मंगळूर भाग-१

जून का महीना आ भी गया। हमारे भारत में जून के आ जाते ही दक्षिण से लेकर उत्तर तक सभी राह देखते हैं, बरसात की, मानसून की। पहले दक्षिण में कदम रखनेवाले मानसून के उत्तर भारत तक पहुँचने में हालाँकि कुछ दिन तो अवश्य लग ही जाते हैं, मग़र तब भी सारे भारतवासी मानसून की प्रतीक्षा करते रहते हैं।

पुराने ज़माने में जब घर छोटे रहते थे, तब बरसात के आने से पहले घरों की मरम्मत करने में सभी जुट जाते थे। घर के खपरों को भी बदला जाता था। दर असल मूलत: लाल रंग के रहनेवाले इने खपरों का रंगरूप, उस घर के छत पर सालों से रहेने के कारण बिलकुल बदल चुका होता था। फिर किसी दिन उन पुराने खपरों को बदलकर नये मंगलोरी या मंगळूरी खपरों को लगाया जाता था।

मंगळूर या मंगलोर यह नाम उस ज़माने में इन खपरों के संदर्भ में काफ़ी प्रचलित था; लेकिन मंगळूर यह एक शहर है और वहाँ पर इन खपरों का निर्माण किया जाता है, इस बात की जानकारी कम ही रहती थी।

चलिए, तो फिर इन खपरों के लिए मशहूर रहनेवाले इस शहर का परिचय कर लेते हैं और उसके लिए इस शहर की सैर करते हैं।

‘मंगळूर’ इस शहर के नाम का उच्चारण ‘मंगलोर’ या ‘मँगलोर’ इस तरह से भी किया जाता है।

आज ‘मंगळूर’ यह शहर कर्नाटक राज्य का एक महत्त्वपूर्ण शहर भी है और बंदरगाह भी। अब बंदरगाह होने के कारण सागर का साथ रहना यह तो स्वाभाविक ही है। इस शहर के एक तरफ़ है, अरब सागर और दूसरी तरफ़ है, पश्‍चिमी घाटी। इस वजह से इस शहर पर कुदरत भी मेहरबान है।

विज्ञान-तन्त्रज्ञान की आधुनिक राह पर से आगे बढ़ रहे इस शहर ने अपना पुराना सुहावना रूप आज भी कई जगह बरक़रार रखा है। इसी वजह से इस शहर की सैर करते हुए हमें ऊँचीं इमारतें, आधुनिकता का साज़ पहनी हुई वास्तुएँ दिखायी देती हैं और साथ ही अचानक घने पेड़ों के बीच से गुज़रते हुए लाल रंग के खपरों की छत से बना एकाद घर भी दिखायी देता है।

आज यहाँ का बंदरगाह भी काफ़ी विकसित हो चुका है, मग़र साथ ही पुराने समय से सागरतट पर रहनेवाली नर्म रेत आज भी सैलानियों का मन मोह लेती है।

अब तक आपकी अन्तश्चक्षु के सामने मंगळूर की धूमिल सी छबि आ ही गयी होगी। है ना? चलिए तो इस छबि को अधिक साफ़ साफ़ देखने के लिए इस शहर की सैर करने निकलते हैं।

‘दक्षिण कन्नड़ा’ या ‘साऊथ कॅनरा’ इस नाम से जाने जानेवाले जिले का मुख्यालय यह शहर है।

इस शहर के ‘मंगळूर’ इस नाम के साथ कुछ कहानियाँ जुड़ी हैं। इस शहर में स्थित ‘मंगलादेवी’ नामक देवता के कारण इस शहर का नाम ‘मंगळूर’ हुआ, ऐसा कहा जाता है।

इस शहर का सबसे पुराना उल्लेख मिलता है, ‘चेट्टियन’ नाम के पांड्य राजा के समय में यानि कि आठवीं सदी में। उस व़क़्त इस शहर का नाम ‘मंगलापुरम्’ था, ऐसा कहा जाता है।

प्राचीन समय से यह शहर बंदरगाह के रूप में मशहूर था और इसी वजह से व्यापारियों का, मुसाफिरों का आना जाना भी यहाँ लगा रहता था। कई विदेशी सैलानियों के सफ़र-नामे में इस शहर का ज़िक्र किया गया है।

चौदहवीं सदी के ‘इब्न बतूत’ नाम के अरबी प्रवासी ने इस शहर का ज़िक्र ‘मंज़रूर’ इस नाम से किया है। ‘प्लिनी द एल्डर’ नाम के रोमन इतिहासकार ने इस शहर को ‘नित्रियास’ कहा है, वहीं ग्रीक इतिहासकार ‘टोलेमी’ ने इसका ज़िक्र ‘नित्र’ इस नाम से किया है। ‘कॉसमास इंडिकोप्लीस्टस्’ नाम के किसी ग्रीक धर्मगुरू ने इस बंदरगाह को ‘मंगरूथ’ कहा है।

सागर के निकट रहनेवाले इस बंदरगाह में आसपास के इला़के से कई लोग विभिन्न कारणवश आते रहे और गाँव से लेकर शहर तक का सफ़र इसी दौरान इस शहर ने तय किया। यहाँ की संस्कृति का उदय हुआ।

आज के मंगळूर में कई भाषाएँ बोली जाती हैं। तुळु, कोंकणी, कन्नड और बेरी इन प्रमुख भाषाओं के अलावा अन्य भारतीय भाषाएँ भी यहाँ बोली जाती हैं, लेकिन इन सबमें अधिक बोली जानेवाली भाषा है-‘तुळु’। कई भाषाओं का, बोलियों का नैहर होने के कारण विभिन्न भाषाओं में इस शहर को विभिन्न नामों से संबोधित किया जाता है।

तुळु भाषा में इस शहर को ‘कुद्ल’ कहते हैं, वहीं कोंकणी में इस शहर को ‘कोड़ियल’ कहते हैं, तो बेरी-भाषिक इसे ‘मैकल’ कहते हैं।

कुद्ल का अर्थ है- संगम। यह शहर ‘नेत्रावती’ और ‘गुरुपुर’ नदियों के संगम पर बसा है और इसी वजह से इसे कुद्ल यानि कि संगम कहा जाता है।

‘नेत्रावती’ का यानि कि नेत्रावती नदी का सान्निध्य होने के कारण शायद टोलेमी और प्लिनी द एल्डर जैसे इतिहासकारों ने इस शहर को ‘नित्र’ और ‘नित्रियास’ इन नामों से संबोधित किया होगा।

‘मैकल’ इस शब्द का अर्थ है-लकड़ी से बना कोयला। पुराने ज़माने में नेत्रावती नदी के तट पर लकड़ी से कोयला बनाया जाता था, ऐसा कहते हैं और इसी वजह से इसे ‘मैकल’ कहा जाता होगा।

‘टोलेमी’ यह इतिहासकार कुछ स्थानों पर इसका ज़िक्र ‘मगनूर’ कहकर भी करता है।

कुछ अध्ययनकर्ताओं की राय में ‘मंगळूर’ या ‘मंगलोर’ इस नाम का उद्गम ‘मंगलुरु’ इस मूल नाम में है। इस शहर के इतने सारे नाम होने के बावजूद भी अँग्रज़ों ने इसे ‘मँगलोर’ इस नाम से संबोधित करना शुरू कर दिया।

अब शहर के साथ हम थोड़ेबहुत परिचित तो हो ही चुके हैं। आइए, अब इस शहर के निकट रहनेवालीं दो नदियों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

नेत्रावती नदी को पुराने ज़माने में ‘बंटवाल नदी’ कहा जाता था। कर्नाटक में ही उद्गमित होनेवाली यह नदी कई पड़ावों से गुज़रने के बाद आख़िर मंगळूर तक आ जाती है। मंगळूर के पास स्थित अरब सागर में यह नेत्रावती नदी मिलती है, यह भूगोल से ज्ञात होता है।

मंगळूर शहर की दूसरी नदी है- ‘गुरुपुर’। इसे ही ‘फाल्गुनी’ या ‘कुलुर’ कहा जाता है। पश्‍चिमी घाटी में उद्गमित होनेवाली यह गुरुपुर नदी आख़िर मंगळूर में आकर अरब सागर में मिलती है।

तो इस तरह ये दो नदियाँ मंगळूर शहर का साथ देते हुए अरब सागर में स्वयं को विलीन करती हैं।

मंगळूर यह पुराने ज़माने से एक बंदरगाह के रूप में मशहूर था और आज भी इस बंदरगाह से कॉफी और काजू का व्यापार बहुत बड़े पैमाने पर किया जाता है।

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ही यहाँ पधारे ‘फ्रान्सिस बुचनान’ नाम के स्कॉटिश डॉक्टर इस बंदरगाह को एक वैभवशाली एवं चहलपहल वाला बंदरगाह कहते हैं। पुराने समय से यहाँ से चावल का व्यापार होता था और यहाँ से मुंबई, गोवा, मलबार से लेकर ठेंठ मस्कत तक चावल भेजा जाता था। दक्षिण भारत में मसालें, सुपारी और नारियल का उत्पाद बड़े पैमाने पर होता है और इसीलिए उनका व्यापार भी यहाँ से होना स्वाभाविक ही है। यहाँ से काली मिर्च और चंदन भी मुंबई भेजा जाता था। वहीं मुंबई, सुरत, कच्छ के साथ साथ मस्कत में भी यहाँ से हलदी भेजी जाती थी। सुपारी भी यहाँ से मुंबई, सुरत, कच्छ भेजी जाती थी। साथ ही नारियल के छिलके के रेशा से बनी रस्सी, अद्रक, इलायची, लोहा, शक्कर और लकड़ी जैसे विभिन्न पदार्थों का व्यापार भी यहाँ से होता था।

मंगळूर बंदरगाह जैसे जैसे विकसित होता गया, वैसे वैसे इस शहर का भी विकास होता रहा। कई उद्योगों की यहाँ शुरुआत हुई। इनमें से दो प्रमुख उद्योग थे- रुई धुनकना और खपरों का निर्माण करना। समय था उन्नीसवीं सदी का। ये खपरें यानि कि हम लेख की शुरुआत में जिनका ज़िक्र कर चुके हैं, वे मशहूर मंगलोरी या मंगळूरी खपरें। यह शहर ही इन खपरों का जन्मस्थल होने के कारण उनका नाम इस जन्मस्थान से ‘मंगलोरी खपरें’ ऐसा हो गया।

उद्योगों के विकास के साथ यहाँ की आबादी भी बढ़ती गयी। साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में भी विशेष प्रगति हुई। आज भी आसपास के इलाक़ों से अच्छी शिक्षा हासिल करने के उद्देश्य से कई छात्र इस शहर में आते हैं।

समय के साथ साथ शहर ने भी नया रूप अवश्य धारण कर लिया है, मग़र फिर भी कुछ जगह अपना पुराना साज़-श्रृंगार क़ायम रखा है। इसीलिए इस शहर के अन्तरंग में हमें नये-पुराने का अनोखा मिलाप दिखायी देता है। यहाँ बसने आये लोगों ने अपनी समृद्ध परम्पराओं में से एक संस्कृति का निर्माण किया और आज कई सदियाँ बीतने के बावजूद भी वह संस्कृति यहाँ अपने मूल रूप में जीवित है। यहाँ की मिट्टी में जिस तरह अनेकों लोकनृत्यों का जन्म हुआ, उसी तरह मनोरंजन के विभिन्न खेलों का भी जन्म हुआ।

अब तक हमने बस मंगळूर शहर की एक झलक ही देखी है, अब भी बहुत कुछ देखना बाक़ी है।

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