नेताजी-३०

subhash boseतत्कालीन भारतीयों द्वारा स्वर्गीय मानी जानेवाली आय.सी.एस. की नौकरी से सुभाषचंद्र बोस नाम के एक भारतीय युवक ने इस्तीफा  दिया है, यह पता चलते ही इंडिया ऑफिस में खलबली मच गयी। आय.सी.एस. के इतिहास में यह पहली बार हो रहा था। भारतीयों के प्रति हमेशा ग़ुलामी का ऩजरिया ही रखनेवाले अँग्रे़जों की भारतीय हुकूमत की इमारत ही इस आय.सी.एस. नामक म़जबूत नींव पर खड़ी की गयी थी। अँग्रे़जों ने भारत के सन्दर्भ में समय समय पर निश्चित की हुई नीतियों को भारत में कार्यान्वित करने का काम यह सनदी सेवा बड़ी ईमानदारी के साथ – अँग्रे़ज सम्राट के चरणों में एकनिष्ठ रहने के शपथपत्र पर दस्तख़त करके ही करती थी। अत एव ऐसी सेवा को तुच्छ मानकर कोई भारतीय उससे इस्तीफा  दे भी सकता है, यह बात ही इंडिया ऑफिस और सत्ताधीश अँग्रे़जों की समझ में नहीं आ रही थी। सबसे अहम बात यह थी कि इस इस्तीफे का ‘संसर्ग’ यदि फैलता रहा और एक के बाद एक करके ये ‘सनदी सेवक’ – इस आय.सी.एस. नामक, भारत के अँग्रे़जों के अस्तित्व की म़जबूत नींव रहनेवाली इस सेवा के नुमाइंदे यदि इसी तरह इस्तीफे पेश करने लगें, तो भारत पर राज करना मुश्किल हो जायेगा, इस विचार के साथ इंडिया ऑफिस की नींद हराम हो गयी थी और सुभाष अपना इस्तीफा  वापस लें, इसलिए उन्होंने अपनी कोशिशों में कोई क़सर नहीं छोड़ी थी। दासबाबू को लिखा हुआ ख़त डाक द्वारा न भेजते हुए दोस्त के साथ भेजने के पीछे सुभाष को जो अँदेसा था, वह पूरी तरह सच साबित हुआ था।

बोर्ड के अंडर-सेक्रेटरी ड्यूक विल्यम्स नामक अधिकारी थे और वे नौकरी के दौरान पहले भारत में और वह भी कटक में कमिशन पर नियुक्त किये गये थे। अत एव उनकी जानकीबाबू से अच्छीख़ासी जानपहचान थी और उनके बड़े बेटे सतीश आजकल बॅरिस्टरी की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड़ में रहते हैं, यह भी वे जानते थे। उन्होंने ठेंठ सतीशदा से संपर्क कर उन्हें आकर मिलने के लिए कहा और सुभाष के इस फैसले  की वजह के बारे में पूछा और सुभाष को इस जल्दबा़जी में लिये हुए फैसले  से परावृत्त करने के बारे में भी कहा। लेकिन सतीशदा ने साफ़ साफ़ कह दिया कि सुभाष के स्वभाव को देखते हुए यदि एक बार वह किसी कृति को करने की ठान लेता है, तब उससे वह टस से मस तक नहीं होता और अत एव उसे कहने-मनाने से कोई फायदा  नहीं है। उसे इस्तीफा  वापस लेने के लिए रा़जी करना यह मेरे बस की बात नहीं है, यह भी उन्होंने विल्यम्स से कहा। लेकिन विल्यम्स इतनी आसानी से हार माननेवालों में से नहीं थे। सुभाष की ट्रायपोज (बी.ए.) की अन्तिम परीक्षा अभी बाक़ी है, यह पता चलते ही उन्होंने केंब्रिज के प्रोफेसर से सुभाष पर दबाव डालना शुरू किया। लेकिन उससे भी उनके हाथ कुछ नहीं आया। फिर  विल्यम्स ने सुभाष जिस कॉलेज में से ट्रायपोज कर रहा था, उस ‘फिट्जविलियम  हॉल’ के प्रमुख मि. रेडवे इन्हें सुभाष को समझाने के लिए कहा।

रेडवे यह दूसरों की भावनाओं की क़द्र करनेवाले एक सज्जन थे। उन्होंने सुभाष के अ‍ॅडमिशन के समय भी अ‍ॅडमिशन लेने के लिए हो चुकी देरी के सन्दर्भ में उसका पक्ष स्वयं केंब्रिज युनिव्हर्सिटी के समक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा था कि इंग्लैंड़ में चल रही कोयला खान म़जदूरों की हड़ताल के कारण उसकी बोट एक ह़फ़्ते की देरी से इंग्लैंड़ दाखिल हुई, वगैरा वगैरा। इस बार भी रेडवे ने सुभाष की बात सुनने के बाद उसका समर्थन भी किया। भारत जाकर अध्यापन एवं पत्रकारिता इन क्षेत्रों में कार्य करने की सुभाष की इच्छा है, यह जानते ही उन्होंने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा कि ‘मैं स्वयं अध्यापनक्षेत्र में होने के कारण यह समझ सकता हूँ कि मन को तर्रोता़जा रखना हो तो उसके लिए युवाशक्ति के चुलबुले उत्साह के साथ संपर्क रखकर नयीं नयीं कल्पनाओं से परिचित कराने का काम अध्यापनक्षेत्र ही कर सकता है। पत्रकारिता में भी समाज की भावभावनाओं तथा मतों के साथ पत्रकार रूबरू हो जाता है। तुम अवश्य भारत जाओ और अपने पसन्दीदा क्षेत्र में अवश्य काम करो। तुम्हें मेरा सम्पूर्ण समर्थन है।’

तब तक आय.सी.एस. से इस्तीफा  देने के अपने निर्णय के बारे में केवल आलोचना ही सुनने के आदी बन चुके सुभाष को रेडवे के समर्थन के कारण अब कहीं थोड़ाबहुत दिलासा मिला। तब तक गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टागोरजी का ‘अ‍ॅकला चलो रे, अ‍ॅकला चलो रे’ यह गीत ही मानो जिसका जीवनगीत बन चुका है, ऐसे सुभाष को अनपेक्षित रूप में इस निर्णय के मामले में ‘मैं एकाकी नहीं हूँ’ यह पता चलते ही सु़कून मिला। दासबाबू के स्वीकृति के ख़त के बाद भी उसके मन में जिस तरह नयी उमंग जाग उठी थी, वैसी ही उमंग अब एक अँग्रे़ज मनुष्य भी मेरे निर्णय का समर्थन कर रहा है, यह जानने के बाद जाग उठी।

इस सारे झमेले में सुभाष की ट्रायपोज की परीक्षा भी हो चुकी थी और उसके नतीजें भी घोषित हो चुके थे। सुभाष अब केंब्रिज युनिव्हर्सिटी का स्नातक बन चुका था। अर्थात् सुभाष के लिए उस डिग्री का महत्त्व, भारत में अध्यापन क्षेत्र में नौकरी प्राप्त करने के लिए आवश्यक रहनेवाली डिग्री इतना ही था। एक डिग्री अर्जित करने से अब भारत में मनचाहा अध्यापनकार्य वह कर सकता था।

इसी दौरान इतनी ‘भवति न भवति’ होने के बाद इंडिया ऑफिस द्वारा सुभाष का इस्तीफा  स्वीकृत किया गया और वैसा सुभाष को लिखित रूप में सूचित भी किया गया।

सुभाष ने घर शरदबाबू को ख़त लिखकर अपने इस्तीफे के बारे में बताया। शरदबाबू सुभाष की देशभक्ति की लगन समझ रहे थे और थोड़े-बहुत प्रमाण में उसकी भूमिका से भी वे सहमत थे। लेकिन पिताजी के स्वास्थ्य की चिन्ता उनके मन को खाये जा रही थी। सुभाष के पिताजी को सुभाष के इस फैसले  से गहरा सदमा पहुँचा था और उससे वे निद्रानाश इस व्याधि के शिकार बन चुके थे। साथ ही सुभाष के भारत लौटते ही अँग्रे़ज सरकार अब उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जायेगी, यह डर भी उन्हें सता रहा था। इन सब बातों का परिणाम होने से वे दस-बारह साल की अधिक उम्र के बूढ़े दिखायी देने लगे थे। शरदबाबू ने ख़त लिखकर सुभाष को इस परिस्थिति से अवगत कराया।

अपने पिता का चेहरा सुभाष के मन की आँखों के सामने आ गया और उसे का़ङ्गी दुख हुआ। लेकिन अब वह पीछे हटनेवाला नहीं था। उसने उसके मन को जकड़कर रखनेवाले पिछले सभी डोर काट दिये थे। पिताजी को सँभालने के लिए घर में माँ, शरदबाबू, अन्य भाई-बहनें हैं, लेकिन ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई भारतमाता के आँसू भला कौन पोछेगा?

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