कोणार्क भाग – २

सूर्यमहाराज का रथ हमेशा की तरह अपने काम के लिए निकल चुका है और अब उनके साथ हम भी उनके लिए बनाये गये कोणार्क के विशाल मंदिर का सफ़र शुरू करते हैं।

भव्य, प्रदीर्घ, विशाल इन जैसे कईं विशेषणों से इस सूर्यमंदिर का वर्णन करें, तब भी वह कम ही है। क्योंकि यह रचना ही इतनी भव्य-दिव्य है कि शब्दों में उसे बयान करना मुमक़िन नहीं है। एक विशाल प्रांगण में विराजमान सूर्य का रथ, जिसे ७ घोड़ें खींचते हैं और जो २४ पहियों पर (पहियों की १२ जोड़ियाँ) चलता है। रथ की रचना के बारे में तो आप जानते ही होंगे। रथ में जहाँ पर रथी विराजमान होते हैं, वहाँ पर कोणार्क का सूर्य का प्रमुख मंदिर विराजमान है।

गंग वंश के नरसिंहदेव नाम के राजा ने १३वीं सदी में इस मन्दिर का निर्माण किया। उन्होंने इतने विशाल सुन्दर मन्दिर का निर्माण क्यों किया, इस बारे में अनेक मत हैं। इनमें से प्रमुख है – नरसिंहदेव ने युद्ध में उन्हें मिली विजय के स्मारक के रूप में इस विशाल मन्दिर का निर्माण किया।

नागर शिल्पशैली की कलिंग इस उपशैली में इस मन्दिर को बनाया गया है। कहा जाता है कि आज यह सूर्यमन्दिर जहाँ पर है, वहाँ पर प्राची नामक नदी की चन्द्रभागा नामक शाखा रहनेवाली उपनदी बहती थी। लेकिन आज उस नदी के नामोंनिशान ऩजर नहीं आते।

इस मन्दिर के निर्माण में शिलाओं का यानि कि बड़े बड़े पत्थरों का उपयोग किया गया है। हालाँकि आसपास के परिसर को देखते हैं, तो कई किलोमीटर्स की दूरी तक इस तरह के पत्थर दिखायी नहीं देते। इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि इन पत्थरों को किसी अन्य स्थान से यहाँ ले आकर उनसे इस मन्दिर का निर्माण किया गया होगा। इसके निर्माण में प्रमुख रूप से क्लोराइट, लॅटराइट और खोंडालाइट इन तीन प्रकार के पत्थरों का उपयोग किया गया है। मंदिर के प्रवेशद्वार, मंदिर पर तराशे गये शिल्प ये मंदिर की मुख्य रचनाएँ हैं और उनके निर्माण में क्लोराइट पत्थर का इस्तेमाल किया गया है। वहीं, मंदिर की नींव लॅटराइट पत्थरों से बनी है और मंदिर की अन्य रचना खोंडालाइट नामक पत्थर से।

सूर्यमहाराज का रथ

मंदिर का गर्भगृह, सभामंडप और उसका विमान यह सब मिलकर उस भव्य रथ की आकृचि बनती है। मंदिर का एक भी कोना ऐसा नहीं है, जहाँ पर शिल्पकाम न किया गया हो। रथ के पहियों के आरों पर भी सुंदर शिल्पकाम किया गया है।

इस मंदिर का विशाल प्रांगण २६१ मी. लंबा और १६० मी. चौड़ा है। प्रमुख मंदिर लगभग २०० फीट के क्षेत्र पर बना था।

मंदिर में प्रवेश करते ही सामने दिखायी देते हैं, दो सिंह। दोनों तरफ़ रहनेवाले ये सिंह हाथी पर झपकते हुए दिखायी देते हैं। यहाँ से ऊपर जाने के बाद सबसे पहले जिस सभामंडप में हम प्रवेश करते हैं, उसे ‘जगमोहन’ कहा जाता है। जगमोहन की ऊँचाई है ४० मीटर और चौड़ाई तथा लंबाई ३० मीटर है और उसका निर्माण भी एक उँचे चबूतरे पर किया गया है। जगमोहन में से गु़जरने के बाद हम गर्भगृह में जाते हैं। सभामण्डप का शिखर बड़ा ही अनोखा है। सर्वसाधारण रूप से मंदिरों के शिखर की रचना से इसकी रचना कुछ अलग है। सीढ़ियों के पायदान की तरह इसकी रचना की गयी है और इन पायदानों की रचना ऊपरि दिशा में शंकु के आकार की है। इस तरह इस सभामण्डप के शिखर के तीन स्तर हैं। इस तरह की रचना को ‘पिढ़ा’ कहते हैं। हर स्तर के प्रारम्भ में सुन्दर मूर्तियाँ तराशी गयी हैं। बहुत ही प्रमाणबद्ध तथा सुडौल ऐसी इन पाषाणमूर्तियों के हाथों में कुछ वाद्य भी दिखायी देते हैं।

सभामण्डप में से आगे बढ़ते ही हम गर्भगृह में प्रवेश करते हैं। दरअसल सभामण्डप और गर्भगृह का निर्माण एक ही सतह पर किया गया था। लेकिन गर्भगृह का शिखर सभामण्डप से काफ़ी ऊँचा था। ‘था’ ऐसा कहने की वजह है कि आज सभामण्डप की स्थिति जितनी बेहतर है, उतनी गर्भगृह की नहीं है और सूर्यमंदिर का शिखर आज पूरी तरह भग्न अवस्था में है। कहा जाता है कि इस सूर्यमंदिर के शिखर की ऊँचाई ७० मीटर थी और यह काफ़ी दूर से दिखायी देनेवाला शिखर नाविकों के लिए किसी दीपस्तम्भ की तरह मार्गदर्शक था। विदेशी नाविक इसे ‘ब्लक पॅगोडा’ कहते थे।

ख़ैर! सभामण्डप में से गर्भगृह में प्रवेश करने के बाद आज प्रमुख सूर्यमूर्ति तो यहाँ पर नहीं है। पुराने समय में इस मंदिर में प्रतिष्ठित सूर्यमूर्ति की उपासना की जाती थी। लेकिन वह सूर्यमूर्ति आज यहाँ पर नहीं है, लेकिन इसी मंदिर में एक सूर्यमूर्ति पायी गयी, जो अभंग है, बहुत ही सुंदर है। इससे हम ओरिसा के शिल्पकला तथा मूर्तिकला की उस ज़माने की सुन्दरता को महसूस कर सकते है। प्रमाणबद्धता, सुडौलता और चैतन्यमयता ये इस कोणार्क की शिल्पशैली की विशेषताएँ हैं। इसी मंदिर के शिल्पों में सूर्यदेव की दिनभर की विभिन्न स्थिति दर्शानेवाले यानि प्रातः, माध्यान्हतथा सायंकाल के सूर्य के विभिन्न रूप दिखायी देते हैं।

हालाँकि इस मंदिर का शिखर आज अस्तित्व में तो नहीं है; लेकिन उसके बारे में यह कहा जाता है कि उसका निर्माण एक अखंड शिला से किया गया होगा और उस शिला का वजन तक़रीबन १००० किलो से भी अधिक होगा। अब यह सब जानने के बाद हम उन सब कारीगरों को मन ही मन में सलाम करते हैं।

जगमोहन और गर्भगृह को तो हम देख चुके; अब पास ही के ‘नटमंदिर’ की ओर चलते हैं। सभामंडप से लगभग ९ मीटर की दूरी पर ‘नटमंदिर’ विद्यमान था। आज वह भग्नावस्था में है। पुराने समय में नटमंदिर में प्रमुख देवता के समक्ष गीत तथा नृत्य किया जाता था। नटमंदिर के साथ साथ इस मंदिर में एक और मंडप है और उसे ‘भोगमंडप’ कहा जाता है। यहाँ पर देवता को भोग चढ़ाया जाता है।

इस मंदिर में चारों ओर आपको शिल्पकाम दिखायी देगा। अब हम सूर्यमंदिर के रथ के पहियों को देखते हैं और उसके बाद यहाँ के शिल्पों को भी।

कोणार्क के सूर्यमंदिर के पहिये उसकी पहचान कबसे बने यह तो निश्‍चित रूप से ज्ञात नहीं है; लेकिन इस पहिये को देखते ही मंदिर की याद स्वाभाविकत: आ जाती है, इतनी इन दोनों में एकरूपता है। संपूर्ण पत्थर में तराशे गये ये २४ पहियें रथ के दोनों तरफ़ मौजूद हैं। पूर्व-पश्‍चिम दिशा में विद्यमान सूर्यदेव के रथ के पहिये उत्तर और दक्षिण की ओर हैं। ९ फीट ऊँचा और ९ इंच के व्यास (डायमिटर) का एक एक पहिया और हर एक पहिये के आठ आरे ऐसा उनका स्वरूप है। अब इतने बड़े सूर्यभगवान का रथ! तो भला उसका पहिया भी मामूली कैसे हो सकता है? हर एक पहिये के प्रत्येक विभाग पर ऩक़्क़ाशीकाम किया गया है; कहीं फूलपत्तों के चित्र, कहीं मानवीय आकृतियाँ, तो कहीं विभिन्न प्राणि!

अब इतने विशाल रथ के घोड़े भी बहुत ही सुन्दर ही होंगे! पत्थरों में से तराशे गये कुल सात घोड़ें इस रथ से जुड़े हुए हैं।

अब इस सूर्यमंदिर की रचना हमारे ध्यान में आ ही चुकी होगी। अब हम इसपर अंकित किये गये शिल्पों को देखते हैं। दरअसल इन शिल्पों को उस ज़माने के जीवन का प्रतिबिंब कहा जा सकता है। इन शिल्पों में क्या कुछ नहीं है? सूर्य इस आराध्य से लेकर मनुष्य, विभिन्न प्राणी, विभिन्न वनस्पतियाँ, विभिन्न फूल-फल और इतना ही नहीं, बल्कि रामायण, महाभारत, पुराण इनमें वर्णित प्रसंग भी यहाँ पर चित्रित किया गये हैं। राजा से लेकर आम आदमी तक सभी के जीवन का चित्रांकन कोणार्क के शिल्पों में किया गया है। कहीं पर ये शिल्प राजदरबार के दृश्य चित्रित करते हैं, तो कहीं पर आम इन्सान के रोजमर्रा के जीवन की घटना को चित्रित करते हैं। कहीं पर युद्ध करती हुई सेने दिखायी देती है, तो कहीं पर भगवान को भजनेवाला भक्त। कहीं पर गुरु-शिष्यों का अध्ययन-अध्यापनकार्य, तो कहीं पर हाथगाड़ी जैसे वाहन द्वारा पत्थर ले जानेवाले कारीगर। कोणार्क के इस सूर्यमंदिर पर चित्रित ये मानवी शिल्प मानों उस समय के मानवीय जीवन का एक उत्सव ही है। इन शिल्पों से जिस तरह हम उस समय के लोगों के दैनिक व्यवहार के बारे में जानते हैं, उसी तरह मनुष्य की नैसर्गिक भावनाओं को चित्रित करने का कार्य भी यहाँ के युग्मशिल्प करते हैं। यहाँ के कारीगरों की कुशलता को तो हमें दाद देनी ही पड़ेगी, क्योंकि यहाँ का हर एक शिल्प उस उस सजीव अथवा निर्जीव वस्तु की हूबहू प्रतिकृति है।

प्राणिशिल्पों में सिंह और हाथी इनसे हमारी मुलाक़ात तो होती ही है, लेकिन साथ ही जिसकी गर्दन काफ़ी लंबी है, ऐसा एक प्राणि भी हमें दिखायी देता है। कहा जाता है कि वह जिराफ है। अफ्रिका से चल रहे व्यापार के कारण उस समय अफ्रिका का जिराफ यहाँ पर आ गया और इन चित्रों में प्रतिनिष्ठत हुआ।

पेड़, पौधे, फूल-पत्तें यहाँ के अन्य शिल्पों की पार्श्वभूमि को सुंदर बनाते हैं और साथ ही उनसे अपना नाता जोड़ते हैं। प्रवेशद्वार तथा स्तंभों पर चित्रांकित लताएँ और अन्य नक़्क़ाशी लाजवाब ही है।

अप्रतिम, सुंदर, वाह! ये शब्द इस सूर्यमंदिर की सैर करते हैं, हमारा साथ देते हैं। आपके मन में भी इस सुन्दरता का अधिक आस्वाद लेने की इच्छा उत्पन्न हो ही रही होगी! अगले लेख में हम इस सफ़र को जारी रखेंगे।

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