मदुराई भाग – ३

लगभग १५ वर्ष पूर्व जब मदुराई जाने का अवसर प्राप्त हुआ था, तब मदुराई शहर में प्रवेश करते ही दिखायी दिये थे, बड़े बड़े कटआऊट्स। फिर मदुराई के भीतर प्रवेश करने के बाद यह समझ में आया कि भव्यता और मदुराई, सुन्दरता और मदुराई इनका रिश्ता बहुत ही पुराना है।

इस भव्यता और सुन्दरता का आविष्कार है ‘मीनाक्षी-सुन्दरेश्‍वरर मन्दिर’। इस मन्दिर का विस्तार जितना अधिक है, उतनी ही इसकी ऊँचाई भी आसमान को छूनेवाली है।

इस मन्दिर के मुख्य चार गोपुर इतने ऊँचे हैं कि वे का़फी दूर से दिखायी देते हैं। दरअसल इस मन्दिर की सुन्दरता को लब़्जों में बयान करना नामुमक़िन ही है।

‘गोपुर’

इनमें से किसी भी गोपुर के सामने खड़े रहकर यदि उस पूरे गोपुर को देखना हो, तो ऩजर आसमान तक पहुँच जाती है। दक्षिणी भारत के मन्दिरों की गोपुर यह एक ख़ासियत है। मन्दिर की चहारदीवारी के प्रवेशद्वारों पर जो शिखरसदृश शिल्पकाम किया हुआ रहता है, उसे ‘गोपुर’ कहते हैं।

मीनाक्षी मन्दिर की चार प्रमुख दिशाओं में चार विशाल गोपुर हैं। इन चार प्रमुख गोपुरों के अलावा अन्य कईं छोटे छोटे गोपुर भी मन्दिर में हैं। दक्षिणी गोपुर की ऊँचाई सबसे अधिक है अर्थात् वह लगभग ५२ मीटर्स है। पश्चिमी गोपुर सबसे अधिक सुन्दर है। इन गोपुरों पर कईं देवदेवताओं की मूर्तियों को तराशा गया है। ये विशाल गोपुर हमें ‘भव्यता’ इस शब्द से परिचित कराते हैं। दरअसल किसी भी गोपुर में से आप इस मन्दिर में प्रवेश कर सकते हैं। लेकिन प्रायः भक्तगण पूर्वी गोपुर में से ही प्रवेश करते हैं। चलिए! तो क्यों न हम भी इस पूर्वी गोपुर में से मन्दिर में प्रवेश करें! अब हम मन्दिर में तो आ गये, लेकिन प्रमुख देवताओं के दर्शन करने से पहले, आइए हम थोड़ासा अतीत में झाँकते हैं।

४५ एकर्स जितनी विशाल भूमि पर स्थित यह मन्दिर ह़जारों वर्ष पुराना है। इस मन्दिर की रचना में विभिन्न राजाओं का योगदान रहा है। देवी मीनाक्षी और भगवान सुन्दरेश्‍वरर अर्थात् पार्वतीजी और शिवजी यहाँ के मुख्य देवता हैं।

दरअसल इस मन्दिर का इतिहास सदियों से लोककथा-दन्तकथाओं के माध्यम से प्रसारित होता रहा है।

एक बार किसी कारणवश इन्द्र का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ गया। मन की स्थिरता पुनः प्राप्त करने के लिए उसने कई उपाय किये, लेकिन उनमें से एक भी काम न आया। एक बार पृथ्वी पर कदंब वन में से गु़जरते हुए अचानक उसके मन को पूर्ण शान्ति का लाभ हुआ। जब उसने इसके कारण की खोज की, तो उसे पता चला कि वहाँ के कदंब वृक्ष के नीचे शिवलिंग था और यह शिवलिंग ही हैं, भगवान सुन्दरेश्‍वरर। इस मन्दिर में भगवान सुन्दरेश्‍वरर की प्रतिष्ठापना शिवलिंग के रूप में ही हुई है। कइयों के मत से आज अस्तित्व में होनेवाला शिवलिंग ही इन्द्र को मानसिक शान्ति प्रदान करनेवाला शिवलिंग है।

इससे हमें पता चलता है कि ठीक उस समय से यह शिवलिंग यहाँ पर है। आगे चलकर पाण्ड्य राजा ने उसे हुए स्वप्नदृष्टान्त के अनुसार यहाँ पर मंदिर का निर्माण किया। इस तरह भगवान शिव ‘सुन्दरेश्‍वरर’ के रूप में मदुरा आये।

मदुरा अर्थात् मदुराई यह नगरी। इस स्थान को शिव-पार्वती का विवाहस्थल भी माना जाता है, अर्थात् यहाँ पर शिव-पार्वती का विवाह हुआ, ऐसी श्रद्धा है।

पाण्ड्य राजा मलयध्वज की कोई सन्तान नहीं थी। सन्तान प्राप्ति के लिए उसने यज्ञ किया। उस यज्ञ में से एक सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई और वह कन्या थी देवी मीनाक्षी (पार्वती)। वह सुन्दर कन्या बहुत ही पराक्रमी थी। देवी मीनाक्षी का पाणिग्रहण करने के लिए स्वयं भगवान शिव मदुराई आये। उसके बाद देवी मीनाक्षी और भगवान सुन्दरेश्‍वरर का विवाह यहाँ पर हुआ और वे मदुराई में ही निवास करने लगे। इस तरह शिव-पार्वतीजी के अवतरण की कथा मीनाक्षी मन्दिर की ऐतिहासिक धरोहर को उजागर करती है।

आज के इस मन्दिर का निर्माण १२वी सदी से लेकर १८वी सदी तक हुआ। तिरुमल नायक इस राजा के शासनकाल में इस मन्दिर की बहुतांश रचना की गयी। यह मन्दिर द्रविडी शैली की उत्तम शिल्पकला का उदाहरण माना जाता है। पत्थरों से बने इस मन्दिर के हर एक स्तम्भ पर आप उत्तम शिल्पकला देख सकते हैं। मन्दिर के गोपुर से लेकर हर एक स्तम्भ तक सभी स्थानों पर किसी ना किसी मूर्ति को तराशा गया है। कुछ सदियों पूर्व बने इस मन्दिर की मूर्तियों की देखभाल आज भी की जा रही है, जिससे कि शिल्पकला की इस विरासत को कायम रखा जा सके।

पूर्वी गोपुर में से हम ‘अष्टशक्ति मंडप’ में प्रवेश करते हैं। तिरुमल नायक की दो रानियों ने इस मंडप का निर्माण किया। मीनाक्षी देवी के दर्शन करने से पहले हमें जिन मण्डपों में से गु़जरना पड़ता है, उनमें से यह पहला मंडप है। इसके बाद के मंडप का निर्माण तिरुमल नायक राजा ने किया। इस मंडप के स्तम्भों पर देवी मीनाक्षी और भगवान सुन्दरेश्‍वरर की अनेकों लीलाओं को अंकित किया गया है। स्तम्भ तो क्या, यहाँ की छत पर भी चित्रकला के उत्कृष्ट नमूने देखे जा सकते हैं।

मीनाक्षी देवी के दर्शन करने से पहले सहस्र स्तम्भों के एक मंडप में से गु़जरना पड़ता है। दरअसल इस मंडप के स्तम्भों की संख्या १००० से कम है। हर एक स्तम्भ पर किया गया उत्तम शिल्पकाम यह यहाँ की ख़ासियत है। एक और ख़ासियत यह है कि यहाँ कई स्तम्भों से बना एक स्वरस्तम्भ है। इस स्वरस्तम्भ के भिन्न भिन्न स्तम्भों पर आघात करने से भिन्न भिन्न स्वर सुनायी देते हैं। एक स्तम्भ से ‘सा’, दूसरे से ‘रे’ इस तरह सा, रे, ग, म, प, ध, नी, सा यह स्वरसप्तक सुनायी देता है। ये स्वरस्तम्भ उस समय की सुविकसित वास्तुशैली का बेहतरीन नमूना है। आज विज्ञान, तकनीक तथा कन्स्ट्रक्शन का क्षेत्र का़फी विकसित होने के बावजूद भी इन स्वरस्तम्भों की जादू का खुलासा नहीं हो पाया है।

इस मन्दिर की एक और ख़ासियत है कि यहाँ पर कई देवी-देवताओं, सन्तों, आचार्यों के साथ साथ हाथी-घोड़े जैसे प्राणियोनि के जीव भी मूर्तिरूप में विराजमान हैं। यहाँ के कुछ स्तम्भों पर सिंह का शरीर और हाथी का सिर धारण करनेवाले प्राणियों को भी तराशा गया है।

ऐसे इन मंडपों में से गु़जरने के बाद हम प्रमुख देवता यानि कि देवी मीनाक्षी के मन्दिर में प्रवेश करते हैं।

स्वर्ण का कलश और सम्मुख स्थित स्वर्ण का ध्वजस्तम्भ होनेवाले इस मन्दिर में देवी पार्वती मीनाक्षी इस रूप में प्रतिष्ठित हैं। काले रंग के पाषाण की देवी की मूर्ति द्विभुज है। उन्होंने अपना बायाँ हाथ नीचे रखा है और उनके दाहिने हाथ में एक छोटीसी चँवर है और उसपर एक तोता बैठा है। इस मन्दिर का शिल्पकाम वाक़ई बेमिसाल है। देवी की प्रदक्षिणा करने के प्रदक्षिणामार्ग पर ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति आदि कई शक्तियों की तथा देवी-देवताओं की मूर्तियाँ तराशी गयी हैं।

मीनाक्षी मन्दिर की उत्तरी दिशा में भगवान सुन्दरेश्‍वरर का मन्दिर है, जिसमें वे शिवलिंग के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इस मन्दिर के बारे में एक कहानी कही जाती है कि १४वी सदी में मुगलों ने जब मदुराई पर हमला करके मदुराई पर कब़्जा कर लिया था, तब मुख्य मन्दिर को बन्द कर दिया था। मुख्य देवताओं को सुरक्षित स्थान पर रखकर अन्य स्थान पर उनकी आराधना की जाने लगी। कई वर्षों बाद जब मदुराई विदेशियों के चंगुल में से मुक्त हुआ, तब भाविकों के लिए मुख्य मन्दिर के द्वार खोले गये, तब भीतरी दृश्य को देखकर सभी चौंक गये, क्योंकि मुख्य मन्दिर को जब बन्द कर दिया गया था, तब उस शिवलिंग पर अर्पण किये गये पुष्प और चर्चित चन्दन का लेप दोनों ऐसे थे कि मानो अभी अभी अर्पण किये गये हों और साथ ही दोनों ओर स्थित दिये भी ज्यों कि त्यों प्रज्वलित थे।

अब मन्दिर के अगले विभाग को देखते हैं। इस मन्दिर में ‘सुवर्णपद्म सरोवर’ नाम का एक सरोवर भी है। भाविक इस सरोवर में स्नान करते हैं। इस सरोवर के इर्द-गीर्द के प्रदेश को ‘चित्रमंडप’ कहा जाता है। वहाँ पर पुराणों के कई प्रसंग चित्रित किये गये हैं। इस सरोवर के बारे में ऐसा भी कहा जाता है कि प्राचीन काल में ग्रन्थों की मान्यता यहीं पर निश्चित की जाती थी। कैसे? तो इस सरोवर के पानी पर ग्रन्थ रखने के बाद यदि वह डूब जाता है, तो ‘फेल’ और यदि तैरता है, तो ‘पास’।

मीनाक्षी देवी और सुन्दरेश्‍वरर के मन्दिर के पास ही ‘कल्याणमंडप’ है। प्रतिवर्ष यहाँ पर मीनाक्षी देवी और भगवान सुन्दरेश्‍वरर का विवाह समारोह होता है। इस विवाह समारोह में भगवान विष्णु, मीनाक्षी देवी के भाई के रूप में उनका कन्यादान करते हैं। मदुराई के इस मीनाक्षी मन्दिर में इस विवाह समारोह का प्रत्यक्ष शिल्पांकन भी किया गया है, जिसमें श्रीविष्णु अपनी बहन पार्वती का कन्यादान करते हैं और शिव उनका पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं। प्रतिवर्ष चैत्र मास (अप्रैल-मई) में इस मन्दिर में यह विवाह समारोह मनाया जाता है। इस समय ‘अलगर कोईल’ से श्रीविष्णु मदुराई आते हैं।

इस सुवर्णपद्म सरोवर के पश्चिम में और दो मंडप हैं, उनमें से एक है, ‘उंजल मंडप’ और दूसरा है, ‘किल्लीकुन्टु मंडप’। उंजल मंडप में मीनाक्षी देवी और सुन्दरेश्‍वरर की मूर्तियों को उंजल अर्थात् झूलेपर रखकर झुलाया जाता है। वहीं, किल्लीकुन्टु यह तोतों के लिए बनाया गया ख़ास मंडप है, जहाँ पर तोतों को देवी का नामस्मरण सिखाया जाता है।

इसी मन्दिर में भगवान शिव उनकी नर्तनमुद्रा में अर्थात् नटराज रूप में भी दिखायी देते हैं। बेमिसाल कलाकौशल होनेवाले पुदुमंडप में यह नटराज की मूर्ति स्थित है। इस स्थान को ‘वेळ्ळी अंबलम्’ भी कहा जाता है। प्रायः नटराज की मूर्ति में उनका बायाँ पैर ऊपर उठाया हुआ रहता है, लेकिन यहाँ की नटराज की मूर्ति में उनका दाहिना पैर ऊपर उठाया हुआ है।

सम्पूर्ण मन्दिर तो हम देख चुके, अब इस मन्दिर के किसी विशाल गोपुर में से बाहर निकलने से पहले एक छोटी सी बात को देखते हैं। यहाँ पर मन्दिर में स्थित पुराण कदंब वृक्ष का विशाल तना हमें इस बात की याद दिलाता है कि यहाँ पर प्राचीन समय में कदंबवन हुआ करता था।

इन सुन्दरेश्‍वरर की सुन्दर नगरी की सुन्दरता को बयान करने की क्षमता मुझमें कहाँ? सच तो यह है कि इसे तो स़िर्फ ‘वे’ ही बयान कर सकते हैं।

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