मंगळूर भाग-३

मंगळूर शहर का इतिहास रामायणकाल से भी जुड़ा है, यह हम गत लेख में देख ही चुके हैं। अब उसके बाद क्या हुआ इसे देखते हैं।

रामायणकाल के बाद महाभारतकाल में पाँच पांडवों में से सहदेव ने इस प्रदेश पर राज किया था, यह बात भी गत लेख में हम जान ही चुके हैं।
पुराणकथाओं के अनुसार मंगळूर शहर जहाँ बसा है, वह हिस्सा परशुरामजी ने समुद्र में से निर्माण की गयी ज़मीन का हिस्सा है। कई ऋषियों का भी यहाँ पर निवास रहा है, यह भी पुराणों में कहा गया है।

मंगळूर पर मौर्य, कदंब, अलुप इन राजघरानों के साथ चालुक्य, राष्ट्रकूट, होयसाल इन राजवंशों का भी राज रहा है। इन शासकों की सत्ता का अन्त हुआ, भारत पर हुए विदेशी आक्रमण के बाद।

इतिहास से यह जानकारी मिलती है कि इसापूर्व तीसरी सदी में यह शहर मौर्य राज्य का हिस्सा था और उस समय सम्राट अशोक मौर्य शासक थे। इसके बाद इतिहास में इस शहर के बारे में उल्लेख प्राप्त होता है, दूसरी सदी का। ‘कदंब’ नाम के राजवंश ने इसा की दूसरी सदी से लेकर छठी सदी तक यहाँ पर राज किया। उसके बाद एक बड़ी अवधि तक इस प्रदेश पर एक ही राजवंश की सत्ता अबाधित रूप में चलती रही।

छठी सदी के उत्तरार्ध से लेकर चौदहवीं सदी के पूर्वार्ध तक यहाँ पर ‘अलुप’ नाम के राजवंश का शासन रहा। इतिहास कहता है कि चौदहवीं सदी तक ‘मंगळूर’ यह शहर अलुप राजवंश की राजधानी था। इतने लंबे अरसे तक हालाँकि यहाँ पर अलुप राजवंश का शासन था, लेकिन उस वक़्त यह राजवंश दक्षिण में शासन करनेवाली प्रमुख राजसत्ता के नियुक्त किये गये अधिकारी के रूप में यहाँ पर सत्ता की बाग़डोर सँभाल रहा था। अब इतिहास से यह ज्ञात होता है कि दक्षिण के, ख़ास करके कर्नाटक के तटीय इला़के पर राज करनेवाला ‘अलुप’ यह एक राजवंश था। इस तटीय इला़के पर इस राजवंश ने लगभग एक हज़ार वर्षों तक शासन किया। जब दक्षिणी भारत के तटीय प्रदेश पर अन्य राजसत्ताओं का प्रभाव बढ़ने लगा और वे प्रमुख सत्ताओं के रूप में उभरने लगी, तब इस राजवंश ने उन प्रमुख राजसत्ताओं के मांडलिकत्व को स्वीकार किया और इस प्रदेश का शासन अपने पास रखा। अलुप राजवंश स्वयं को पांड्यवंश एवं सोमकुल का मानता था। जब यह शहर अलुप राजवंश की राजधानी था, तब वह ‘मंगलापुर’ इस नाम से जाना जाता था।

इस दौरान मंगळूर का एक बंदरगाह के रूप में विस्तार होता रहा और वह मशहूर भी होने लगा। यहाँ से दुनिया के विभिन्न देशों में कई पदार्थों का व्यापार भी होता था और इस सिलसिले में देश-विदेश के कई व्यापारी भी यहाँ आते जाते रहते थे।

उस वक़्त के इस बंदरगाह के बारे में जानकारी मिलती है, वह यहाँ आनेवाले व्यापारियों एवं सैलानियों द्वारा लिखे गये सफ़रनामों से।

इस प्रदेश पर जब विजयनगर का शासन था, तब यहाँ पर राज करनेवाले दो राजाओं के नाम कुछ शिलालेखों द्वारा ज्ञात होते हैं। इन शिलालेखों में से मुद्राबिद्री का शिलालेख, ‘हरिहर-२ इन विजयनगर के सम्राट के शासनकाल में यहाँ पर राज करनेवाले राजा का नाम ‘मंगरस ओडेया’ यह था, यह कहता है; वहीं दूसरे शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि देवराय-२ के शासनकाल में यहाँ पर ‘देवराज ओडेया’ राज कर रहे थे।

चौदहवीं सदी तक यहाँ पर स्वकीय प्रमुख राजसत्ताओं ने कभी प्रत्यक्ष रूप में तो कभी उनके अधिकारियों द्वारा राज किया। लेकिन विदेशियों के आगमन के साथ साथ यह चित्र बदल गया।

वास्को-द-गामा के दक्षिण भारत में हुए आगमन के साथ साथ इस शहर एवं इला़के के इतिहास में एक नया मोड़ आ गया। व्यापार करने आये विदेशियों ने धीरे धीरे यहाँ पर अपनी जड़े मज़बूत करना शुरू कर दिया। शुरुआत में अपने ‘व्यापारी’ चेहरे को दिखानेवाले विदेशियों ने धीरे धीरे यहाँ के व्यापार पर अपना शासन स्थापित करने के उद्देश्य से यहाँ की ज़मीन पर अपना राज्य स्थापित करने की दिशा में कदम बढ़ाएँ। उनके इस पैंतरे से यहाँ के शासकों के साथ उनका संघर्ष शुरू हो गया।

इन विदेशियों में से कइयों के पास यहाँ के स्थानीय शासकों के मुक़ाबले आधुनिक शस्त्रसामग्री थी और शायद यही प्रमुख वजह थी, उनकी यहाँ पर हुकूमत स्थापित होने की।

विदेशियों ने यहाँ आते ही यहाँ के व्यापार पर अपनी पकड़ मज़बूत कर ली और उसके बाद इस इला़के पर कब्ज़ा करने की दिशा में अपने कदम बढ़ाएँ।

साधारण रूप से सोलहवीं सदी के मध्य में इस शहर के आसपास के इलाक़ों से लोग आकर यहाँ बसने लगे और इसी प्रक्रिया में इस शहर की विभिन्न रंगों में रंगी संस्कृति का जन्म हुआ।

वास्को-द-गामा के बाद यहाँ आये विदेशियों ने यहाँ के व्यापार के साथ साथ इस इला़के पर भी कब्ज़ा कर लिया। उनसे इस इला़के को पुन: जीतने में केलाडी नायक राजवंश १७वीं सदी के मध्य में क़ामयाब रहा।

मंगळूर को जीतने के बाद अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध तक केलाडी नायक राजाओं ने यहाँ पर राज किया।

मंगळूर के इतिहास में एक घटना का ज़िक्र किया गया है, जब इस शहर को एक मानवनिर्मित आपदा का सामना करना पड़ा और इस आपत्ति की वजह थी, यहाँ व्यापार करनेवाले दो विदेशी लोगों के ग्रुप्स। उनमें से एक विदेशी ग्रुप ने अन्य विदेशी ग्रुप द्वारा यहाँ से किये जा रहे व्यापार पर कुछ पाबंदियाँ लगा दी। इससे वह विदेशी ग्रुप खौल उठा और उस गुट ने जो कदम उठाया, उसके परिणाम इस शहर को भुगतने पड़े।

उस वक़्त दक्षिण में म्हैसूर राज्य बन रहा था। इस राज्य के शासक रहनेवाले हैदरअली ने मंगळूर पर सत्ता स्थापित कर दी और उसके बाद कुछ अरसे तक मंगळूर पर म्हैसूर राज्य का अधिकार रहा।

अँग्रेज़ों के आने के साथ साथ मंगळूर पर रही म्हैसूर की सत्ता समाप्त हो गयी। ईस्ट इंडिया कंपनी के आड़े भारत में दाखिल हो चुके अँग्रेज़ों ने मंगळूर पर भी अपनी सत्ता स्थापित कर दी।

अँग्रेज़ों की ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता हालाँकि यहाँ स्थापित हो चुकी थी, मग़र फिर भी इस इला़के को पुन: जीतने के लिए स्वदेसियों की, ख़ास करके म्हैसूर राज्य के शासकों की कोशिशें जारी ही थी। इसी वजह से कई बार अँग्रेज़ और म्हैसूर राज्य के शासकों के बीच जंग भी छिड़ गयी थी।

अठारहवीं सदी के अन्त में ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता को उखाड़ने की म्हैसूर के शासकों की कोशिशें सफल हो गयीं। लेकिन उसके बाद कुछ ही अरसे तक वे यहाँ के शासक रहे।

इस दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी के मुखौटे को बदलकर अँग्रेज़ों ने अपना असली चेहरा दिखा दिया था। म्हैसूर राज्य और अँग्रेज़ों के बीच मंगळूर में एक सुलह भी हुआ था।

आख़िर अँग्रेज़ों ने मंगळूर पर अपनी सत्ता स्थापित कर ही दी और यही से अँग्रेज़ी हुकूमत यहाँ पर तब तक रही, जब तक भारत आज़ाद नहीं हुआ।

अँग्रेंज़ो के ज़माने में भी यह मंगळूर शहर कॅनरा यानि कि कन्नड़ा जिले का मुख्यालय था, लेकिन वह मद्रास प्रेसिडन्सी के अधिपत्य में था।
भारत को आज़ादी मिलने के बाद कर्नाटक राज्य जब बनाया गया, तब मंगळूर को कर्नाटक राज्य में शामिल कर दिया गया।

यह था रामायणकाल से लेकर आजतक के मंगळूर का सफ़र। वक़्त के विभिन्न पड़ावों पर इस शहर ने विभिन्न शासकों के शासन को देखा। साथ ही समय के साथ साथ इस शहर का बंदरगाह भी विकसित होता गया।

मंगळूर शहर की अर्थव्यवस्था में यहाँ के बंदरगाह की अहम भूमिका रही है।

पुराने समय में इस बंदरगाह से मसालों, हलदी, चावल का व्यापार होता था। आज भी यह एक प्रमुख व्यापारी बंदरगाह माना जाता है।

जहाज़ों को बनाना और मछली पकड़ना ये मंगळूर शहर के कई पीढ़ियों से चल रहे दो प्रमुख व्यवसाय है। अब यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि इन व्यवसायों के विकास में यहाँ के बंदरगाह का सबसे अहम योगदान रहा है।

जिनके नाम में ही ‘मंगल’ है, वे हैं मंगळूर की स्थानीय देवी। मंगळूर के ‘बोलार’ इला़के में रहनेवाला ‘मंगलादेवी’ का मन्दिर बस उसे देखते ही देखनेवाले के मन में प्रसन्नता उत्पन्न करता है।

नौवीं सदी में इस मन्दिर का निर्माण किया गया, ऐसा कहा जाता है। मंगलादेवी के संदर्भ में प्रचलित लोककथाओं को हम गत लेख में देख ही चुके हैं।

जिसे देखते ही देखनेवाले का मन खुशी से भर जाता है, वह मन्दिर, जब वहाँ पर विभिन्न उत्सव मनाये जाते हैं, तब कितना सुन्दर दिखायी देता होगा!

मन्दिर के गर्भगृह में आयुधधारी एवं वरदहस्त स्वरूप में मंगलादेवी विराजमान हैं। इन देवी के नाम के अनुसार ही उनके महज़ दर्शन करने से जीवन में सब कुछ मंगलमय हो जाता है, ऐसी श्रद्धालुओं की धारणा है।

देवीमाता के प्रमुख उत्सवों में से एक है, नवरात्रि का उत्सव इस मन्दिर में नवरात्रि के सातवें, आठवें और नौवें दिन देवीमाता की विशेष नाम से आराधना की जाती है और साथ ही नवरात्रि के अन्तिम दिन यहाँ पर एक ख़ास बात होती है। वह क्या है, यह देखेंगे, अगले लेख में।

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