मंगळूर भाग-४

नवरात्रि के नौ दिनों में ‘मंगलादेवी’ मन्दिर की शोभा अवर्णनीय रहती है। नवरात्रि के नौवें दिन, जिसे ‘महानवमी’ भी कहा जाता है, उस दिन मंगलादेवी की मूर्ति की शोभायात्रा निकाली जाती है और वह भी सजाये गये रथ में से। यहाँ पर इसे ‘रथोत्सव’ कहा जाता है। मंगलादेवी को गहनों से सजाकर इस सुशोभित रथ में उच्च आसन पर रखा जाता है और इस रथ से बँधी रस्सियों के साथ भाविक इस रथ को खींचते हैं। विशिष्ट स्थल तक यह शोभायात्रा निकाली जाती है।

आराध्य को रथ में स्थापित करके शोभायात्रा निकालना इसे ही ‘रथोत्सव’ कहते हैं।

यह सुनतेही हमें याद आती है, जगन्नाथपुरी की रथयात्रा। हमारे भारत के कई मन्दिरों में इस तरह का ‘रथोत्सव’ या ‘रथयात्रा’ मनाने की परिपाटी है। रथयात्रा के लिए मन्दिरों में ख़ास बनाये हुए रथ होते हैं। ये रथ लकड़ी के, चाँदी के या स्वर्ण के भी रहते हैं। रथों में मन्दिर के आराध्य को गहनों से सजाकर रखा जाता है। रथ को भी सजाया जाता है और उसे रस्सियों के साथ भाविक खींचकर इष्ट स्थल तक ले जाते हैं। इस रथयात्रा में सम्मीलित होने के लिए भाविक दूर दूर से आते है। कम से कम एक बार ही सही, लेकिन रथको खींचने का अवसर प्राप्त हो, यह इच्छा हर एक के मन में रहती है।

तो अब मंगलादेवी के दर्शन करने के बाद आइए चलते हैं, मंगळूर शहर की सैर करने।

सागरकिनारे बसे मंगळूर में कुछ टीलें भी हैं। लेकिन हम इनमें से किसी भी टीले पर चढने नहीं जा रहे हैं, बल्कि हम जा रहे हैं, एक टीले की तलहटी में स्थित मन्दिर में विराजमान एक देवता के दर्शन करने।

मंगळूर के इस टीले का नाम है – ‘कदरी’ और हमें जिस मन्दिर में जाना है, वह इसी टीले की तलहटी में बसा है।

‘कदरी’ यह ‘कदली’ इस शब्द का अपभ्रंश माना जाता हैं। ‘कदली’ इस शब्द का अर्थ है – ‘केला’।

लोककथाओं के अनुसार परशुरामजीने ‘कदलीक्षेत्र’ में तपस्या की और उनकी इस तपस्या के बाद विश्‍वकल्याण हेतु से भगवान शिवजी वहाँ प्रकट हुए। शायद इस कदली शब्द का अपभ्रंश होकर इस जगह का नाम ‘कदरी’ बन गया, ऐसा कहा जाता है।

इस कदलीक्षेत्र में भगवान शिवजी, ‘मंजुनाथ’ इस नाम से प्रकट हुए, ऐसा माना जाता है।

हम जिस मन्दिर में दर्शन करने जा रहे हैं, वह मन्दिर ‘कदरी मंजुनाथ’ मन्दिर के नाम से जाना जाता है।

कदरी टीले की तलहटी में बसा यह ‘कदरी मंजुनाथ’ मन्दिर दसवीं सदी में या ग्यारहवीं सदी के मध्य में बनाया गया ऐसा कहा जाता है। चतुष्कोण आकार के इस मन्दिर का निर्माण जल के नौ छोटे तालों के साथ किया गया, ऐसा भी माना जाता है।

कदरी टीले की पार्श्‍वभूमि पर बसा यह मन्दिर हालाँकि विशाल तो नहीं है, लेकिन देखनेवाले का मन यह तुरन्तही मोह लेता है।

यहाँ के आराध्य हैं, भगवान शिवजी और यहाँ पर वे ‘मंजुनाथ’ इस नाम से अवतरित हुए हैं। इस मन्दिर के गर्भगृह में ‘लोकेश्‍वर’ की आसनस्थ मूर्ति है। इस मूर्ति की ऊँचाई लगभग डेढ मीटर्स से अधिक है और उसका निर्माण ब्राँझ (काँसे) से किया गया है। अब आप यह सोचेंगे कि धातु (मेटल) से बनी मूर्ति में कहने जैसी क्या ख़ासियत है?

लेकिन इस मूर्ति की स्थापना के वर्ष को जानने के बाद इसकी ख़ासियत आपकी समझ में आ जायेगी। इस मूर्ति के पास स्थित पुरातन लेख कहता है कि इस ब्राँझ की मूर्ति की स्थापना दसवीं सदी के मध्य के बाद अलुप राजवंश के ‘कुंदवर्मा’ नाम के राजाने ‘कदरिका’ स्थान में की।

इस मन्दिर की यह ब्राँझ की मूर्ति भारत की सबसे पुरानी ब्राँझसे बनी मूर्ति मानी जाती है।

इस मन्दिर के पीछे एक प्राकृतिक झरना बहता है। इस स्थान को ‘गोमुख’ इस नाम से जाना जाता है और इस गोमुख से बहनेवाले जल को सात कुंडों में से बहाया जाता है।

इस मन्दिर के प्रमुख उत्सवों में ‘लक्षदीपोत्सव’ और ‘पट्टनजे’ इन उत्सवों का समावेश होता है। इनमें से ‘लक्षदीपोत्सव’ मनाया जाता है, कार्तिके महीने के पाँच दिनों में। इसके नाम से ही हमारी समझ में यह आ जाता है कि इस उत्सव में दियों को जलाया जाता होगा। वहीं, ‘पट्टनजे’ नाम का उत्सव मई के महिने में मनाया जाता है।

प्रत्येक कार्य के आरंभ में गणेशजी की पूजा की जाती है। हर शहर और गाँव में गणेशजी का एकाद मन्दिर तो अवश्य रहता ही है। फिर मंगळूर भी इसके लिए अपवाद (एक्सेप्शन) भला कैसे हो सकता है?

चलिए, तो फिर शहर के गणेशजी के दर्शन भी करते हैं।

शरवु शरभेश्‍वर महागणपति मन्दिर’ इस लंबे चौड़े नाम से यह मन्दिर जाना जाता है। ‘शरभेश्‍वर’ और ‘महागणपति’ ये यहाँ के दो प्रमुख आराध्य हैं।

स्थलपुराण के अनुसार इस मन्दिर से जुड़ा इतिहास लगभग ८०० वर्ष पुराना है, ऐसा कहते हैं। इस संदर्भ में एक कथा भी प्रचलित है।

लगभग ८०० वर्ष पूर्व इस तुळुनाडु पर ‘वीरबाहु’ नाम के सूर्यवंशीय राजा राज कर रहे थे। वे राजा सभी दृष्टि से उत्तम थे और अपनी प्रजा का उचित रूप से ख़याल भी रखते थे। उनके राज में प्रजा सुखी थी। इन राजा को शिकार करने का शौक़ था।

इस शौक़ के कारण वे कई बार विभिन्न जंगलों में जाते थे। एक बार वे अपनी कुटुंबक़बीले के साथ शिकार पर गये थे। कथा के अनुसार वीरबाहु राजा इन्सानों को तकलीफ़ देनेवाले क्रूर एवं खूँख़ार जानवरों का शिकार करते थे।

तो ऐसे ये ‘वीरबाहु’ ‘सुवर्णकदलीक्षेत्र’ नाम की जगह आ गये। वहाँ स्थित भगवान शिवजी का उन्होंने पूजन भी किया। इस क्षेत्र के चारों ओर घना जंगल था। उस जंगल को देखते ही वीरबाहु शिकार करने की इच्छा से उसमें प्रविष्ट हुए।

कथा में यह भी कहा गया है कि वह क्षेत्र बहुत ही पवित्र था, क्योंकि वहाँ पर कई ऋषिमुनियों के आश्रम थे।

शिकार करने जंगल में घुस चुके राजाने वहाँ पर एक अद्भुत दृश्य देखा। एक गाय और एक बाघ पास में खड़े थे। अब यह बाघ शायद गाय का शिकार करेगा यह सोचकर फ़ौरन राजाने धनुष्यपर बाण चढाया और उसे बाघ पर छोड़ दिया। लेकिन दुर्भाग्यवश वह बाण (शर) बाघ को लगने के बजाय गाय को लग गया और वह गाय मृत हो गयी।

इससे राजा बहुतही व्यथित हो गये। उतने में उसकी मुलाक़ात उस क्षेत्र के निवासी रहनेवाले ऋषि भरद्वाज के साथ हो गयी।

राजा ने उस घटना को बयान करके ऋषिसे उपाय पूछ लिया। तब पछतावे की आग में जल रहे राजा से ऋषिने कहा कि यह बहुत बड़ी जीवहिंसा है। लेकिन उन्होंने राजा से यह भी कहा की अब तुम्हारा शर (बाण) जहाँ ज़मीन पर गिरा था, वहाँ पर शिवलिंग की स्थापना करो और कल्पान्त तक वहाँ पर पूजन-अर्चन चलता रहे इसका भी इंतज़ाम करो।

इस तरह राजा का शर जहाँ पर गिरा था, उस जगह का नाम हुआ ‘शरपत्तन’ या ‘शरवु’। ऋषिने राजा से कहा कि आगे चलकर यह स्थल बहुत ही मशहूर होगा। यहाँ पर एक विकसित नगरी का निर्माण होगा।

फिर ऋषिने राजा से स्थापित शिवलिंग के लिए मन्दिर बनाने के लिए भी कहा। मन्दिर किस दिशा में होना चहिए, इस बार में भी ऋषिने मार्गदर्शन किया।

उस दिग्दर्शन के अनुसार मन्दिर में पानी एक तालाबभी बनाया जाये, गोमाता की एक मूर्ति की मन्दिर के अहाते में स्थापना की जाये, गोपुर, मुखमण्डप इन रचनाओं के साथ साथ शर जहाँ पर गिरा उस स्थान पर शिवलिंग की स्थापना की जाये, ये बातें कही गयी थी। यह शिवलिंग ‘शरभेश्‍वर’ नाम से मशहूर होगा।

ऋषि ने राजा से एक और भी बात कही थी, जो कुछ समय के बाद घटित होनेवाली थी। ऋषि के कहने के अनुसार एक दिन भगवान गजानन-गणपति स्वयं यहाँ पर अवतरित होनेवाले थे। ऋषि की बात सच हुई और एक शुभ दिन सुबह स्वयं गणेशजी यहाँ पर अवतरित हुए और भक्तों का कल्याण करने यहीं पर विराजमान रहे। गणेशजी के अवतरित होने से अब यह मन्दिर ‘श्रीशरवु महागणपति मन्दिर’ या ‘शरवु शरभेश्‍वर महागणपति मन्दिर’ इस नाम से जाना जाने लगा।

ऋषि की भविष्यवाणी सच साबित हुई और यह स्थल भी बहुत मशहूर हुआ और समृद्ध भी। तो यह थी महागणपति मन्दिर की कथा।

इस मन्दिर के दर्शन करने के बाद अब आइए चलते हैं, मंगळूर के गहरे नीले सागर को देखने और सागरी तट की मुलायम रेत पर कुछ देर के लिए आराम भी करते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published.