चितोड भाग – ३

चितोड का गढ़ यानि कि चितोडगढ़ यह अतीत के एक लंबे अरसे का गवाह है। इसीलिए इस गढ़ पर स्थित हर एक वास्तु के साथ, स्मारक के साथ अतीत की यादें जुड़ी हुई हैं। क्योंकि चन्द कुछ वर्षों के लिए नहीं, बल्कि कुल ८३४ वर्षों तक यह मेवाड की राजधानी थी।

इस गढ़ के प्रवेशद्वारों में से पहले प्रवेशद्वार के बारे में कुछ लोककलाएँ प्रचलित हैं। कुछ लोगों की राय के अनुसार ‘पाडन’ यह नाम राजस्थानी भाषा के ‘पहले’ इस शब्द से बना है; वहीं एक अन्य मत के अनुसार इस गढ़ पर हुए एक घनघोर संग्राम में खून की नदियाँ बहीं और उसमें बहते हुए एक भैंस का छोटा बच्चा (पाड़ा) यहाँ तक आ चुका था, इसीलिए इस गढ़ के दरवाजे को ‘पाडन पोल’ कहा जाता है।

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इस गढ़ पर जाते हुए रास्ते में ही चितोड के दो योद्धाओं की याद में बनाये गये स्मारक दिखायी देते हैं। इन स्मारकों को ‘छत्री’ कहा जाता है। इनमें से एक स्मारक है, ‘जयमल’ इस वीर की याद में बनायी गयी छत्री; वहीं दूसरी छत्री का निर्माण ‘कल्ला’ नामक वीर की याद में किया गया। अकबर ने जब चितोड पर धावा बोल दिया था, तब जयमल और कल्ला इन दोनों वीरों ने चितोड की रक्षा के लिए जान की बा़जी लगा दी। जयमल और कल्ला इनके बारे में एक ‘युद्धस्य कथा रम्या’ कही जाती है कि इस युद्ध के दौरान एक रात टूटी हुई दीवार की मरम्मत करवाते हुए, दुश्मन के हमले के कारण जयमल का एक पैर बुरी तरह घायल हो गया। दूसरे दिन कल्ला ने जयमल को अपनी पीठ पर बिठाया और वे दोनों युद्ध के लिए निकल पड़े। वे दोनों दुश्मन के साथ युद्ध करते करते वीरगति को प्राप्त हो गये। गढ़ के भैरव पोल इस दूसरे प्रवेशद्वार के पास इन वीरों की याद में बनाई गयीं छत्रियाँ हमें इस बात का स्मरण दिलाती हैं कि शूरता चितोड के कण कण में बसी है।

इस गढ़ का पाँचवा प्रवेशद्वार छठे प्रवेशद्वार से सटकर है, इतना कि वे आपस में जुड़े हुए प्रतीत होते हैं और इसीलिए उसे ‘जोड़ला (जोरला) पोल’ कहा जाता है।

चितोडगढ़ इतिहास के स्मरण में रहने की वजह है, वहाँ पर हो चुका पहला जौहर। इस जौहर के साथ जिनका नाम जुड़ा हुआ है, वह रानी पद्मिनी बहुत ही रूपवती थी, ऐसा कहा जाता है। उनका महल इस गढ़ पर है, जिसे ‘पद्मिनी महल’ कहा जाता है। इस महल का निर्माण एक तालाब में किया गया है। कहा जाता है कि अल्लाउद्दिन खिलजी की दुष्ट इच्छा के कारण उसे राणी पद्मिनी के मात्र प्रतिबिंब को ही इसी जगह दिखाया गया था।

चितोड के इतिहास में राणा कुंभा का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। मेवाड के इस शासक द्वारा चितोडगढ़ पर बनाया गया महल, कुंभा महल के नाम से जाना जाता है। दरअसल कुंभा महल यह चितोड के शासकों का निवासस्थान ही था। इसीलिए चितोड के कईं शासकों का निवास इसी महल में था। काल का प्रभाव जिस प्रकार मनुष्य पर होता है, उसी प्रकार वास्तुओं पर भी होता है। इसीलिए जब राजकीय दृष्टि से चितोड का महत्त्व कम होने लगा, तबसे यहाँ लोगों की आबादी भी कम होती गयी और एक समय ऐसा आया, जब इस गढ़ पर मनुष्यों का निवास लगभग था ही नहीं। उसी दरमियान इस महल की भी उपेक्षा हो गयी। इसी कारण आज यह महल सुस्थिति में नहीं है।

इन पुरानी वास्तुओं के साथ ही गढ़ पर २०वी सदी की शुरुआत में निर्मित ‘फ़तेह प्रकाश’ नाम का महल है। यह महल उसकी स्थापत्यशैली के लिए मशहूर है। फ़तेहसिंग नामक चितोड के महाराणा का यह निवासस्थान था। २०वी सदी की शुरुआत में इसका निर्माण किये जाने के कारण यह वास्तु आज भी सुस्थिति में है।

गढ़ की पहचान जिस तरह वहाँ के बड़ी बड़ी वास्तुओं द्वारा होती है, उसी तरह कईं छोटी छोटी वस्तुएँ भी हमें गढ़ से परिचित कराती हैं। इसीलिए गढ़ से परिचित करानेवाली इन छोटी छोटी वस्तुओं को एक कक्ष में एकत्रित करके, एक ही छत के नीचे उन्हें रखकर संग्रहालय (म्युझियम) के रूप में उन्हें जतन किया गया है। फ़तेह प्रकाश महल का यह संग्रहालय छोटी छोटी, मग़र फिर भी बहुमूल्य वस्तुओं के माध्यम से चितोड के इतिहास को पुनर्जीवित करता है।

मनुष्य को ईश्वर की प्रार्थना से मनोबल प्राप्त होता है और इसीलिए मंदिरों का निर्माण किया जाता है। चितोड के शासकों ने भी उनके आराध्य देवताओं के मंदिरों का निर्माण गढ़ पर किया है। गत भाग में हम दो मंदिरों के बारे में जान भी चुके हैं। इनके अलावा और भी कईं मंदिर इस गढ़ पर हैं। बाप्पा रावळ ने यहाँ पर कालिका माता के मंदिर का निर्माण किया था। यह मंदिर मूलतः सूर्यमंदिर था ऐसा माना जाता है। शत्रु के आक्रमण के कारण इस मंदिर की मूर्ति का नुकसान हो जाने के कारण हम्मीरसिंह नामक शासक ने यहाँ पर कालिका माता की मूर्ति की स्थापना की, ऐसा कहा जाता है। इस मंदिर की ख़ास बात है, उसका शिल्पकाम।

दर्शनीय ‘समिद्धेश्‍वर मंदिर’ यह चितोडगढ़ पर स्थित शिवमंदिर है। १२वी सदी के पूर्व बनाये गये इस मंदिर का जीर्णोद्धार १५वी सदी में किया गया। इस मंदिर का शिल्पकाम भी उत्कृष्ट है। इस मंदिर की ख़ासियत यह है कि मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग के पीछे त्रिमूर्ति का बहुत बड़ा शिल्प है।

इन मंदिरों और महलों के अलावा गढ़ पर स्थित दो ऊँची वास्तुएँ दर्शकों का ध्यान आकर्षित करती हैं। चितोडगढ़ की सुन्दरता को ये वास्तुएँ चार चाँद लगाती हैं।

१२० फीट  ऊँचा ९ मंजिला ‘विजयस्तंभ’। १५ वी सदी के चितोड के शासक राणा कुंभा ने इसका निर्माण किया। उस समय गुजरात का सुलतान और माळवा का सुलतान इन दोनों ने एकसाथ चितोड पर आक्रमण किया था। राणा कुंभा ने दोनों को भी धूल चटा दी। शत्रु पर प्राप्त हुई जीत की स्मृति में राणा कुंभा ने इस ‘विजयस्तंभ’ का निर्माण किया।

१२० फीट ऊँचा यह स्तंभ एक बड़े चबूतरे पर स्थित है। इसकी कुल नौ मंजिलें हैं। यह चौकोर आकार का है। इसकी सबसे नीचली मंजिल  की ऊँचाई ३२ फीट है, वहीं सबसे ऊपरी मंजिल  की ऊँचाई १७ फीट  है। ऊपरी मंजिलों  पर जाने के लिए इस स्तंभ के भीतर सीढ़ियाँ बनायी गयी हैं। इसवी १४४८ में इस विजयस्तंभ को बनाया गया। लगभग १५० सीढ़ियाँ चढ़कर हम इसकी सबसे ऊपरी मंजिल  तक जा सकते हैं। कुल दस वर्षों तक इसका निर्माणकार्य चल रहा था।

किसी कारीगरी के गहने की तरह यह विजयस्तंभ दिखायी देता है। इस पूरे स्तंभ पर कईं घटनाओं को शिल्पांकित किया गया है। इसपर कईं पुराणकथाएँ तथा देवताओं के शिल्प बनाये गये हैं और इसपर शिल्पांकित किये गये देवताओं की मूर्तियों के नीचे उस उस देवता का नाम भी लिखा गया है।

यह विजयस्तंभ जैसे चितोडगढ़ के गले का एक सुन्दर नक्काशीदार हार ही है।

विजयस्तंभ के अलावा एक और स्तंभ इस गढ़ पर है, जिसका नाम है ‘कीर्ति स्तंभ’। ८० फीट  ऊँचा यह स्तंभ सात मंजिला है। कुछ लोगों की राय से १२वी सदी में एक व्यापारी ने इस स्तंभ का निर्माण किया, एक और राय ऐसी भी है कि इसका निर्माण १४वी सदी में हुआ था। इस स्तंभ पर जैन धर्म से जुड़ी कहानियों को शिल्पांकित किया गया है। यह स्तंभ जैन तीर्थंकरों को समर्पित किया गया है।

ऐसे ये दो शिल्पांकित स्तंभ, मानो जैसे चितोडगढ़ के भूषण हैं और उसकी सुन्दरता में आज भी चार चाँद लगा रहे हैं।

इस गढ़ पर चट्टानों में से बहनेवाला जल गोमुख में से निरन्तर बहता रहता है।

इसी गढ़ पर ‘सात बीस देवरा’ इस नाम से जाना जानेवाला जैन मंदिरों का दर्शनीय समूह है।

इतनी सारी वास्तुएँ इस गढ़ पर पुराने समय से मौजूद हैं और इनके अलावा भी कईं छोटी-बड़ी वास्तुएँ भी इस गढ़ पर विद्यमान हैं, जिससे कि इस गढ़ की विशालता के बारे में हम कल्पना कर सकते हैं। सात प्रवेशद्वारों के माध्यम से जिसमें प्रवेश करना पड़ता है, ऐसा यह चितोड़गड ऊँचाई तथा विस्तार दोनों दृष्टि से विशाल ही है। इस गढ़ की विशालता के कारण इसे जीतना आसान नहीं था और इसीलिए जब अकबर ने चितोडगढ़ पर हमला किया, तब हमला करने में आसानी हो, इस उद्देश्य से उसने गढ़ के पास में मिट्टी के एक टीले का निर्माण करवाया, ऐसा कहा जाता है। किंवदन्ति ऐसी भी है कि इस टीले का निर्माण करनेवाले मजदूरों को स्वर्ण की एक एक मुहर दी गयी और इसीलिए इस टीले को ‘मोहोर मगरी’ कहा जाता है।

चितोडगढ़ के इस विशाल क़िले पर से कईं शासकों ने केवल चितोड पर ही नहीं, बल्कि पूरे मेवाड पर कईं वर्षों तक शासन किया। शौर्य, बलिदान, भक्ति, शीलरक्षा, स्वामीनिष्ठा की अनेकों ऐतिहासिक घटनाओं के दृढ़ पाषाणों का मूर्तिमान स्वरूप है, चितोडगढ़। आज भले ही यहाँ पर राजा-महाराजा न हो, फिर भी एक बात तो निश्चित है कि चितोड और चितोडगढ़ एक-दूसरे का हाथ कसकर पकड़े हुए ही खड़े हैं।

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