मंगळूर भाग-६

मंगळूर शहर की संस्कृति के एक अनोखे पहलू को आज हम देखने जा रहे हैं। लेकिन, दूर से कुछ आवाज़ें सुनायी दे रही हैं। चलिए, तो पहले उनके बारे में जानने के लिए उस ओर रुख करते हैं।

अरे यहाँ पर तो किसी नाटक के प्रस्तुतीकरण की तैयारियाँ चल रही हैं। हम भी यहाँ के दर्शकों में से एक दर्शक बनकर देखते हैं कि यहाँ क्या हो रहा है।

देखिए, दर्शक की भूमिका में प्रवेश करते ही फ़ौरन पता चला कि यहाँ पर ‘यक्षगान’ को प्रस्तुत किया जा रहा है।

यक्षगान! कर्नाटक राज्य की संस्कृति का एक अविभाज्य अंग। यक्षगान में नृत्य और नाट्य का सुन्दर मिलाफ़ रहता है। भारतीय संस्कृति ने महाकाव्य के रूप में जिनका गौरव किया है, उन महाकाव्यों में से या पुराणों में से किसी कथा या प्रसंग का प्रस्तुतीकरण यक्षगान में नृत्य और नाटक के माध्यम से यानि कि संवाद के माध्यम से किया जाता है।

कर्नाटक के तटीय इला़के में यह ‘यक्षगान’ नाम का नृत्य-नाट्य प्रकार विशेष रूप से प्रचलित है। ख़ास कर उत्तरी कन्नड़ा, दक्षिणी कन्नड़ा, शिमोगा, उडुपी इन कर्नाटकीय प्रदेशों के साथ साथ केरल राज्य के कासारगोड़ जिले में भी यह परंपरागत लोकनाट्य काफ़ी प्रचलित एवं मशहूर भी है।

‘यक्षगान’ का जन्म यहाँ की ही मिट्टी में हुआ और आज भी इस प्रदेशने अपनी इस लोकसंस्कृति को जतन किया है।

‘यक्षगान’ के उद्गम के बारे में अध्ययनकर्ताओं की राय यह है कि श्रीमध्वाचार्य ने इसकी नींव रखी और श्रीनरहरितीर्थजी के समय में इसका प्रचार एवं प्रसार बड़ी तेज़ी से हुआ। अध्ययनकर्ताओं की राय में इस लोकनृत्य-नाट्य को ‘यक्षगान’ यह नाम गत २०० वर्षों से मिला है। उससे पहले यह ‘बयलात’, ‘केळिके’, ‘आट’ और ‘दशावतार’ इन जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता था।

साधारणत: शाम के बाद जैसे जैसे रात की शुरुआत हो जाती है, वैसे वैसे ‘यक्षगान’ का मंच दमकने लगता है और भोर तक यक्षगान का कार्यक्रम चलता रहता है।

‘यक्षगान’ की इस परंपरा की शुरुआत जिस व़क़्त हुई, उस कालखंड के बारे में सोचनेपर यह हमारी समझ में आ जाता है कि यक्षगान उस ज़माने में मनोरंजन के साथ साथ जनजागृति का भी यह एक माध्यम था।

‘यक्षगान’ के अध्ययनकर्ताओं की राय में प्राचीन समय में ‘गंधर्व-ग्राम’ नाम की संगीत परंपरा अस्तित्व में थी और इसी ‘गंधर्व-ग्राम’ नाम की संगीत परंपरा में से ‘यक्षगान’ का उद्गम हुआ होगा। ‘गंधर्व-ग्राम’ नाम की संगीत परंपरा आज अस्तित्व में नहीं है।

१३वीं सदी में शारंगदेव नाम के किसी व्यक्तिद्वारा लिखे गये ‘संगीत रत्नाकर’ नामक ग्रन्थ में इसका उल्लेख ‘जक्क’ इस नाम से किया गया है और आगे चलकर इसी ‘जक्क’ शब्द का अपभ्रंश होकर वह ‘यक्कलगान’ इस नाम से जाना जाने लगा और आगे चलकर वह ‘यक्षगान’ इस नाम से प्रचलित हुआ, ऐसी अभ्यासकों की राय है।

हालाँकि यह सच है कि ‘यक्षगान’ यह नृत्य-नाट्य का एक एकत्रित प्रकार है, मग़र उसकी नींव ‘भक्ति’ ही है, यह भी अध्ययनकर्ता कहते हैं।
उनकी राय में साधारण रूप से ११वीं सदी से लेकर १६वीं सदी के बीच किसी समय ‘यक्षगान’ परंपरा का उदय हुआ।

रामायण, महाभारत या पुराण की किसी कथा या घटनाक्रम पर आधारित नृत्य-नाट्य को यक्षगान में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें ख़ास रहनेवाली बात होती है – उसमें काम करनेवाले अभिनेताओं की वेशभूषा एवं रंगभूषा। इनमें से हर एक को, वह जिस किरदार को प्रस्तुत कर रहा है, उस किरदार के अनुसार ख़ास पोशाक़ पहनाया जाता है। जैसे राजा के लिए ख़ास पोशाक़, सैनिकों के लिए ख़ास पोशाक़, रानियों के लिए ख़ास पोशाक़ और राक्षस आदि खलनायकों के लिए ख़ास पोशाक़। इस लिबास के साथ तरह तरह के गहने भी पहने जाते हैं। सिर पर पहने हुए मुकुट से लेकर हाथ में पहने जानेवाली अंगुठियों तक सभी प्रकार के गहनेपहने जाते हैं। साथ ही उस किरदार के अनुसार उनके चेहरों पर रंग भी चढाये जाते हैं। खल-प्रवृत्ति वालें राक्षस, असुर आदि किरदारों के चेहरे अन्य देवता, राजा आदि के किरदारों की अपेक्षा अधिक प्रमाण में रंगे जाते हैं। ऐसा करने के पीछे अन्य राक्षस आदि के खलत्व को और भी अभिव्यक्त एवं स्पष्ट करना, यह उद्देश्य रहता है। इन खल किरदारों की मेकअप् पूरी होने में ३ से ४ घण्टों तक का समय लगता है।

यक्षगान के किरदारों के लिबास इतने सुन्दर रहते हैं कि देखनेवालों के सामने वह किरदार मानों प्रत्यक्ष रूप में प्रकट हुआ है, ऐसा ही लगता है। उनके रंगबिरंगे महंगे पोशाक़, असली सोने की तरह चमकनेवाले गले के हार एवं बाक़ी के गहने, पुराने ज़माने की तरह जिनकी बनावट रहती है ऐसे मुकुट इन सारी बातों से दर्शक भी उस मंजर को अनुभव करते हैं। रात के बढने के साथ साथ यक्षगान की कथा और भी दिलचस्प बनती जाती है और दर्शक उस घटनाक्रम के साथ एकरूप हो जाते हैं।

अब यक्षगान में प्रस्तुतीकरण किस तरह किया जाता है यह देखते हैं। हम दर्शक की भूमिका में यहाँ पर जब बैठे ही हैं, तो इस बात को जानने से हमारे लिए यक्षगान को समझना आसान होगा।

चुनी हुई कथा या घटना के अनुसार उसके किरदार एक के बाद करके मंच पर आते जाते रहते हैं। प्रस्तुतीकरण की ज़िम्मेदारी सँभालता है सूत्रधार, जिसे ‘भागवत’ कहा जाता है। वह गायन एवं संवाद में माहिर रहता हैं। रंगमंच पर जिस किरदार की ‘एंट्री’ होती है, उस किरदार को दर्शकों से प्राय: सूत्रधार ही परिचित कराता है।

यक्षगान के प्रस्तुतीकरण में नृत्य और नाटक का समावेश रहने के कारण ज़ाहिर है कि इसमें संवाद एवं गायन यानि कि ‘डायलॉग्ज़’ और ‘साँग्ज़’ दोनों भी रहते हैं। अब जहाँ गाने गाये जानेवाले हैं, वहाँ म्युज़िक (संगीत) तो होगा ही और इस कार्य के लिए विभिन्न वाद्यों को बजानेवाले वादक भी इसमें रहते हैं।

वादकों के समूह को ‘हिम्मेला’ कहा जाता है और विभिन्न किरदार निभानेवाले अभिनेताओं के समूह को ‘मुम्मेला’ कहा जाता है। हिम्मेला और मुम्मेला द्वारा किये गये एकत्रित प्रस्तुतीकरण से ही यक्षगान का ‘प्रसंग’ यानि कि यक्षगान का नाट्य मंच पर साकार होता है। यक्षगान का सूत्रधार रहनेवाला ‘भागवत’ यह मुम्मेला समूह का ही सदस्य रहता है।

यक्षगान में किरदार संवादों के साथ साथ गाने भी गाते हैं। इस प्रस्तुतीकरण में यक्षगान के ख़ास राग एवं ताल रहते हैं।

कहा जाता है कि रात को शुरु हुआ यक्षगान का कार्यक्रम भोर तक चलता है और रात के प्रत्येक प्रहर के अनुसार विशिष्ट राग को प्रस्तुत किया जाता है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत की यह ख़ासियत है कि दिन और रात के प्रत्येक प्रहर के अनुसार विशिष्ट रागों की योजना की गयी है। पुराने ज़माने में गायक उस प्रहर के अनुसार उस विशिष्ट राग को गाते थे। यक्षगान के प्रस्तुतीकरण में भी इसी सूत्र का उपयोग किया गया है।

यक्षगान के प्रस्तुतीकरण में कुछ खास गीत रहते हैं, विशिष्ट ताल रहता है, विशिष्ट राग रहते हैं और सबसे ख़ास बात यह है कि विशेष वाद्य भी रहते हैं। यक्षगान में कथा या घटना चाहे जो भी हो, लेकिन उसमें बजाये जानेवाले वाद्य तो वही रहते हैं।

इन वाद्यों में चेंड़ा या चेंड़े, मद्दले, झाँज, करताल और हार्मोनियम का समावेश होता है। चेंड़ा यह मृदंग या ढोल की तरह का चर्मवाद्य है, जिसे विशेष ‘स्टिक्स’ के द्वारा बजाया जाता है। मद्दले यह वाद्य तबला या मृदंग जैसा दिखायी देता है, लेकिन उसमें से निकलनेवाली ध्वनि इनसे अलग ही रहती है। इनके साथ बड़ी झाँज या करताल बजाया जाता है। सारांश, ये सभी वाद्य प्रसंग के अनुसार उस प्रसंग या ग़ीत में जान डालने के लिए बजाये जाते हैं और इनसे कथा में रंग चढता जाता है।

किरदारों के संवाद, गायन और नृत्य के साथ कथा में इस क़दर रंग भरते जाते हैं कि रात चाहे कितनी भी आगे बढती रहे, दर्शक सब कुछ भूलकर रंगमंच की उस घटना के साथ एकरूप हो जाते हैं। हम भी तो यक्षगान के दर्शक बनकर उसमें डूब गये हैं। है ना! लेकिन फ़िलहाल लेना होगा, एक छोटा सा ब्रेक, क्योंकि अगला यक्षगान भी तो एंजॉय करना है ना!

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