मंगळूर भाग-७

‘यक्षगान’ के दर्शक की भूमिका में बैठे हुए हम ‘यक्षगान’ के अब तक के सफ़र में बिलकुल मग्न से हो गये। है ना! चलिए, तो फिर दर्शक की भूमिका में ही रहकर ‘यक्षगान’ का अगला सफ़र करते हैं।

समय के विभिन्न पड़ावों पर इस मानवीय सृष्टि में तरह तरह के परिवर्तन होते रहते हैं और उसके परिणाम मानवजीवन पर भी अवश्य होते हैं। उन्नीसवीं सदी में हुए सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तनों का असर ‘यक्षगान’ पर भी हुआ। इस अवधि में ‘यक्षगान’ का प्रस्तुतीकरण काफ़ी तेज़ी से आगे बढ रहा था और उसके जन्मस्थल के अलावा आसपास के इलाक़ों में भी वह फैल रहा था।

१९वीं सदी के पूर्वार्ध में वस्त्र उद्योग में हुए बदलाव के कारण अब यक्षगान के किरदार भी करघे पर बननेवाले वस्त्रों की जगह मशीन पर बनाये गये वस्त्र पहनने लगे। २०वीं सदी के मध्य में गाँवों में शामियानें बनाकर इसका प्रस्तुतीकरण किया जाने लगा। अध्ययनकर्ताओं के इस अध्ययन से हमें ‘यक्षगान’ में समय समय पर हुए परिवर्तन ज्ञात होते हैं।

उसके कुछ ही समय बाद ‘यक्षगान’ के अध्ययनकर्ताओं ने एक नयी कोशिश की। उनके द्वारा बनायी गयी नयी पद्धति के अनुसार रात से लेकर भोर तक चलनेवाले यानि कि लगभग ८-१० घण्टों तक चलनेवाले ‘यक्षगान’ को २-३ घण्टों में प्रस्तुत किया जाने लगा। इसी दौरान पश्‍चिमी संगीत भी भारत में दाखिल हो चुका था और उसका भी इस्तेमाल ‘यक्षगान’ में किया गया।

समय के विभिन्न पड़ावों पर नये नये परिवर्तनों के साथ ‘यक्षगान’ का यह सफ़र जारी था। सदियों पहले की यह नृत्य-नाट्य की परंपरा नये ज़माने के दर्शकों को भी आकर्षित कर अपने साथ जोड़कर रख रही थी।

यक्षगान’ की इस परंपरा की मोहिनी ही जनमानस पर कुछ इस क़दर थी और आज भी है कि विदेशों में निवास करनेवाले भारतीय भी स्वयं इस कला को सीखकर वहाँ पर विदेशों में भी इस कला को प्रस्तुत करते है। इससे हमारी समझ में यह आ जाता है कि यह जनपरंपरा न केवल यहाँ की मिट्टी में अपनी जड़ें मज़बूत कर चुकी है, बल्कि लोगों के मन की भूमि में भी इसने अपनी जड़े मज़बूत बना रखी हैं।

आज कर्नाटक में ‘यक्षगान’ को प्रस्तुत करनेवाले कई ग्रुप्स हैं। साधारणत: नवंबर से लेकर मई तक ये ग्रुप्स ‘यक्षगान’ को प्रस्तुत करते हैं और साथही कुछ ख़ास अवसरों पर भी इसे प्रस्तुत किया जाता है।

मंगळूर और उसके आसपास के इला़के में यक्षगान प्रस्तुत करनेवाले भागवतों की तथा वादकोंकी एक वैभवशाली परंपरा है। इस वैभवशाली परंपरा को जिस तरह गरिमापूर्ण अतीत है, उसी तरह वैभवशाली वर्तमान भी है।

अब इस वैभवशाली परंपरा का ट्रेनिंग भला कैसे दिया जाता होगा, इस बारे में शायद आप सोच रहे हैं। यक्षगान से मिली जानकारी यह बयान करती है कि यह नृत्य-नाट्य पद्धति मुख्य रूप में मन्दिरों से संबंधित थी और इसी वजह से इसके प्रशिक्षण की सुविधा मंदिरों के प्रांगणों में उपलब्ध करायी जाती थी। लेकिन आज इसका प्रशिक्षण कुछ संस्थाओंद्वारा दिया जाता है।

‘यक्षगान’ इस विषय में आज तक कई अनुसन्धानकर्ताओंने काफ़ी खोज की है और इसी वजह से इसके विभिन्न पहलुओं के बारे में काफ़ी जानकारी उपलब्ध है।

हालाँकि इस लोकनृत्य का आविष्कार आज हम दर्शकों को एक समानही प्रतीत होता हो, मग़र अनुसन्धानकर्ताओं की राय में इसके प्रस्तुतीकरण की शैली में कुछ बुनियादी फ़र्क़ अवश्य हैं और इसकी वजह है, वह जिन प्रदेशों में प्रस्तुत किया जाता था, वहाँ का प्रभाव। ‘यक्षगान’ का वर्गीकरण अध्ययनकर्ताओं ने प्रमुख दो प्रकारों में किया है।

इनमेंसे पहले प्रकार को ‘मूदलोपाय यक्षगान’ कहा जाता है। कर्नाटक के पूर्वीय मैदानी इला़के में एवं उत्तरी कर्नाटक में यह प्रचलित है। वहीं, दुसरा प्रकार है – ‘पदुव्लोपाय यक्षगान’। यह प्रचलित है, उत्तरी कन्नड़ा, कर्नाटक के दक्षिणी इला़के में और केरल के उत्तरी प्रदेश में।
‘पदुव्लोपाय यक्षगान’ के पुन: तीन प्रकार हैं। ‘तेन्कुटिट्टु’, ‘बड़गुटिट्टु’ और ‘बड़बड़गुटिट्टु’ या ‘उत्तर कन्नड़टिट्टु’।

उपरोक्त किये वर्णन के अनुसार यक्षगान के प्रस्तुतीकरण में प्रदेश के अनुसार जिस प्रकार विविधता है, वही फ़र्क़ इस ‘पदुव्लोपाय यक्षगान’ की तीन पद्धतियों में भी दिखायी देता है।

यह फ़र्क़ केवल कथा या प्रसंग के प्रस्तुतीकरण में दिखायी देता है, जिसे समझने के लिए खोजकर्ता की नज़र ही आवश्यक है।

तो ऐसी है यह ‘यक्षगान’ परम्परा, चण्डे और मद्दल का बजना शुरू हो जाते ही नृत्य और नाट्य की शुरुआत करनेवाली और भोर तक दर्शकों को एक अलग ही दुनिया में ले जानेवाली।

लेकिन अब भी ‘यक्षगान’ परंपरा का हमारा सफ़र ख़त्म नहीं हुआ है।

‘यक्षगान’ के बारे में जानकारी प्राप्त करते हुए कुछ अन्य सांस्कृतिक पहलू भी सामने आ गये, जिनका यक्षगान से क़रीबी रिश्ता है।

कठपुतली का खेल। आपने शायद देखा न हों, लेकिन इसके बारे में आपको जानकारी तो अवश्य ही रहेगी। इसमें लकड़ी से या कपड़े से गुड़ियों को बनाया जाता है। स्त्री-पुरुष, छोटे-बड़े, इन्सान-जानवर आदि सभी किरदार बनाये जाते हैं। फिर इन गुड़ियों को रस्सियों या तारों के साथ बाँधते हैं और उनके ज़रिये उन किरदारों को नचाकर किसी कहानी को दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जाता है। सूत्रधार, उनकी ऊँचाई से कम ऊँचाईवाले परदे के पीछे खड़े रहकर गुड़ियों को नचाते हैं। किरदारों के संवाद (डायलॉग्ज़) या तो वे खुद कहते हैं या किसी और से बुलवाते हैं। कभी कभी कुछ वादक भी साथ में रहते हैं। दर्शक उनके सामने के परदे पर गुड़ियों के ज़रिये प्रस्तुत की जा रही कहानी का आनन्द लेते हैं।

इस विस्तृत जानकारी को देने के पीछे का उद्देश्य यही है कि किसी ज़माने में यक्षगान भी इस पद्धति से भी प्रस्तुत किया जाता था, ऐसी अध्ययनकर्ताओं की राय है। इन गुड़ियों को अँग्रेजी में ‘पपेट’ कहा जाता है। अब हम भी हमारी सुविधा की दृष्टी से इन्हें ‘पपेट’ ही कहेंगे।

कहा जाता है कि दक्षिणी कन्नड़ा के कुछ इलाक़ों में किसी ज़माने में इस तरह की ‘यक्षगान पपेट्स्’ काफ़ी मशहूर थीं। साधारणत: १९१० से लेकर १९१५ के बीच की अवधि की यह बात है।

जिस पद्धति से यक्षगान को प्रस्तुत किया जाता था, उसी पद्धति से पपेट्स् के द्वारा ‘यक्षगान’ प्रस्तुत किया जाता था। १८इंच की ऊँचाई की पपेट्स् की पोशा़कें भी यक्षगान के किरदारों की तरह ही रहती थी। भारी वस्त्र, चमकते हुए मुकुट इन पपेट्स् को पहनाये जाते थे और उनके चेहरे भी रंगे जाते थे। मनुष्यों की तरह हूबहू इन पपेट्स् को भी तैयार किया जाता था। इन पपेट्स् के माध्यम से यक्षगान प्रस्तुत करनेवाले लगभग ३० ग्रुप्स उस समय दक्षिणी कन्नड़ा में थे, ऐसी जानकारी मिलती है।

यक्षगान के प्रस्तुतीकरण में यदि किरदारों की भारी पोशाक़ों को, चेहरे पर किये जानेवाले मेकअप को न किया जाये और उन किरदारों को कोई भी अ‍ॅक्टिंग न करते हुए एक जगह बैठकर अपने डायलॉग्ज़ और गीत कहने के लिए कहा जाये, तो क्या होगा?

इसी सवाल का जवाब कुछ अध्ययनकर्ताओं ने दिया – ‘तालमद्दले’। अध्ययनकर्ताओं की राय में ‘तालमद्दले’ यह यक्षगान परंपरा का ही एक प्रकार है। इसमें चेंड़ा और मद्दले के साथ बिना किसी पोशाक़ या मेकअप के बैठकर किसी कथा या घटना का प्रस्तुतीकरण किया जाता है।

कुछ खोजकर्ताओं की राय में शायद यह बिना ड्रेस और मेकअप के द्वारा की जानेवाली यक्षगान की रिहर्सल रहेगी, जो आगे चलकर एक परंपरा के रूप में उदीत हुई। वहीं कुछ अध्ययनकर्ता कहते हैं कि शायद पहले यह नृत्य-नाट्य के बिना सिर्फ़ किरदारों का, पोशा़कें पहनकर किया जानेवाला प्रस्तुतीकरण का एक प्रकार होगा।

सारांश, किसी कथा या घटना को नृत्य-नाट्य और अ‍ॅक्टिंग के बिना महज़ डायलॉग्ज़ के जरिये जीवित करना, यही ‘तालमद्दले’ का स्वरूप है।
दर असल मंगळूर के आसपास के किसान मनोरंजन के लिए, उनका गुज़ारा जिनसे होता है, उन्हीं साधनों का उपयोग किस तरह करते हैं यह देखने हम निकले तो थे, लेकिन मनोरंजन के सम्राट रहनेवाले यक्षगान की परंपरा ने हमारा ध्यान आकर्षित कर लिया और हम उसे देखने चले गये।

इस इला़के के खेतों में दिसंबर से लेकर मार्च तक की अवधी में भैंसों की प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। किसान अपनी अपनी भैंस को खेतों में से दौड़ाते हैं और जीतनेवाले को इनाम भी दिया जाता है। इस खेल को यहाँ ‘कंबाला’ कहते हैं।

पुराने समय में इसके ‘पूकेरे कंबाला’ और ‘बले कंबाला’ ये दो परंपरागत प्रकार थे। इनमें से ‘बले कंबाला’ तो लगभग नौं सो वर्ष पहले ही बंद हो गया, ऐसा कहा जाता है।

मंगळूर के इस सफ़र में कभी यक्षगान के दर्शक बनकर हमने यक्षगान का आनन्द लिया, तो कभी मंगळूर के समुद्री तट पर सैलानी बनकर घूमने का लु़फ़्त उठाया। हरे भरे पेड़ों में से दिखायी देनेवाले घरों पर स्थित मंगळूर के उन मशहूर खपरों को भी देखाऔर मुख्य रूप से यहाँ की संस्कृति से भी परिचित हुए। अब यहाँ से प्रस्थान करने से पहले मंगळूर को एक बार ‘बाय’ करके अगले सफ़र के लिए रवाना होते हैं।

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