नेताजी-३१

netajiपिताजी की बीमार हालत बयान करनेवाला, सुभाष को भेजा शरदबाबू का खत पढ़कर दिलीप ने उसे फिर से आय.सी.एस. से इस्तीफा देने के उसके फैसलेपर पुनर्विचार करने के बारे में छेड़ा। लेकिन तब तक मन में उठा अनिश्चितता का कोहरा दूर होकर आगे का मार्ग स्पष्ट रूप से देख रहे सुभाष ने उसे निर्धारपूर्वक ना कहा और पहले कभी भारत की स्थिति के बारे में चर्चाएँ करते हुए भारतीयों की मानसिकता के बारे में दिलीप द्वारा ही उच्चारित – ‘हम भारतीय शिवाजीमहाराज को तो चाहते हैं, लेकिन पड़ोसी के घर में उनका जन्म हो; और हमारी खुद की संतान तो अपने जीवननिर्वाह की अच्छी-ख़ासी व्यवस्था करें और सुरक्षित जीवन बिताएँ, यही उनकी अपेक्षा होती है’ इस अर्थ के उद्गारों की उसे याद दिलायी। देश की हालत सुधारने के लिए क्या करना चाहिए, इस बारे में लंबे-चौड़े भाषण दें, लेकिन जब अन्याय के खिलाफ आवा़ज उठाने की, कुछ करने की बात आती है, तब पीछे हट जायें, यही बात सुभाष को मंज़ूर नहीं थी। भारतमाता को ग़ुलामी की इस लज्जास्पद स्थिति से मुक्त करने के लिए उत्सुक बन चुके सुभाष को अब इस बात की चिन्ता नहीं थी कि मेरे माता-पिता को मेरे इस फैसलेसे दुख पहुँचेगा। अब उसे मुख्य चिन्ता यह थी कि भारत लौटने के लिए पैसों का इन्त़जाम कैसे किया जाये। क्योंकि इस्तीफे पर मुहर लगने के कारण निराश तथा उद्विग्न हो चुके परिवारवालें पैसे भेजेंगे ही, इस बात का उसे यक़ीन नहीं था और उनके पास भारत लौटने के लिए पैसों की माँग करना, यह सुभाष को प्रशस्त भी नहीं लग रहा था।

सुभाष की यह मुश्किल दिलीप ने ही दूर कर दी। ‘तुम्हारे इस दोस्त के रहते हुए तुम्हें यह चिन्ता करने की क्या जरूरत है?’ ऐसा कहते हुए उसने सीधे वापसी के टिकट के पैसे सुभाष को दे दिये। अहम बात यह है कि यह सहायता करते हुए मैं सुभाष पर कोई उपकार कर रहा हूँ, ऐसी कोई भी भावना सुभाष पर निरपेक्ष प्रेम करनेवाले दिलीप के मन को छुई तक नहीं। बल्कि अपना देश जब संकट के दौर से गु़जर रहा है, तब इतना बड़ा देशकार्य करने निकले सुभाष ने उन पैसो का स्वीकार किया, सुभाष द्वारा उठाये जानेवाले गोवर्धन पर्वत को कम से कम मेरी एक लाठी लगने की सहायता तो हुई, इस बात का उसे इतना आनन्द हुआ कि उसने सुभाष को बड़े प्यार से गले ही लगाया। दोनों की आँखों से आंसू बह रह थे। कुछ भावनाएँ ऐसी होती हैं, जिन्हें किसी नाम का लेबल नहीं लगाया जा सकता; ऐसा ही कुछ यहाँ भी हुआ। अ‍ॅकॅडमिक इयर की शुरुआत होने के बाद इंग्लैंड़ पहुँचे सुभाष को ‘फिट्जविलियम  हॉल’ कॉलेज में अ‍ॅडमिशन दिलाने में सहायकारी बन चुके दिलीप की ही मदद उसे इंग्लैंड़ से लौटने में भी हो, यह एक अजीब सा ‘इत्तेफाक’ था।

सुभाष के संपर्क में आनेवाले हर किसी की स्थिति कुछ इस तरह ही होती थी। सुभाष के व्यक्तित्व में ही ऐसा कोई जादू था, ऐसा ‘चार्म’ था कि वे लोग मानो उसके भक्त ही बन जाते। उसके विरोधक भी जहाँ उसे विरोध करते हुए मन ही मन आश्चर्यचकित हो जाते थे, वहाँ सुभाष उसके मित्रों के मन पर अधिराज्य करें, तो उसमें भला आश्चर्य की क्या बात!

हैरानी की बात तो यह है कि सुभाष के आय.सी.एस. के सहपाठी रहनेवाले जिस दिलीप ने उसे आय.सी.एस. से इस्तीफा देने में परावृत्त करने के लिए काफी कोशिशें की, उसी पर सुभाष के विचारों ने ऐसा जादू किया कि उसने खुद ने भी आय.सी.एस. बीच में ही छोड़ दिया और जिस संगीतक्षेत्र से उसे लगाव था, उसमें करियर करने के लिए वह जर्मनी गया। इंग्लैंड़ आने से पहले भारत में उसने भारतीय शास्त्रीय संगीत के अग्रणी माने जानेवाले पंडित भातखण्डेजी से संगीत की शिक्षा प्राप्त की थी। संगीत की शिक्षा प्राप्त करने के लिए आधे युरोप में भ्रमण करनेवाले दिलीप ने आगे चलकर वहाँ युरोपियन शास्त्रीय संगीत और अपने भारतीय शास्त्रीय संगीत की रागपरंपरा इनका तुलनात्मक अध्ययन किया और इन दोनों में जगह जगह दिखायी देनेवाली समानता को देखकर वह आश्चर्यचकित हुआ। उसके संशोधन की आगे चलकर दुनिया भर में काफी सराहना हुई। युरोपियन लोगों को भारतीय शास्त्रीय संगीत की पहचान हो, इसलिए उसने युरोप में कई कॉन्सर्ट्स भी किये। बांगला तथा अन्य भाषाओं में गाये हुए उसके कई गानों के दुनियाभर में कई ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स निकाले गये। इंग्लैंड़ में रहते हुए उसने केंब्रिज युनिव्हर्सिटी की मॅथेमॅटिक्स ट्रायपोज् यह डिग्री प्राप्त करने के साथ साथ अपने अध्ययन में ‘संगीत’ इस विषय को भी अन्तर्भूत किया था। इंग्लैंड़ के निवास के दौरान उसने पियाने बजाना भी सीख लिया। उत्तम पियाने बजाने के साथ ही उसने फ्रेंच, जर्मन और इटालियन ये भाषाएँ भी आत्मसात की थीं, जो उसे भारतीय संगीत पर विभिन्न देशों में व्याख्यान देने के लिए काम आयीं।

प्रख्यात तत्त्वज्ञ तथा विचारक रोमाँ रोलाँ, बर्ट्रेड रसेल इन्होंने भी उसके संशोधन की काफी प्रशंसा की थी। रोमाँ रोलाँ तथा गुरुदेव रविंद्रनाथ टागोरजी ने भी संगीतक्षेत्र में करियर करने के उसके निर्णय का समर्थन किया। आगे चलकर योगी अरविंदजी के विचारों का उसपर प्रभाव पड़कर उसका मन विरक्त हो गया। लेकिन सुभाष के साथ उसका संपर्क हमेशा बना रहा। उस सुभाषसूर्य ने उसके सान्निध्य में आये हुए हर किसी को अपने मन की आवा़ज सुनने की सीख देकर मह़ज स्वतन्त्रतासंग्राम में प्रत्यक्ष योगदान देनेवाले ही नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी भरकस कार्य करनेवाले कई चिराग जलाये थे। केवल दिलीप ने ही नहीं, बल्कि आय.सी.एस. होने जा रहा किटीश भी, जो पहले ही भारत से एक धनी परिवार की लड़की से शादी तय कर इंग्लैंड़ आया था, वह भी सुभाष के विचारों से प्रभावित हुआ; और भारतमाता को बंदी बनानेवाले अँग्रे़जों की भारत की हुकूमत की नींव रहनेवाली आय.सी.एस. की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर अपने मनपसन्द क्षेत्र में संशोधन करने का निश्चय किया।

ख़ैर! अहम बात यह है कि अपने व्यक्तित्व की अनोखी ‘जादू’ से जगह जगह पर विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे कई चिराग़ जलानेवाला सुभाष पुनः अपनी ‘अ‍ॅकला जलो रे, अ‍ॅकला चलो रे’ इस जीवनधुन की तान पर मार्चपास्ट करते हुए अपनी मातृभूमि लौट रहा था। जिस भारतमाता को उसकी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से बाहर निकालकर उसे फिर से एक बार उसकी शान लौटाने के सपने देखे थे, दोस्तों के साथ दिनरात उसपर चर्चाएँ की थीं, उस भारतमाता के लिए प्रत्यक्ष रूप से कुछ कर दिखाने के लिए सुभाष अब उत्सुक हो चुका था।

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