दिर के सामने यानि कि गोदावरी के दूसरे तट पर है, ‘सुंदरनारायण’ का मन्दिर। गोदावरी के एक तट पर स्थित है, पूरी तरह विरागी, सभी ऐहिक ऐश्वर्यों ओर चिह्नों का त्याग कर चुके शिवजी, तो उन्हीं के सामने स्थित हैं, किरीट,  कुंडल, वैजयंतीमाला पहने श्रीविष्णु। देखा जाये, तो एक ही भगवान के दो अलग रूप। एक ही सिक्के के दो पहलु। उनमें से जिसे जो अच्छा लगे, उसकी ओर वह देख सकता है और चाहे दोनों में से किसी को भी आप देखें, उसमें फायदा तो आपका ही है।

तो ऐसा यह ‘सुंदरनारायण का’ यानि कि श्रीविष्णु का मन्दिर! १८वी सदी में इस मन्दिर का जीर्णोद्धार किया गया, क्योंकि यहाँ के मूल मन्दिर को परकीयों के शासन में नेस्तनाबूद किया गया था।

ये दोनों मन्दिर इस प्रकार स्थित हैं कि एक मन्दिर में से दूसरे मन्दिर के देवता के दर्शन हो सकते हैं। सुंदरनारायण के मन्दिर की विशेषता यह है कि उसका निर्माण विशिष्ट दिशा को ध्यान में रखकर किया गया है। २१ मार्च इस विषुवदिन को सूर्योदय के समय सूरज की किरनें ठेंठ सुंदरनारायण के चरणों को स्पर्श करती हैं।

अपने नाम की तरह ही यह मन्दिर सुन्दर है। इस मन्दिर में जगह जगह सुन्दर नक़्काशी की गयी है।

बचपन में कई बार ‘नारोशंकर की घंटा’ यह शब्दप्रयोग सुना था; लेकिन उसका अर्थ पूरी तरह समझ में नहीं आया था। लेकिन नाशिक की सैर करते हुए अचानक एक बड़ी सी घंटा सामने आ गयी और पता चला कि इसे ही नारोशंकर की घंटा कहते हैं।

दरअसल ‘रामेश्‍वर मन्दिर’ को ‘नारोशंकर मन्दिर’ भी कहा जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि नारोशंकर नामक सरदार ने इसे इसवी १७४७ में बनाया। यह मन्दिर भी अत्यन्त सुन्दर है। मुख्य मन्दिर के चहूँ ओर चहारदीवारी है और मन्दिर के चारों कोनों में चार मेघडंबरियाँ हैं; लेकिन उनमें से एक गोदावरी के पुर के पानी में बह जाने के कारण अब वहाँ केवल तीन ही मेघडंबरियाँ बाकी हैं। इसी मन्दिर के अहाते में वह मशहूर नारोशंकर की घंटा है। चिमाजी अप्पा ने जब पुर्तगालियों से वसई का क़िला जीत लिया, तब सरदार नारोशंकर इस घंटा को हाथी पर से वसई से नासिक तक जुलूस निकालकर ले गये और उसे इस मन्दिर की देवता के चरणों में अर्पण किया। ब्राँझ से बनी इस घंटा का डायमीटर छः फीट है। इसे पुर्तगाल में बनाया गया है और उसपर उसके निर्माण का वर्ष इसवी १७२१ इस प्रकार अंकित किया गया है। कहा जाता है कि इस घंटा की आवा़ज आसपास के पाँच मीलों तक सुनायी देती है। इतनी बड़ी घंटा और उसकी इतनी बड़ी आवा़ज और इसीलिए ऊँची आवा़ज में बात करनेवाले व्यक्ति की आवा़ज को इस घंटा की उपमा दी जाती है।

इस नासिक में कई मन्दिर और कई कुण्ड भी हैं। परंपरागत रूप से, इन कुण्डों में स्नान करना पवित्र माना जाता है। लेकिन आज इन कुण्डों की और उसके आसपास के इला़के की स्थिति देखी जाये, तो वहाँ पर स्नान करना और शुचिता इनका कोई तालमेल नहीं है।

नासिक क्षेत्र में पूर्वापार कई तीर्थ महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। उनमें से ‘अस्थिविलय’ नामक तीर्थ में मृत व्यक्तियों की अस्थियों का विसर्जन किया जाता है। धारणा ऐसी है कि मृत व्यक्तियों की अस्थियों का यहाँ पर विसर्जन करने के बाद केवल साढ़ेतीन घटिकाओं में उनका पानी में रूपान्तरण होता है। ऊपर उल्लेखित कपालेश्‍वर के सन्दर्भ में जिस अरुणासंगम तीर्थ का उल्लेख किया गया है, उस स्थान पर अरुणा नाम की नदी रामकुण्ड में आकर मिलती है।

जिस गोदावरी के तट पर साक्षात् परमात्मा कई रूपों में स्थित हैं, उसी गोदावरी ने नासिक को कुछ नररत्न प्रदान किये हुए हैं और वैभवशाली धरोहर भी। आख़िर हर एक गाँव की अपनी एक अलग पहचान होती है, यही सच है!

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