नेताजी-२९

Subhashदासबाबू को लिखे हुए ख़त में आय.सी.एस. में पढ़े अँग्रे़जी, इतिहास, भूगोल, तत्त्वज्ञान, लॉ, संस्कृत इत्यादि विषयों के बारे में संक्षेप में लिखकर, आपके कॉलेज में मैं इन विषयों को पढ़ा सकता हूँ, यह सुभाष ने स्पष्ट किया था; वहीं, दासबाबू नये सिरे से जिस ‘स्वराज्य’ समाचारपत्र की शुरुआत करनेवाले थे, उसकी अँग्रे़जी एड़िशन के संपादकमण्डल में लेखनकार्य करने के लिए मैं उत्सुक हूँ, यह भी उसने लिखा था। साथ ही, हमेशा प्रॅक्टिकली विचार करनेवाले सुभाष ने तऩख्वाह की अपेक्षा के बारे में कहते हुए, फिलहाल  मैंने अविवाहित रहने का निश्चय किया होने के कारण थोड़ीसी तऩख्वाह में गु़जारा करना मेरे लिए मुमक़िन है, यह भी सूचित किया था।

ख़त लिखने के बाद, अँग्रे़जों से हमेशा चौकन्ने रहनेवाले सुभाष ने, मेरा खत भारतीय गुप्तचरयन्त्रणाओं द्वारा यक़ीनन खोलकर देखा जायेगा और आय.सी.एस. की सर्वोच्च मानी जानेवाली नौकरी का लात मारने के बारे में एक भारतीय युवक सोच रहा है यह पता चलते ही प्रशासन मेरे खिलाफ जमीन-आसमान एक करके मुझे अवश्य परेशान करेगा, यह ध्यान में रखकर उस ख़त को डाक द्वारा न भेजते हुए अपने दोस्त के साथ भेज दिया और वह उनके जवाब की प्रतीक्षा करने लगा।

उसके पिताजी ने उसे उसके इस फैसले से परावृत्त करने के लिए, आजकल के राजकीय माहौल को देखते हुए भारत को दस-बारह वर्षों में अन्तर्गत स्वराज्य (होमरूल) मिलने के आसार हैं, यह सूचित करके, कम से कम उसके बाद तो सरकारी नौकरी करने में सुभाष को कोई ऐतरा़ज नहीं होना चाहिए, यह राय भी जाहिर की थी। लेकिन ‘स्वराज्य की क़ीमत जो त्याग और परिश्रम यह होती है, उसे बिना चुकाये दस तो क्या, पचास वर्ष के बाद भी हम ग़ुलामी में ही रहेंगे’ ऐसा जवाब सुभाष ने भेजा और मैं मेरे फैसले से टस से मस नहीं होनेवाला हूँ, यह भी स्पष्ट किया। ताअज्जुब की बात देखिए! भारत की जिस विस्फोटक  परिस्थिति से सुभाष का ध्यान दूसरी ओर खींचने के लिए जानकीबाबू ने उसे इंग्लैंड़ भेजने का फैसला किया था, उसी इंग्लैंड़ के माहौल तथा आय.सी.एस. की पढ़ाई के कारण मन-बुद्धि की कक्षा विस्तारित होने का परिणाम होकर सुभाष ने ठीक उसी विस्फोटक  वातावरण में लौटने का निर्णय किया था। श्रद्धावानों के लिए प्रतिकूल लगनेवाली परिस्थिति भी आख़िर उनके लिए अनुकूल बनाने काम वे ईश्वर किस तरह करते हैं, उसका यह एक बेहतरीन उदाहरण है!

आख़िर सुभाष को जिसकी चातक जैसी प्रतीक्षा थी, वह दासबाबू का जवाबी ख़त आ गया और उन्होंने उसे – सरकारी नौकरी ठुकराने के बाद यहाँ आने पर दूसरी कौनसी नौकरी मिलेगी, इसकी फिक्र करने की जरूरत नहीं है, यह कहते हुए, यहाँ पर बहुत सारा काम उसकी राह देख रहा है, यह भी लिखा था। साथ ही उसके लौटने पर उसकी सहायता से कई नये काम भी वे शुरू कर सकते थे और इसीलिए हो सके उतना जल्द से जल्द वह भारत लौटकर उनसे मिलें, यह भी दासबाबू ने लिखा था।

हो गया। निश्चय पक्का हो गया। इस उत्तर से सुभाष के मन में उमंग के फौवारे उमड़ने लगे। मन की सारी मायूसी एक पल में दूर हो गयी और नयी उमंग के साथ वह अगली योजना के बारे में सोचने में मग्न हो गया। इसी उत्साह में उसने दासबाबू को एक और ख़त लिखकर उसने काँग्रेस के तत्कालीन रवैये में मेरी दृष्टि से किन सुधारों को लाना आवश्यक है यह लिखकर, विशेषतः भारत के ग़रीब पीछड़े वर्ग की समस्याओं को लम्बे अरसे से ऩजरअन्दाज कर दिये जाने के कारण वह समाज अँग्रे़जों के पक्ष में जा सकता है, यह राय भी प्रतिपादित की। इस ग़रीब श्रमजीवी जनता की हालत में सुधार कैसे लाया जाये और उन्हें समाज की मुख्य धारा में कैसे समाविष्ट किया जाये, साथ ही स्वराज्य मिलने के बाद की राज्यव्यवस्था कैसी रहनी चाहिए, इसपर भी विचारविमर्श होना आवश्यक है, यह भी उसने लिखा था।

सारी अनिश्चितता अब समाप्त हो चुकी थी और सुभाष जीवन के एक नये मोड़ पर खड़ा था। २२ अप्रैल १९२१ को सुभाष ने अपना इस्तीफ़ा सिव्हिल सर्व्हिस बोर्ड के ऑफिस में प्रस्तुत किया। इस्तीफ़ा देने पर इंडिया ऑफिस से अनुदान के रूप में मिलनेवाली रक़म की वापसी करना भी उसके दिए बंधनकारक था। मेरे इस फैसले से सहमत न रहनेवाले पिताजी और भाई यह रक़म भेजेंगे या नहीं, इसके बारे में वह साशंकित ही था। लेकिन हमेशा की तरह ईश्वर अपने इस प्रिय बालक की मदद करने के लिए दौड़े चले आये। सुभाष के एक दोस्त ने उसकी इस उलझन को जानते ही अचानक से वह रक़म उसे सौंपी और वह इस्तीफ़ा दे सका। ईश्वर किसके रूप में सहायकारी होंगे, यह थोड़े ही कहा जा सकता है?

‘एक भारतीय छात्र का आय.सी.एस. की नौकरी से इ….स्ती….फ़ा?’

यह भला कैसे मुमक़िन है? रॉबर्ट्स नाम के बोर्ड के सेक्रेटरी उस इस्तीफे को देखकर चकरा गये। लेकिन सुभाष ने उन्हें इसके पहले भी पानी चखाया था। हुआ यूँ कि आय.सी.एस. के लिए बोर्ड जिन मार्गदर्शक पुस्तिकाओं को प्रकाशित करता था, उनमें ‘घुड़सवारी’ विषय की एक पुस्तिका भी थी। भारत में घोड़ों की देखभाल कैसी करनी चाहिए, यह लिखते हुए लेखक ने बीच में ही अचानक से भारतीय संस्कृति पर अशिष्ट एवं वाहियात शब्दों में कीचड़ उछाला था। वह पढ़ते ही सुभाष आगबबूला हो गया और उसने सीधे जाकर बोर्ड के सेक्रेटरी के पास अपना निषेध द़र्ज किया। उस समय भी ऐसा ही हुआ था। बोर्ड से जो भी प्राप्त होगा, उसका चुपचाप स्वीकार करने की परिपाटी के होते हुए एक भारतीय युवक बोर्ड की पुस्तिका की ग़लतियाँ निकाल रहा है, यह कैसी ग़ुस्ताख़ी? ‘आगे चलकर तुम्हें परीक्षा में इसका अंजाम भुगतना ही पड़ेगा’ (यानि कि संक्षेप में ‘तुम्हारा नाम ब्लॅकलिस्ट में द़र्ज किया जायेगा’) आदि धमकियाँ देने के बावजूद भी सुभाष अपनी बात पर अटल है, यह ध्यान में आ जाते ही सेक्रेटरी ने चुपचाप सुभाष का लिखित निषेध इंडिया ऑफिस के पास भेज दिया था। उन्होंने इस मामले की छानबीन करने के बाद अपनी ग़लती क़बूल करके अगली एड़िशन में उसमें सुधार करने का आश्‍वासन सुभाष को लिखे हुए उत्तर में दिया था।

रॉबर्ट्स को सुभाष का ऐसा ‘अनुभव’ रहने के कारण इस बार थोड़ाबहुत समझाने के अलावा उसे उसके निर्णय से परावृत्त करने की कोशिश उन्होने नहीं की और उन्होंने चुपचाप उसका इस्तीफ़ा इंडिया ऑफिस के पास भेज दिया।

इंडिया ऑफिस में सुभाष का इस्तीफ़ा पहुँचते ही वहाँ पर खलबली मच गयी और ऊपर से लेकर नीचे तक के सभी इस तलाश में जुट गये – हू इज सुभाषचंद्र बोस?

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