मंगळूर भाग-२

आदिम जमाने का मनुष्य जैसे जैसे विकास करने लगा, उसी के साथ साथ सुरक्षा की दृष्टी से यानि कि धूप, तेज, हवा, बरसात, ठंड और तरह तरह के खूँख़ार जानवरों से बचने के लिए उसने घर बनाकर उसमें रहना शुरु किया। चार दीवारें और ऊपर छत स्वरूप के उसके घर में फिर वक्त के साथ साथ कई परीवर्तन होते गये। अब छत को इस तरह बनाना जरूरी था की सूर्य की किरणों की तीव्रता से बचा जाये, बारीश का जल घर में न घुस पाये और तेज हवाओं से वह छत उड़ न जाये। इस वजह से इन्सान ने तरह तरह की तरकिबों का इस्तेमाल करके छत बनाना शुरू कर दिया।

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में मंगळूर आये किसी ‘प्लेबोट’ नाम के जर्मन मिशनरी ने जब गुरूपुर और नेत्रावती नदी के तट पर स्थित मिट्टी देखी, तब उसे एक अनोखी तरकीब सूझी। इसी में से मंगळूर में बना पहला ‘मंगळूरी’ या ‘मंगलोरी खपरा’। इन खपरों का निर्माण होने से मनुष्यों के छत की समस्या काफ़ी हद तक हल हो गयी।

अंदाजन १८६० में ‘प्लेबोट’ नाम के जर्मन मिशनरी ने मंगळूर में खपरों का निर्माण करने का पहला कारखाना (फॅक्ट्री) शुरू कर दिया। यह थी मंगळूरी खपरों की जन्मकथा।

इन मंगळूरी खपरों का निर्माण जिस मिट्टी से किया जाता है उसे ‘लॅटराईट’ कहा जाता है। इस तरह की मिट्टी में लोहा और अ‍ॅल्युमिनियम का प्रमाण अधिक रहता है और भाप एवं उष्मा का प्रमाण जहाँ ज्यादा रहता है, वहाँ इस तरह की मिट्टी पायी जाती है। इस मिट्टी में पाये जानेवाले खनिजों (मिनरल्स) के कारण इस का रंग लाल रहता है। इतिहास कहता है की पुराने समय से इस तरह की मिट्टी से विभिन्न प्रकार की वस्तुओं एवं सडकों का निर्माण किया जाता रहा है।

तो ऐसी इस मिट्टी से ‘बेसल मिशन’ नाम की फॅक्ट्री में पहला मंगळूरी खपरा बनाया गया और इस फॅक्ट्री की शुरुआत की थी प्लेबोट नाम के जर्मन मिशनरी ने।

ये खपरें दिखने में भी अच्छे रहते हैं और मुख्य रूप से धूप, बारीश और तेज हवाओं से घर को सुरक्षित भी रखते है। इसी वजह से लोगों ने उन्हे पसंद किया और घर की छतों का निर्माण इन खपरों से किया जाने लगा। कड़ी धूप में खपरों से बनी छत के नीचे ठंडक मिलती है और बरसात का पानी भी इनपर जमा नहीं होता। इसीलिए हमारे भारतवर्ष में, जहाँ बरसात ज्यादा और धूप कडी होती है, वहाँ अल्प अवधि में ही ये खपरें मशहूर हो गयी। आगे चलकर कुछ खास खपरों का निर्माण किया गया, जिन्हें रसोईघर पर लगाया गया। इन खपरों में से धुआँ, भाप बाहर निकलने के लिए जगह भी बनायी गयीथी।

देखते देखते मंगळूर में खपरों का उद्योग विकसित हो गया। १८६८ में यहाँ खपरों का एक और कारख़ाना शुरू हो गया और आगे चलकर कारख़ानों की संख्या में वृद्धि होती गयी।

सिर्फ़ भारतवर्ष में ही नहीं, बल्कि दुनियाभर से इन खपरों की माँग बढती गयी। भारत के अलावा म्यानमार, श्रीलंका और अतिपूर्वीय देशों में ये खपरें मशहूर थे ही, साथ ही युरोप, पूर्वी अफ्रिका, ऑस्ट्रेलिया और मध्यपूर्वीय देशों में भी इन्हें भेजा जाता था।

१९०० में मंगळूर में खपरों का निर्माण करनेवाले २५ कारख़ाने थे और १९९४ के आसपास इनकी संख्या ७५ तक पहुँच गयी।

अँग्रेज़ो के ज़माने में भारत में बनायी गयी कई वास्तुओं के छत इन्हीं खपरों से बनाये गये। आज जिन्हें ‘हेरिटेज वास्तुओं’ का दर्जा दिया गया है, उनमें से कई वास्तुओं के लंबी चौड़ी छतों पर लाल रंग के ये खपरें यक़ीनन दिखायी देते हैं।

इन खपरों के निर्माण की शुरुआत होती है, ऊपरोक्त मिट्टी को इकट्ठा करने से। फिर इस मिट्टी पर आवश्यक प्रक्रिया करके उसे खपरों के आकार के साँचे में डाला जाता है। साँचे में से बाहर निकालने पर वह मिट्टी खपरे के आकार में ढ़ल जाती है। फिर पुन: उसपर आवश्यक प्रक्रियाएँ करने के बाद उसे भट्टी में पकाया जाता है और अन्त में उसे ग्लेझिंग करने भेजा जाता है। इस वजह से उस खपरे में एक तरह की चमक आ जाती है। इस तरह इस मिट्टी से खपरों का निर्माण किया जाता है।

दर असल ये खपरें ‘इको फ्रेंडली’ हैं। लेकिन बीच के एक समय में सीमेंट काँक्रीट से घर बनाये जाने लगे और छतों के लिए इन खपरों की ज़रूरत नहीं रही। मग़र तब भी कई गाँवों में कुछ घरों पर आज भी हम इन्हें देख सकते हैं। लेकिन बदलते व़क़्त का असर खपरों का निर्माण करनेवाले उद्योग पर अवश्य हुआ। अब ‘इको फ्रेंडली’ वस्तुओं का इस्तेमाल करने की ओर मनुष्य का रुझान बढने लगा है और इन खपरों की ख़ासियत को देखते हुए इनकी माँग बढ़ने लगी है। तो यह था इन मंगलोरी खपरों का सफ़र। अब इतने लंबे सफ़र के बाद, दर असल शब्दमय सफ़र के बाद थोड़ा बहुत विश्राम करना ज़रूरी है। चलिए, तो इस शहर के मुख्य आराध्य के दर्शन करते हैं और वहीं पर घड़ी दो घड़ी विश्राम भी करते हैं।

मंगलादेवी’ इस प्रमुख देवता के नाम से इस शहर का नाम ‘मंगळूर’ हो गया यह हम गत लेख में देख चुके हैं। इस स्थानीय देवता के संदर्भ में कुछ लोककथाएँ, आख्यायिकाएँ प्रचलित हैं।

तो देवी माँ के दर्शन करने से पहले विश्राम करते करते हम इन लोककथाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

एक लोककथा हमें ले जाती है, बहुत पुराने समय में। विकाशिनी नाम की एक राक्षसी थी। यह विकाशिनी राक्षसी हिरण्याक्ष की कन्या थी। हिरण्याक्ष का वध विष्णुजीने किया और इसी वजह से इस राक्षसीने अपने पिता के वध का बदला लेने की ठान ली। इसी उद्देश से उसने तपस्या की और वरदान प्राप्त कर लिया। इस वर के कारण उसे अंधकासुर नाम के पुत्र की प्राप्ती हुई। इस अंधकासुरने हिरण्याक्षके वध का प्रतिशोध लेने के लिए विष्णुजी को ललकारा। आख़िर देवी माँ ने अवतरित होकर सागर में अंधकासुर का वध कर दिया।

उसके बाद कई युग बीत गये। परशुरामजी अवतरित हुए थे, तब उन्होंने परशु का प्रहार करके सागर में से भूमि का हिस्सा अलग कर दिया। इसी भूमि में परशुरामजी तपस्या कर रहे थे। परशुरामजी जहाँ तपस्या कर रहे थे, वहीं पर देवीमाता ने अंधकासुर का वध किया था। फिर वहाँ पर एक देवालय का निर्माण किया गया।

इस घटना के बाद सदियाँ बीत गयी और देवीमाता का यह मंदिर विस्मृति के परदे के पीछे चला गया। एक लोककथा के अनुसार कहा जाता है कि जब तुळुनाडु पर बंगराजा नाम के राजा राज कर रहे थे, तब देवीमाता ने बंगराजा के सपने में जाकर मंदिर के स्थान के बारे में बताया। फिर राजा ने वहाँ पर मंदिर का पुनर्निर्माण किया और वह मंदिर ‘मंगलादेवी’ के मंदिर के नाम से जाना जाने लगा।

आगे चलकर अलुप राजवंश के कुंदवर्मा नाम के राजा ने मत्स्येन्द्रनाथजी और गोरक्षनाथजी के मार्गदर्शन के अनुसार पुन: एक बार ‘मंगलादेवी’ के मंदिर का पुनर्निमाण किया।

‘मंगलादेवी’ के बारे में एक और लोककथा भी प्रचलित है। उस व़क़्त इस प्रदेश में एवं इसके आसपास के इला़के में भी नाथसंप्रदाय का प्रसार हो चुका था। केरल प्रदेश के एक राज्य की राजकन्या थी, जिसका नाम था- ‘परिमला’ या ‘प्रेमलादेवी’। उसने नाथपंथ का स्वीकार किया और उस संप्रदाय की पद्धति के अनुसार वह अपना जीवन व्यतीत करने लगी। इस प्रवास में उसका नाम रखा गया, ‘मंगलादेवी’। अपना सारा जीवन नाथसंप्रदाय की सीख के अनुसार व्यतीत करनेवाली इस ‘मंगलादेवी’ के निर्वाण के पश्‍चात् उसके सम्मान में एक मंदिर का निर्माण किया गया। यह मंदिर ‘बोलार’ में था। आगे चलकर इस मंदिर के नाम से ही इस शहर का नाम ‘मंगळूर’ हो गया। इस लोककथा से मंगळूर के नाम का सफ़र ज्ञात होता है।

अब लोककथाओं की सत्य-असत्यता के बारे में कहना तो काफ़ी मुश्किल है, लेकिन ये लोककथाएँ जनमानस में अपनी जड़ें इतनी मज़बूत कर चुकी होती हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी वे बतायी जाती हैं।

मंगळूर के संदर्भ में रहनेवाली लोककथाएँ भी इसी तरह पीढ़ी दर पीढ़ी कही-सुनी जा रही हैं।

लेकिन इन लोककथाओं से यह बात साफ़ हो जाती है कि इस प्रदेश का अस्तित्व बहुत ही प्राचीन समय से है। कई विदेशी व्यापारीयों या सैलानियोंद्वारा लिखे गये सफ़रनामों से पहले भी यह प्रदेश अस्तित्व में था।

इतिहास कहता है कि रामायण काल में भी यहाँ पर राज्य हुआ करता था। महाभारत में भी पाँच पांडवों में से एक रहनेवाले सहदेव ने यहाँ पर शासन किया था। उस समय अर्जुन भी यहाँ आया था ऐसा भी कहा जाता है। गोकर्ण इस तीर्थस्थल से निकला हुआ अर्जुन कहीं जा रहा था और रास्ते में वह यहाँ भी पधारा था ऐसा कहा जाता है।

देखिए, मंगळूर शहर के ‘मंगळूर’ इस नाम का अध्ययन करते करते हम मंगळूर के इतिहास तक आ पहुँचे। चलिए, तो फिर मंगलादेवी के दर्शन करने से पहले हम इस शहर के संपूर्ण इतिहास की जानकारी प्राप्त करते हैं। अतीत के इस सफ़र को पुरा करने के बाद ही हम इस शहर के प्रमुख देवता के दर्शन करेंगे।

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