मदुराई भाग – २

श्रिय: कान्ताय देवाय कल्याणनिधयेऽर्थिनाम् ।
श्रीवेंकटनिवासाय श्रीनिवासाय मंगलम् ॥

सुबह सुबह कहीं से एम्. एस्. सुब्बलक्ष्मीजी की आवा़ज सुनायी दी और उसी क्षण मन महक गया मोगरे के फूलों की खुशबू से और साथ ही याद आया फिल्टर कॉफी का स्वाद। ये तीनों बाते मन को ले गयीं मदुराई में। मदुराई शहर को मानो उसके जन्म से ही कला, सुन्दरता और विद्या ये बातें विरासत में मिली हैं और आज भी इस शहर ने इस परम्परा का जतन किया है।

फिल्टर कॉफीऊपर हमने जिनका निर्देश किया, वे एम्. एस. सुब्बलक्ष्मीजी, कर्नाटकी संगीत की मशहूर  गायिका हैं। उन्होंने गाये हुए वेंकटेश स्तोत्र, विष्णुसहस्रनाम से तो कई लोग अवश्य परिचित होंगे। इनका जन्म मदुराई में हुआ था। संगीत, फिल्में, साहित्य इन क्षेत्रों में बेहतरीन कार्य करके भारत की सांस्कृतिक धरोहर को सम्पन्न करनेवाले कई व्यक्तित्वों का जन्म इस शहर में हुआ है।

वैसे देखा जाये, तो प्राचीन काल से मदुराई विद्या के केन्द्र के रूप में विख्यात था ही और उसके बाद भी मदुराई में विद्यादान का कार्य निरन्तर जारी रहा, जो आज भी जारी है; साथ ही यह शहर लोगों को बेहतरीन वैद्यकीय सुविधाएँ प्रदान कर रहा है।
लेकिन मदुराई के विद्या के क्षेत्र में होनेवाले महत्त्वपूर्ण स्थान के बारे में हमें फिर से एक बार अतीत में झाँकना पड़ेगा।

मदुराई में प्राचीन काल में ‘तमिळ संघम्’ नाम के एक संघ का निर्माण हुआ। यह कवियों, पंडितों और आचार्यों का संघ था। उस जमाने में किसी भी ग्रन्थ को राज्यमान्यतायोग्य या अध्यापनयोग्य तब ही  समझा जाता था, जब उसे इस संघम् की मान्यता मिल जाती थी।

तमिलपुराणों में और नक्कीरर के भाष्य में इस संघम् के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

जिस समय तमिलनाडु पर पांड्य राजाओं का शासन था, तब उन राजाओं ने तमिल भाषा की वृद्धि के लिए उस समय के प्रतिभावान कवियों, लेखकों और विद्वानों की एक सभा की स्थापना की, जिसे उन्होने ‘संघम्’ यह नाम दिया। उस काल में लिखे जानेवाले हर ग्रन्थ को यह संघम् बारीकी से जाँचता था और उनकी कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही उस ग्रन्थ को मान्यता दी जाती थी।

प्राचीन काल में इस संघम् के अन्तर्गत कुल तीन तमिल संघम् की स्थापना हुई। उनका कालखण्ड इसापूर्व ५०० से लेकर इसवी पहली सदी के अन्त तक का माना जाता है। अर्थात् इन तीन संघों की स्थापना एक के पश्चात् एक ऐसे तीन विभिन्न कालखण्डों में हुई थी।

इनमें से पहले संघम् के बारे में ऐसी जानकारी उपलब्ध होती है कि इसकी शुरुआत दक्षिण मदुरा (मदुराई) में अगस्त्य ऋषि के काल में हुई थी। इस संघम् के कुल ५४६ सभासद थे और ४४४९ कवियों ने अपनी रचनाओं को परीक्षण और मान्यता के लिए इस संघम् के पास भेजा था। तमिल संघम् को राजाश्रय भी प्राप्त था और इस पहले संघम् को तो ८६ राजाओं ने आश्रय दिया था। ‘अगत्तियम्’ नामक व्याकरणग्रंथ इस संघम् का प्रमाणभूत ग्रंथ था। इस संघम् के विषय में एक आख्यायिका मशहूर है। यह दक्षिण मदुरा पांड्य राजवंश की राजधानी थी, लेकिन सागर में आये हुए भयानक ज्वार में यह दक्षिण मदुरा डूब गयी। इस प्रलय के बाद पांड्य राजाओं ने कवाटपुरम् में स्थानान्तरण किया और वहाँ पर उन्होंने अपनी राजधानी की स्थापना की। यहीं पर दूसरे तमिल संघम् की स्थापना हुई। इस संघम् के ५६ सभासद थे और ३६०० कवियों ने अपनी रचनाएँ मान्यता के लिए इस संघम् के पास भेजी थीं। लेकिन दुर्भाग्यवश यह ‘कवाटपुरम्’ नामक राजधानी भी सागर ने निगल ली।

इस पूरे वर्णन से यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि पांड्य राजाओं की ये दोनों राजधानियाँ शायद त्सुनामी लहरों ने निगल ली होंगी। इन राजधानियों के डूबने के साथ ही दोनों संघमों का भी अस्त हो गया।

इसके पश्चात् इसा के १५० वर्ष पहले मदुराई में फिर से एक बार तीसरे तमिल संघम् की स्थापना हुई। जिस नक्कीररभाष्य में इस संघम् का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है, उसके रचयिता नक्कीरर ही इस तीसरे संघम् के अध्यक्ष थे। इस संघम् के ४६ सभासद थे और ४४९ कवियों ने अपनी रचनाएँ मान्यता प्राप्त करने के लिए इस संघम् के पास भेजी थीं। पहली सदी के अन्त तक इस संघम् का अस्तित्व था।

हालाँकि इस तमिल संघम् के विषय में विभिन्न मत प्राप्त होते हैं, मग़र फिर भी तमिल भाषा और साहित्य की अभिवृद्धि में तमिल संघम् का बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान है।

इसी मदुराई में इसवी १८८१ में अमेरिकन ख्रिश्‍चन मिशनरीज् द्वारा अमेरिकन कॉलेज की स्थापना की गयी और इसवी १९४८ में केवल महिलाओं के लिए लेडी डॉक कॉलेज की स्थापना हुई। इससे यह स्पष्ट होता है कि बदलते जमाने के अनुसार बदली हुई शिक्षापद्धति का स्वीकार कर इस शहर में विद्यादान के अपने कार्य को जारी रखा।

जब मदुराई पर नायकों का शासन था, वह दरअसल मदुराई का वैभवशाली कालखण्ड माना जाता है। लेकिन हमारे यहाँ इतिहास लिखित रूप में बहुत ही कम प्राप्त होता है, जो प्राप्त होता है, वह विजयी पक्षों ने उनके हिसाब से लिखा हुआ होता है और फिर उसे ही प्रमाणभूत माना जाता है। इसी कारण बहुत बार उपलब्ध जानकारी और सत्य इसके बीच में का़फी फर्क़ हो सकता है। नायकों के जमाने में मदुराई ने दिये हुए विद्याक्षेत्र के योगदान के बारे में बहुत ही कम जानकारी उपलब्ध होती है। ये नायक राजा कलाप्रेमी थे और उनके काल में मदुराई में कई अप्रतिम वास्तुओं का निर्माण हुआ। आज मदुराई में स्थित ‘तिरुमल नायक का राजमहल’ उनके कलाप्रेम तथा उस समय की वास्तुशैली की मिसाल है।

इस राजमहल में प्रवेश करते ही जब उसकी ऊँची छत और बहुत विशाल खंभों को हम देखते हैं, उसी क्षण उसकी सुन्दरता और भव्यता के कारण हम चौंक जाते हैं।

साधारण तौर पर राजमहल तो विशाल होते ही हैं, लेकिन इस राजमहल की विशालता तो अनोखी है।

जिस राजा के नाम से यह महल जाना जाता है, उस तिरुमल नायक ने १७ वी सदी में इसका निर्माण किया। इसके निर्माण में इटालियन आर्किटेक्ट का योगदान था। इसी कारण इसके निर्माण में विभिन्न वास्तुशैलियों का मिश्रण देखा जाता है। आज इस राजमहल का जितना हिस्सा बचा है, उससे पुराना राजमहल चौगुना बड़ा था। यदि इसका चौथा हिस्सा भी इतना विशाल है, तो मूल राजमहल कितना विशाल होगा, इसका तो हम स़िर्फ अन्दा़जा ही लगा सकते हैं।

इस सम्पूर्ण राजमहल में स्वर्ग-विलासम् और रंग-विलासम् ऐसे दो विभाग थे। इनमें से स्वर्गविलासम् यानि कि राजमहल का दर्शनी हिस्सा।

इसके निर्माण में केवल ईंटो तथा चूने का उपयोग किया है।

जब इस राजमहल का निर्माण हो रहा था, तब मदुराई में कई विदेशियों का आनाजाना था। इसी कारण इस राजमहल की वास्तुशैली में विभिन्न शैलियों का मिश्रण दिखायी देता है। इसके एक खंभे का वर्णन भी यदि सुनें, तो इसकी भव्यता का अँदा़जा हम लगा सकते हैं। हर एक खंभे की ऊँचाई ५८ फीट है और व्यास (डायामीटर) ५ फीट है। ऐसे कुल २४८ खंभे यहाँ पर हैं।

इन्हीं ख़ासियतों के कारण यह महल मदुराई की विशेषता माना जाता है।

जैसी उत्तर में भगवान विश्‍वनाथजी की काशी, वैसी ही दक्षिण में भगवान ‘सुंदरेश्‍वरर’ और देवी ‘मीनाक्षी’जी की मदुराई। जाहिर है, ङ्गिर इस नगरी में उनके साथ अन्य देवताओं का वास्तव्य तो होगा ही! मदुराई में मुख्य मीनाक्षी-  सुंदरेश्‍वरर मन्दिर के साथ ही कई अन्य देवताओं के मन्दिर भी हैं।

इसी कारण मदुराई को ‘मन्दिरों की नगरी’ कहा जाता है।

इन अन्य मन्दिरों में से एक प्रमुख मन्दिर है, ‘अलगर कोईल’। यहाँ के देवता हैं श्रीविष्णु। विष्णु भगवान यहाँ उनकी बहन की शादी के लिए आये हुए हैं। अपनी बहन मीनाक्षी (पार्वती) को वे सुंदरेश्‍वरर शिव को उनकी पत्नी के रूप में सौंपते हैं। हर साल जब मीनाक्षी और सुंदरेश्‍वरर का ‘कल्याणम्’ अर्थात् विवाह समारोह सम्पन्न होता है, तब भगवान विष्णु उसमें शामिल होने के लिए मदुराई आते हैं।

दक्षिणी भारत के मन्दिरों में देवसेनापति कार्तिकेयजी के दर्शन तो होते ही हैं, लेकिन विभिन्न स्थानों के अनुसार उनके नाम भी भिन्न हैं। मदुराई के पास होनेवाले ‘थिरुप्परंकुंद्रम’ इस मन्दिर में कार्तिकेयजी का नाम है, सुब्रमण्यम् स्वामी। कहा जाता है कि इस मन्दिर में कार्तिकेयजी का विवाह देवसेना के साथ सम्पन्न हुआ था।

अखिल विश्‍व में जो सुन्दर हैं, वे हैं सुंदरेश्‍वरर! मीन यानि कि मछली और अक्ष यानि कि आँखें। जिनके नेत्र मछली जैसे सुन्दर हैं, ऐसी सुंदरेश्‍वरर की पत्नी मीनाक्षी। दरअसल विश्‍व में सबसे सुन्दर और एकमात्र सुन्दर ये ही दोनों हैं और उनके निवास के कारण ही यह नगरी भी सुन्दर बनी है।

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