मंगळूर भाग-५

क्षितिज तक फैला हुआ गहरा नीला जल, दिनभर धूप में चमचमानेवाला, वहीं रात को चाँद-सितारों के साथ बड़े आराम से गपशप करनेवाला जल। मंगळूर के समुद्री तट पर खड़े रहने पर आप यक़ीनन ही यह नज़ारा देख सकते हैं। दूर दूर तक फैली हुई मुलायम रेत का किनारा मंगळूर और उसके आसपास के इला़के में दिखायी देता है।

हम इन किनारों को आजकल ‘बीच’ कहते हैं। बीच पर जाकर सागर को निहारने और उसके जल में खेलने का मज़ा कुछ और ही होता है। है ना!
मंगळूर शहर और उसके आसपास ऐसे कई बीच हैं, जैसें कि पनंबूर बीच, उल्लाल बीच, तन्निबवी बीच, सुरत्कल बीच, सोमेश्‍वर बीच।

सागर के जल में लहरों के साथ खेलना, रेत के छोटे बड़े क़िलें बनाना, सूर्यास्त के समय सागर में डूब रहे सूरज को ‘टाटा’, ‘बाय बाय’ करना यह बीच पर आनेवाले स्थानियों तथा सैलानियों का पसंदीदा कार्यक्रम रहता है।

मंगळूर के बीचेस् पर भी आप यह आनन्द ले सकते हैं, यह अलग से कहने की ज़रुरत नहीं है।

मंगळूर यह एक बेहतरीन बंदरगाह है, यह तो आप अब तक जान ही चुके हैं। मंगळूर में दो बंदरगाह हैं। एक है पुराना बंदरगाह यानि ओल्डपोर्ट और दूसरा है नया बंदरगाह यानि न्यू पोर्ट।

पुराना बंदरगाह ‘बंदर’ इस नाम से जाना जाता है। इसी बंदरगाह से पुराने समय में लोक सफ़र करने, व्यापार करने निकलते थे। आज के ज़माने में मछली पकड़ना यह यहाँ का प्रमुख व्यवसाय है।

नया बंदरगाह यानि न्यू मंगळूर पोर्ट है ‘पनंबूर’ में, मंगळूर शहर से बस कुछ ही दूरी पर। सन १९६२ के आसपास इसका निर्माणकार्य शुरु हुआ और सन १९७४ में भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्रीजी के हाथों इसका उद्घाटन किया गया। पनंबूर का न्यू पोर्ट यह कर्नाटक राज्य का एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह माना जाता है। आजकल यहाँ से खनिज, गॅस, लकड़ी, खाद आदि का व्यापार किया जाता है।

मंगळूर के पास के ‘बोलार’ में एक अनोखी वास्तु है। उसका नाम है ‘सुलतान बॅटरी’। यह नाम सुनने में कुछ अलगसा ही लगता है, है ना! चलिए तो फिर इस ‘सुलतान बॅटरी’ नाम की वास्तु क्या है, यह देखते हैं।

‘सुलतान बॅटरी’ यह एक ‘वॉच टॉवर’ है, ऐसा कहा जाता है। इस वॉच टॉवरका निर्माण मंगळूर पर कुछ समय तक शासन करनेवाले टिपू सुलतान ने किया है, ऐसा भी कहा जाता है। काले पत्थरों से बनायी गयी यह वास्तु देखने में किसी क़िले जैसी दिखायी देती है। लेकिन वॉच टॉवर होने के कारण वह क़िले जैसा विशाल नहीं है, बल्कि क़िले के मिनार जैसा है।

सन १७८४ में टिपू सुलतान ने इसका निर्माण किया। इस वॉच टॉवर का निर्माण करने के पीछे क्या उद्देश्य था इस बारे में इतिहास कहता है कि टिपू सुलतान के काल में अँग्रेज भारत में अपनी जड़ें मज़बूत कर रहे थे। दक्षिण भारत पर कब्ज़ा करने निकले अँग्रेज़ों के जहाज़ों को ‘गुरुपुर’ नदी में आने से रोकने के लिए टिपू सुलतान ने इस वास्तु का निर्माण किया। इस वॉच टॉवर का निर्माण करने का मक़सद जलमार्ग पर दूर दूर तक नज़र रखना और दुश्मन को अपने इला़के में घुसने से रोकना यही था।

इस वॉच टॉवर का निर्माण ही इस तरह किया गया है कि दूर से वह क़िले जैसा ही दिखायी दें। इसे क़िले की तरह बनाने में यक़ीनन ही कोई न कोई उद्देश्य रहा होगा।

इस सुलतान बॅटरी पर चारों तरफ़ तोपें रखने की व्यवस्था की गयी थी, ऐसा भी कहते हैं। इस वास्तु की सीढियाँ चढकर हम जब उपर जाते हैं, तब वहाँ से अरब सागर तो दिखायी देता ही है, साथ ही समुद्री पवन के तेज़ झोंकें भी दिल को सुकून देते हैं।

इस ‘सुलतान बॅटरी’ के विषय में कई कहानियाँ प्रचलित हैं। कहते हैं कि यहाँ से एक ऐसी सुरंग बनायी गयी थी जो ठेंठ ‘श्रीरंगपट्टणम्’ तक जाती थी। श्रीरंगपट्टणम् यह टिपू सुलतान कि उस समय की राजधानी थी।

ऐसा भी कहा जाता है कि यहाँ पर एक तहख़ाने जैसी रचना भी थी, जहाँ पर तोपों के लिए आवश्यक गोला-बारुद भी रखा जाता था।

तो ऐसा यह वॉच टॉवर किसी समय इस शहर की सुरक्षा में अहम भूमिका निभा रहा था, जो आज दुर्लक्षित है।

मंगळूर शहर के विकास के एक पड़ाव पर उसके आसपास के इला़के में से कई लोग आकर बसने लगे। अपने साथ वे अपनी भाषा और संस्कृति भी ले आये। इसीलिए आज इस मंगळूर शहर में कई बोलीभाषाएँ और वे भी प्रमुख भाषा के रूप में बोली जाती हुई दिखायी देती है।

विभिन्न भाषाएँ बोलनेवाले इन लोगों ने इस शहर को एक अनोखी सांस्कृतिक धरोहर प्रदान की है; साथ ही यहाँ की खाद्यसंस्कृति की भी अपनी एक विशेषता है।

इस शहर में कई प्रमुख उत्सव मनायें जाते हैं। साथ ही कई स्थानीय एवं लोकसंस्कृति के देवताओं के उत्सव भी मनाये जाते हैं।

पुराने ज़माने में जब आज की तरह रेडियो – टी. व्ही जैसे माध्यम नहीं थे, दर असल इनका आविष्करण ही नहीं हुआ था, तब लोग मनोरंजन किस तरह करते होंगे? इस सवाल का जवाब हमें मंगळूर शहर की सांस्कृतिक धरोहर से मिलता है। यहाँ पर नृत्य, नाट्य, के साथ साथ विभिन्न प्रकार के खेल और कलाओं का जन्म हुआ, विकास हुआ और आज यह सब यहाँ के जीवन का एक अंग बन चुका है।

क्या आपको बाघ देखना है? अब आप यह सोचेंगे की कला-संस्कृती की बात करते करते बीच में ही क्या चिड़ियाघर जाना है? लेकिन मंगळूर शहर की सड़कोंपर भी, घूमते हुए कई बाघ हम देख सकते हैं। अब आप चौंक गये होंगे! लेकिन इन बाघों को देखने हमें इस शहर में आना होगा, दशहरे या कृष्णजन्माष्टमी के त्योहार के दिन।

कर्नाटक राज्य के इस प्रदेश में ‘हुळीवेश’ या ‘पिलि-वेश’ नाम का एक लोकनृत्य किया जाता है। कन्नड और तुळु भाषा में इन शब्दों का अर्थ है बाघ का वेश।

बाघ का पहनावा पहनकर यह विशिष्ट नृत्य किया जाता है। दशहरे और कृष्णजन्माष्टमी के पर्व पर आराध्यों के प्रति अपना आदरभाव अभिव्यक्त करने हेतु यह नृत्य किया जाता है।

इस नृत्य के लिए बाघों की ख़ास पोशा़कें बनायी जाती हैं। नृत्य तो मानव की करते हैं, लेकिन उन्हे बाघ का रंग-रूप दिया जाता है। यह नृत्य करनेवाले पुरुषों के बदनपर (स्किनपर) बाघों की तरह पट्टे रंगो से बनाये जाते हैं। चेहरेपर भी बाघ के चेहरे की तरह रंग चढाया जाता है। इन रंगों के पूरी तरह सुखने के बाद ही हुळीवेश में नृत्य करनेवाले बाघ बन जाते हैं और अब ये बाघ नृत्य करने तैयार भी रहते हैं।

बाघों के प्रकारों के अनुसार ये बाघ बनाये जाते हैं। यानि हुळीवेश में बाघों की ख़ासियत के अनुसार रंग पोते जाते है। इस बाघनृत्य में चीतें भी रहते हैं, तेंदुए भी रहते हैं और साधारण बाघ भी रहते हैं।

इस नृत्य को हम अपनी सहूलियत के लिए बाघ-नृत्य कहेंगे। बाघ-नृत्य में ७ से १५ लोगों का समूह रहता है। इस ग्रुप में बदन पर काले पीले पट्टे बनाये हुए या गोल गोल धब्बे अथवा चित्तियाँ बनाये हुए बाघ रहते हैं और साथही वादक भी रहते हैं।

ये ग्रुप्स घरों में या उन्हें जहाँ बुलाया जाता है वहाँ जाकर अपनी नृत्यकला पेश करते हैं। कभीकभी उपरोक्त वर्णित लोगों से अधिक लोग भी एक ग्रुप में होते हैं।

इस बाघ-नृत्य का यानि की हुळीवेश का उद्गम मंगळूर में कैसे हुआ, इस विषय में कुछ ख़ास जानकारी तो नहीं मिलती, लेकिन एक बात निश्‍चित है की बाघ-नृत्य यह इस शहर के जीवन का एक अविभाज्य अंग है और सांस्कृतिक धरोहर भी है।

मंगळूर में बहनेवाली दो नदियों का भी इस शहर के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। आज भी शहर से कुछ ही दूर जाते ही हरे भरे खेत खलिहान दिखायी देते हैं। खेतों में काम करनेवाले किसान, खेत जोतनेवाले बैल, खेत में उगनेवाली फ़सल, मिट्टी, पानी और ऊपर नीला आसमान एवं प्रदूषणमुक्त वायु भी यहाँ पर है।

किसान साल भर अपना पसीना बहाते हैं और मनोरंजन के लिए पुन: उनके बैल और खेतों का ही सहारा लेते हैं। कैसे? यह जानने के लिए हमें मंगळूर की संस्कृति के एक और पहलू को देखना होगा।

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