त्रिचूर भाग २

‘वदक्कुंनाथन’ के यानि कि साक्षात् भगवान शिव के मन्दिर के इर्दगिर्द बसे इस त्रिचूर शहर की स्थिति कुछ शतकों पूर्व का़फ़ी दुर्लक्षित हो चुकी थी। उस समय इस वदक्कुंनाथन मन्दिर के चारों ओर का़फ़ी घना जंगल बढ़ चुका था और उसमें सागौन के का़फ़ी पेड़ थे। ‘सक्थन थंपुरन’ राजा ने इस जंगल की कटाई कर दी। सागौन के पेड़ का़फ़ी संख्या में होने के कारण वदक्कुंनाथन मन्दिर के इर्दगिर्द के इस मैदान को ‘थेक्किनकाड’ कहा जाता था। त्रिचूर शहर जिस ‘पूरम’ नाम के महोत्सव के लिए मशहूर है, वह पूरम महोत्सव इसी मैदान पर मनाया जाता है।

स्वयं परशुरामजी ने जिस मन्दिर का निर्माण किया ऐसा कहा जाता है, उस वदक्कुंनाथन मन्दिर के बारे में अब जानकारी प्राप्त करते हैं। छोटीसी पहाड़ी पर बसा यह मन्दिर केरलीय शिल्पशैली का एक बेहतरीन नमूना माना जाता है। मन्दिर के चारों ओर दिखायी देती है, पत्थरों से बनी चहारदीवारी और इस चहारदीवारी के भीतर स्थित है, प्रमुख मन्दिर और उसके साथ कईं अन्य मन्दिर। यह चहारदीवारी लगभग ९ एकर के प्रदेश को सुरक्षित रखती है यानि कि प्रमुख मन्दिर के साथ अन्य मन्दिर इस ९ एकर के दायरे में स्थित हैं। इस मन्दिर की पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण इन चारों दिशाओं में गोपुरों का निर्माण किया गया है।

वदक्कुंनाथन यानि कि भगवान शिव इस मन्दिर के प्रमुख देवता हैं। साथ ही श्रीराम और शंकरनारायण ये दोनों भी यहाँ के प्रमुख देवता हैं। भगवान शिव का स्थान कहने पर हमारी आँखों के सामने सबसे पहले आता है शिवलिंग। वदक्कुंनाथन मन्दिर में शिवलिंग को प्रतिदिन घी का अभिषेक किया जाने के कारण आज इस शिवलिंग के दर्शन हमें होते हैं, वह उसपर अभिषेक किये गये और जम चुके घी के स्वरूप में अर्थात् शिवजी की पिण्डी के स्थान पर घी का एक बड़ा पर्वत ही दिखायी देता है। एक परंपरागत धारणा यह है कि यह घी का बड़ा पर्वत शिव-पार्वतीजी का निवासस्थान कैलास पर्वत ही है। एक और महत्त्वपूर्ण बात का यहाँ पर जिक्र करना जरूरी है। घी यदि एक ही स्थान पर या किसी बर्तन में कुछ दिनों तक पड़ा रहता है, तब उसकी एक अलग ही प्रकार की गन्ध आने लगती है। लेकिन वदक्कुंनाथन के मन्दिर के इस घी की शिवपिण्डी को ना तो अलग प्रकार की कोई गन्ध आती है और ना ही उसमें किसी भी प्रकार के कीड़े आदि जीव दिखायी देते हैं। गर्भगृह में जलनेवाले दीपकों की उष्मा के कारण या बाहरी वातावरणीय उष्मा के कारण भी यह घी नहीं पिघलता अर्थात् इन ऊपर उल्लेखित सभी बातों का कारण केवल शिवशंकरजी ही जानते होंगे।

अब घी के विषय में बात कर ही रहे हैं, तो एक और बात का भी निर्देश करना जरूरी है। आयुर्वेद में घी के औषधी उपयोग के बारे में कहा गया है। उसमें एक वर्ष पुराना घी, १०० वर्ष पुराना घी और १००० वर्ष पुराना घी इनका वर्णन किया गया है। घी जितना पुराना, उसके अनुसार उसे अलग अलग नाम दिये गये हैं। वदक्कुंनाथन मन्दिर में शिवपिण्डी को प्रतिदिन किये जानेवाले अभिषेक के कारण इकट्ठा हो चुका यह घी भी कईं वर्ष पुराना है, ऐसा माना जाता है और इसी कारण इस घी में उत्तम औषधि गुणधर्म हैं, ऐसा माना जाता है।

इस मन्दिर में जगह जगह लकड़ी पर किया गया नक़्काशीकाम दिखायी देता है। साथ ही १६वीं और १७वीं सदी के, कुछ दीवारों पर बनाये गये चित्र भी दिखायी देते हैं। हमारे भारतवर्ष के बहुतांश मन्दिरों में जो बात दिखायी देती है, वह त्रिचूर के इस वदक्कुंनाथन मन्दिर में भी दिखायी देती है और वह है, नृत्यकला को ईश्वर के सामने प्रस्तुत करने के लिए बनाये गये विशेष मण्डप। भारतीय नृत्यकला का जन्म दरअसल मन्दिरों में ही हुआ और मन्दिरों में ही इस कला का विकास हुआ, इसका यही कारण है। वदक्कुंनाथन मन्दिर का नृत्यमण्डप ‘कूथंबलम’ इस नाम से जाना जाता है। पुराने समय में ‘कुट्टु’ नामक नृत्यनाट्यशैली का प्रस्तुतीकरण यहाँ पर किया जाता था।

ब्राह्ममुहूर्त पर की जानेवाली उपासना को सबसे उत्तम माना जाता है और इस वदक्कुंनाथन मन्दिर के द्वार तो प्रातः तीन बजे से ही भाविकों के लिए खुल जाते हैं।

मल्याळम् वर्षगणना के अनुसार ‘मेडम’ का यानि कि वैशाख मास का प्रारम्भ हो जाते ही सारे त्रिचूरवासियों को इंतज़ार रहता है, ‘पूरम’ का। पिछले लेख से अबतक कईं बार हमने ‘पूरम’ यह नाम पढ़ा है। आइए, तो अब इस ‘पूरम’ के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

साधारण रूप से अप्रैल-मई में त्रिचुर के वदक्कुंनाथन मन्दिर के ‘थेक्कीनकाड’ मैदान पर यह ‘पूरम’ उत्सव प्रतिवर्ष मनाया जाता है।

लगभग ३६ घण्टों तक चलनेवाले इस उत्सव का प्रमुख आकर्षण रहता है, गहनों से सजाये गये हाथी और भव्य रूप में की जानेवाली आतिशबा़जी। पटाख़ों की यह आतिशबा़जी जिस तरह देखनेवालों को चकाचौंध कर देती है, उसी तरह गहनों से सजाये गये बड़े बड़े हाथियों को देखकर देखनेवाले दंग रह जाते हैं।

सकथन थंपुरन इस कोचीन के राजा ने और त्रिचूर की पुनर्रचना करनेवाले राजा ने १८ वीं सदी के अन्त में इस उत्सव की शुरुआत की। इस पूरम उत्सव में थिरुवंबादि और परमेक्कवु यहाँ के मन्दिर के देवता भी शोभायात्रा के साथ सम्मीलित होते हैं।

इस उत्सव का एक प्रमुख अंग है, पटाख़ों की आतिशबा़जी और दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग है, इस पूरम उत्सव में शामिल होनेवाले लगभग ३० हाथी। ऊपर उल्लेखित दोनों मन्दिरों द्वारा इन हाथियों को इस उत्सव में सम्मीलित किया जाता है। हर मन्दिर की ओर से १५ हाथी, इस तरह कुल ३० हाथियों को एकसाथ इस ‘थेक्किनकाड मैदान’ पर शानदार रूप से लाया जाता है। इन हाथियों को उनके बदन पर, उनकी सूँड़ पर तरह तरह के गहने पहनाकर, उनके माथे पर शानदार छत्र पकड़कर लाया जाता है। मानो, कौनसा हाथी सबसे सुन्दर दिखता है, ऐसी प्रतियोगिता ही हो।

हाथी यह सबसे विशाल प्राणि है और दक्षिणी भारत में तो यह निश्चित रूप से दिखायी देता ही है। दक्षिणी भारत में, विशेष रूप से केरल के मन्दिरों में हाथियों को पालने की प्राचीन परम्परा रही है। जिन जिन मन्दिरों के पास ऐसे हाथी होते हैं, वे उन हाथियों की देखभाल से लेकर उन्हें प्रशिक्षित करने तक की विशेष व्यवस्था करते हैं। इसका उत्तम उदाहरण है, त्रिचूर के पास में ही स्थित ‘गुरुवायूर मन्दिर’ के हाथी और उनके लिए की गयी ‘पुन्नथुरकोट्ट’ या ‘अनाकोट्ट’ इस नाम से जानी जानेवाली विशेष व्यवस्था।

बुद्धि के देवता गणेशजी का मुख ही हाथी का है। इसी कारण मनुष्य के मन में हमेशा ही हाथी के प्रति आकर्षण, प्रेम और कुतूहल की भावना रही है और इसी में से हाथियों को पालने की संकल्पना का उदय हुआ। परिणामस्वरूप हाथी यह मनुष्य के सामर्थ्य का, वैभव का प्रतीक माना जाने लगा।

केरल के बहुतांश मन्दिरों के उत्सवों में गहनों से सजाया हुआ कम से कम एक हाथी तो दिखायी देता ही है। बहुत बार जिस देवता का उत्सव मनाया जा रहा हो, उस देवता को हाथी पर विराजमान कर शोभायात्रा निकाली जाती है।

इन हाथियों को सजाने के लिए जिन गहनों का निर्माण किया जाता है, वे सोने या चाँदी से बनाये जाते हैं अथवा कम से कम उन गहनों को सोने का मुलम्मा किया जाता है। मन्दिर के इन हाथियों के गले में बड़ी बड़ी मालाएँ पहनायी जाती हैं, घण्टाएँ बाँधी जाती हैं, पीठ पर झूल, सूँड़ पर बड़ा गहना और माथे पर छत्र तथा शरीर पर अन्य आभूषण, इस तरह उन्हें सजाया जाता है। पूरम उत्सव में सम्मीलित होनेवाले हाथियों को भी इसी तरह सजाया जाता है।

इस पूरम उत्सव का एक और अविभाज्य अंग है, इस सम्पूर्ण उत्सव के दौरान बजाये जानेवाले विभिन्न प्रकार के वाद्य।

किसी भी शुभ अवसर पर या मंगल प्रसंग में कम से कम शहनाई की गूँज तो सुनायी देनी ही चाहिए। विवाह के समय शहनाई-चौघड़ा अवश्य दिखायी देता है। संक्षेप में, किसी सुन्दर दृश्य को देखकर जिस तरह मनुष्य की आँखे तृप्त हो जाती हैं, उसी तरह नादमधुर पवित्र सुरों को सुनकर उसके कान भी तृप्त हो जाते हैं।

इस ‘पूरम’ उत्सव में केरल के विशिष्ट वाद्यों को एकसाथ बजाया जाता है। इस पूरे उत्सवकाल में किये जानेवाले वाद्यवादन को ‘मेलम्’ कहा जाता है। यह केरल की ख़ास वाद्यवादन शैली है।

इस मेलम् के दो प्रकार होते हैं। पहला है ‘पंडी मेलम्’ और दूसरा है ‘पंचारी मेलम्’।

‘पंडी मेलम्’ में विशिष्ट वाद्यों को एकसाथ बजाया जाता है, लेकिन इन वाद्यों को साधारण तौर पर मन्दिर के बाहर बजाया जाता है।

वहीं ‘पंचारी मेलम्’ में भी इसी तरह विशिष्ट वाद्यों को एकत्रित रूप में बजाया जाता है, लेकिन उन्हें मन्दिर के भीतर बजाया जाता है।

इस पूरम उत्सव की एक और ख़ास बात है, पंचवाद्यों का वादन।

इन पंचवाद्यों में पाँच वाद्यों को एकत्रित रूप में बजाया जाता है। इस पंचवाद्यवादन की कला का उदय प्रमुख रूप से केरल के मन्दिरों में हुआ, ऐसा कहा जाता है।

पंचवाद्यों में तिमिल, मद्दलम, इलथलम, इडक्क और कोम्बु इनका समावेश होता है। इनमें से तिमिल यह रेत की घड़ी के आकार का, कटहल के पेड़ की लकड़ी से बनाया गया चर्मवाद्य है। मद्दलम् यह भी एक चर्मवाद्य ही है। इलथलम यह झाँज के जैसा धातुवाद्य है और इडक्क यह डमरु जैसा वाद्य है। अन्तिम पाँचवा वाद्य है कोम्बु, जो नरसिंघे जैसा एक वाद्य है। इस वर्णन से साधारण तौर पर आप इन पंचवाद्यों के स्वरूप को समझ ही गये होंगे।

तो ऐसे पंचवाद्यों का वादन यह पूरम उत्सव का एक अविभाज्य अंग है। जिस तरह नृत्यशैली का जन्म और विकास मन्दिरों में हुआ, उसी तरह ऊपर उल्लेखित पंडी मेलम् , पंचारी मेलम् इन वादनविधियों का और पंचवाद्यो का जन्म तथा विकास भी केरल के मन्दिरों में हुआ। आज इस वादनशैली का उपयोग मन्दिरों में नृत्य एवं उत्सवों के समय किया जा रहा है।

इस ‘पूरम’ उत्सव में पटाख़ों की आतिशबा़जी है, हाथियों का ठाट है और इन सबके साथ है, वाद्यों का वादन। फ़िर यक़ीनन मनुष्य की केवल पंच इन्द्रियाँ ही नहीं, बल्कि मन भी इस उत्सव में तृप्त और आनन्दित होता होगा। है ना!

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