कांची भाग – २

अध्यात्म, ज्ञान और शिल्पसुन्दरता इनका अनोखा मिलाप रहनेवानी यह कांची नगरी पल्लव राजाओं के शासनकाल में प्रगति के शिखर पर विराजमान थी।

पल्लव राजाओं में से ‘महेंद्रवर्मन्’ और ‘नरसिंहवर्मन्’ ने कई मंदिरों तथा वास्तुओं का निर्माण कर कांची की सुन्दरता में चार चाँद तो लगाये ही थे और साथ ही उन्होंने बाहरी आक्रमणों से कांची को सुरक्षित भी रखा था। ‘महेंद्रवर्मन्’ यह पल्लव राजा स्वयं कवि, कला के उपासक और विद्वान् थे। उनके द्वारा की गयी रचनाओं में से ‘मत्तविलासप्रहसन’ नामक संस्कृत नाटक में कांची का विस्तृत वर्णन किया गया है। इन्हीं शासक पिता-पुत्र के शासनकाल में कांची विद्यादान के केंद्र के रूप में भी मशहूर थी। उस समय किसी नगरी को विद्यानगरी का स्थान एवं स्वरूप प्राप्त होने में वहाँ के शासकों की भूमिका अहम होती थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि पल्लव वंश के राजा सरस्वती के उपासक और विद्वानों के आश्रयदाता थे।

कांची यह यदि पल्लवों की राजधानी थी, तो फिर कांची में राजमहल के अथवा राजा के निवासस्थान की किसी वास्तु के नामोंनिशान आज क्यों नहीं दिखायी देते हैं? बहुत बार यह प्रश्‍न उपस्थित किया जाता है। इसका समाधान इस तरह किया गया है कि यहाँ के शासकों ने हालाँकि यहाँ पर राजमहल बनवाये तो होंगे, लेकिन उनका निर्माण मिट्टी, ईंटें या लकड़ियाँ इन जैसे अधिक समय तक न टिकनेवाले साधनों द्वारा किया होगा और इसीलिए समय की धारा में वे लुप्त हो गये और आज उनके अवशेष दिखायी नहीं दे रहे हैं।

कांची नगरी, निर्माण, पल्लव राजा, कांजीवरम् साड़ी, संवर्धन, दक्षिण भारत, भक्तिमार्गइन पल्लव राजाओं ने कांची नगरी के चारों ओर चहारदीवारी का तथा खंदक का भी निर्माण किया था। उन्होंने सुन्दर सुव्यवस्थित सड़कें भी बनवायी थीं। उस समय इन शासकों के सयाम, फिजी आदि दूर के देशों के साथ व्यापारीय संबंध भी प्रस्थापित हो चुके थे और इस कार्य में अहम भूमिका निभायी थी, कांची से कुछ ही दूरी पर स्थित ‘मामल्लापुरम्’ यानि कि आज के ‘महाबलिपुरम्’ इस बंदरगाह ने। सारांश, पल्लवों के शासनकाल में कांची लगभग हर एक क्षेत्र में शिखर पर थी।

९वीं सदी के आसपास कांची पर रहनेवाला पल्लव राजवंश का शासन समाप्त हो गया। माना जाता है कि इस वंश के अन्तिम राजा का नाम था- ‘अपराजित’ । पल्लवों के बाद उनके सामन्त रहनेवाले ‘आदित्य चोळ’ ने ‘तोंडमंडल’ पर अपनी सत्ता स्थापित की, जिससे कि कांची पर चोळ राजवंश की सत्ता समाप्त हो गयी।
इन चोळ राजाओं की राजधानी थी, ‘तंजावर’ अथवा ‘गंगैकोंडचोळपुरम्’। इसीलिए कांची अब उनकी राजधानी नहीं थी। मग़र फिर भी कांची का महत्त्व चोळ राजवंश की शासनव्यवस्था में बरक़रार था और कुछ लोगों की राय यह है कि कांची मानों चोळ राजाओं की दूसरी राजधानी ही थी।

इन चोळ राजाओं की शिल्परुचि तो सुविख्यात ही है। कहा जाता है कि उन्होंने भी कांची में कई मंदिर बनवाये और साथ ही कई वास्तुओं तथा महलों का भी निर्माण किया। लेकिन वह निर्माण भी शायद ऊपरोक्त पद्धति से ही किया गया होगा, जो कि काल के उदर में आज समा गया है। ९-१०वीं सदी से लेकर १३वीं सदी तक चोळ राजाओं का यहाँ पर शासन था।

उनके बाद विजयनगर के पराक्रमी शासकों की सत्ता यहाँ पर थी। हालाँकि उन्होंने उसे अपनी राजधानी न भी बनाया हों, लेकिन कांची का महत्त्व उनके शासनकाल में भी अबाधित था। उन्होंने भी कई मंदिर बनवाये और स्थापत्य तथा शिल्पों की सुन्दरता को बढ़ाया और साथ ही एक विद्याकेंद्र के रूप में रहनेवाली कांची की पहचान को भी अबाधित रखा।

संक्षेप में, समय के करवट बदलने के साथ साथ, राजसत्ताओं के उदय-अस्त के साथ साथ, कांची ने राजधानी से लेकर एक शहर तक का सफर किया। लेकिन इस दौरान उसकी सुन्दरता में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं आयी, बल्कि वह निखरती ही रही।

दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य के अस्त के साथ ही विदेशी हुकूमत का उदय हुआ और एक लंबे अरसे तक उन्होंने यहाँ पर राज किया। अन्य शहरों की तरह कांची की किस्मत में भी यही लिखा था।

मुग़ल और उनके बाद अंग्रेज़ों का यहाँ पर कई वर्षों तक शासन था। राजसत्ता के नाम बदले, लेकिन भारत का शोषण करने का उनका नज़रिया नहीं बदला।

अंग्रेज़ों के समय में कुछ अवधि तक कांची को ज़िला मुख्यालय का दर्जा दिया गया था। सारांश, विभिन्न शासकों के शासनकाल में कांची का मध्यवर्ती स्थान अधिकांश रूप से अबाधित था। भारत के आज़ाद हो जाने के बाद कांची तमिलनाडू राज्य का हिस्सा बन गयी।

कांची के अब तक के सफर में हमने कांची के राजनीतिक इतिहास को देखा। आध्यात्मिक दृष्टि से भी कांची उतनी ही महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। कांची का अध्यात्मिक महत्त्व पद्मपुराण, देवी भागवत आदि ग्रन्थों में प्रतिपादित किया गया है। ब्रह्मांडपुराण में कहा गया है कि काशी और कांची ये शिवजी के दो नेत्र हैं। इस नगरी में सन्तों का भी निवास था। इसीलिए दक्षिण भारत में भक्तिमार्ग को उजागर करने में कांची का बहुत बड़ा योगदान रहा है। कांची में जिस तरह शिवजी के मंदिर हैं, उसी तरह भगवान विष्णु के भी मंदिर हैं। इसलिए कांची को भगवान के शिव तथा विष्णु इन दोनों स्वरूपों का एकत्रित स्थान कहा जा सकता है।

कांची के ये प्रमुख मंदिर आज भी सुस्थिति में हैं। यहाँ के प्रमुख मंदिर हैं – ‘एकांबरनाथ’ का अथवा ‘एकांबरेश्‍वर’ का मंदिर, वरदराज पेरुमल मंदिर, वैकुंठ पेरुमल मंदिर, कैलासनाथ का मंदिर, कामाक्षी मंदिर। इनके अलावा कांची में अन्य भी कई छोटे बड़े मंदिर हैं।

भारत के कई प्राचीन नगरों में अध्यात्म के साथ साथ विद्या का भी विकास एवं संवर्धन हुआ है। इनमें काशी का स्थान अव्वल है; क्योंकि काशी आध्यात्मिक क्षेत्र के साथ साथ विद्यादान के केंद्र के रूप में भी प्राचीन समय से अग्रसर है। काशी के बाद नाम लिया जाता है, कांची का। काशी की तरह कांची भी आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध है। दक्षिण की यह कांची लगभग दोन हजार वर्षों से विद्या के केंद्र के रूप में मशहूर है।
प्राचीन समय से यहाँ पर वेदों का अध्ययन-अध्यापन किया जाता था। कांची में विभिन्न पाठशालाएँ थीं। उन्हें ‘घटिका’ कहा जाता था और उन्हें राजाश्रय भी था।

इन ‘घटिकाओं’ का उल्लेख काकुत्स्थवर्मा के तालगुंड स्तंभलेख में किया गया है। उसमें कदंब कुल की उन्नति करनेवाले मयूरशर्मा कांची की एक घटिका में अध्ययन के लिए गये थे, ऐसा वर्णन किया गया है।
इन घटिकाओं में कई विद्वान अध्यापन का कार्य करते थे। पाठशालाएँ विद्वानों और पंडितों को बनाने के साथ साथ छात्रों की नैतिक, अध्यात्मिक उन्नति करने का कार्य भी करती थीं।

अब हम प्राचीन समय की कांची में प्रवेश कर ही चुके हैं, तो आइए कांजीवरम् साड़ी के निर्माण बारे में भी थोड़ीबहुत जानकारी प्राप्त करते हैं, जो प्राचीन समय से यहाँ पर बनायी जाती है।

आज दुनिया भर में कांची का नाम कांजीवरम् साड़ी की नगरी के रूप में मशहूर है। कहा जाता है कि लगभग ४०० वर्ष पूर्व, राजा कृष्णदेवरायजी के शासनकाल में यहाँ आकर बसे बुनकरों ने इस वस्त्रप्रकार की बुनाई करना शुरू किया।

मलबरी सिल्क नाम के बेहतरीन दर्जे की सिल्क से करघे पर इन साड़ियों को बनाया जाता है। सिल्क के तीन धागों को बुनकर इस साड़ी को बनाया जाता है और यही इस साड़ी के टिकाऊपन का रहस्य है। इस साड़ी के पल्लू तथा किनारे (बॉर्डर) पर ज़री से ऩक़्क़ाशी बनायी जाती है। इस काम में असली ज़री का उपयोग किया जाता है, जिसमें चांदी की तार पर सोने का मुलामा चढ़ाया जाता है। बेहतरीन दर्जे की सिल्क और असली ज़री के कारण गुणवत्ता और टिकाऊपन की कसौटी पर यह साड़ी खरी उतरती है।

हालाँकि बेहतरीन दर्जे की सिल्क और असली ज़री का उपयोग किये जाने के कारण यह साड़ी का़फी महंगी होती है; लेकिन गुणवत्ता, टिकाऊपन और सुन्दरता के चहेते ग्राहक यानि कि महिलाएँ इस साड़ी को काफी पसंद करती हैं।

कांजीवरम् सिल्क की बुनावट देखते देखते अचानक यह जानी-पहचानी सी खुशबू कहाँ से आ रही है? यह मिश्र सुगन्ध है, फूलों और चन्दन की। जी हाँ, आपने सही पहचाना, यह महक कांची के मंदिर के गर्भगृह से आ रही है। आइए, तो फिर चलते हैं उस सुगन्ध की दिशा में। यहाँ के मंदिर भी तो देखने हैं; क्योंकि उसके बिना हमारी यह कांची यात्रा पूरी कैसे हो सकती है?

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