नेताजी-१६

netajiबी.ए. की परीक्षा में प्राप्त हुए उज्ज्वल यश के कारण सुभाष पर लगा असफलता का धब्बा पूरी तरह मिट चुका था| अब बुरे दिन ख़त्म हो चुके थे| नयी उमंग के साथ उसने एम.ए. में ऍडमिशन लिया था| ‘एक्स्परिमेंटल सायकॉलॉजी’ इस विषय में एम.ए. करने का ध्येय उसने निश्चित किया था|

ऊपरि तौर पर देखा जाये, तो सबकुछ ठीकठाकचल रहा था कि इतने में ही अँग्रे़ज सरकार को अमर्याद सत्ता प्रदान करनेवाला ‘रौलेट ऍक्ट’ उसने पास कर लेने की ख़बर फ़ैल गयी और फिर सारा माहौल ही बिग़ड़ गया| सारा देश ख़ौल उठा| सरकार ने भी हमेशा की तरह दमनतन्त्र का इस्तेमाल करते हुए ग़िऱफ़्तारियों का दौर शुरू कर दिया| कोलकाता के छात्र तो पहले से ही सरकार की आँखों में चुभ रहे थे, क्योंकि उनमें से अधिकतर छात्र अनुशीलन समिति तथा युगांतर इन क्रान्तिकारी संगठनों के साथ जुड़े थे| उन्हें कैसे और कब किसी न किसी झमेले में उलझाया जाये, इसके मौक़े की ही सरकार को तलाश थी| सुभाष के एक बड़े भाई सुरेश सरकारी अफ़सर थे| उस वजह से उन्हें कई ‘ख़बरों’ के बारे में पहले से ही पता चल जाता था| सरकार किसी न किसी प्रकार से कोलकाता के छात्रों की नाक में नक़ील डालने के अवसर की तलाश में है और उन छात्रों की सूचि में सुभाष का भी नाम है, यह ख़बर लग जाते ही, यदि ऐसे ख़तरनाक हालातों में सुभाष कोलकाता में रहता है, तो उसकी जान को ख़तरा है, यह उन्होंने अपने पिता जानकीबाबू को भेजे हुए खत में लिखा था और वह जानकर बहुत ही तनावपूर्ण मानसिक स्थिति में जानकीबाबू फ़ौरन कोलकाता चले आये| उन्होंने शरदबाबू के साथ दिनभर मन्त्रणा कर कुछ तय किया और सुभाष को न्योता भेजा|

सुभाष पहले से ही इस घटनाक्रम से परेशान था और अब यह क्या नयी मुसीबत आ टपकी है, यह सोचते हुए वह पिता से मिलने गया| चिन्ता और तनाव भरे माहौल में पिता ने उसके साथ बातचीत करनी शुरू कर दी| उन्होंने जो सुभाष से कहा, वह सुनकर सुभाष हक्काबक्का रह गया|

सबसे पहले जानकीबाबू ने, सुभाष की शिक्षा नौका ने इतने सारे गोते खाने के बाद भी उसने जिस बुलन्द हौसले से तथा दृढ़निश्चय के साथ उसे पार लगाया और आज जिस मूर्धन्य स्थान को प्राप्त किया, उसके लिए उसकी सराहना की| लेकिन साथ ही अब उसके जैसे, बुद्धिमत्ता का अतुलनीय वरदान प्राप्त हो चुके छात्र को यहॉं पर एम.ए. वगैरा करने में समय व्यर्थ न गँवाते हुए, ठेंठ इंग्लैंड़ जाकर वहॉं की उपाधि अर्जित करनी चाहिए, यह भी उन्होंने कहा|

वह सुनकर सुभाष के मन में भावनाओं का बवँड़र उठ गया| प्रेसिडेन्सी कॉलेज से अपमानित कर उसे निकाले जाने के बाद जब कोई भी स्थानीय कॉलेज सुभाष को प्रवेश देने के लिए तैयार नहीं था, तब उस मानसिक गतिरोध से बाहर निकलने के लिए उसने स्वयं ही अपने पिता से अगली शिक्षा के लिए उसे इंग्लैंड़ भेजने की गु़जारिश की थी| लेकिन उस समय उसपर असफल छात्र का धब्बा लग चुका होने के कारण उसका इन हालातों में वहॉं जाना उचित नहीं होगा और भारत में कुछ कर नहीं सकता इसलिए इंग्लैंड़ आया, ऐसा कीचड़ बेवजह ही उसपर वहॉं उछाला जायेगा, यह भी उसके पिता ने उसे समझाया था| पहले तुम स्वयं पर लग चुके असफलता के धब्बे को मिटा दो और फिर सीना तानकर इंग्लैंड़ जाओ, यह भी उन्होंने कहा था|

….और अब वही सुभाष जब उसके पिताजी उसे इंग्लैंड़ जाने के बारे में पूछ रहे थे, तब दुविधा में पड़ गया था| इसकी वजह भी वैसी ही थी| पिता उसे किसी मामूली उपाधि को अर्जित करने के लिए इंग्लैंड़ नहीं भेज रहे थे, बल्कि उस समय भारत में सर्वोच्च प्रतिष्ठा की मानी जानेवाली ‘आय.सी.एस.- इंडियन सिव्हिल सर्व्हिस’ इस उपाधि को अर्जित करने के लिए भेज रहे थे|

इस परीक्षा को इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त होने का एक कारण यह था कि यह परीक्षा मूलतः इतनी कठिन रहती थी कि पूरे भारत में से साल भर में केवल कुछ गिने-चुने लोग ही आय.सी.एस. होकर लौटते थे| अँग्रे़जी, इतिहास, तत्त्वज्ञान इत्यादि नौ विषयों का विस्तृत पाठ्यक्रम रहनेवाली इस परीक्षा की दिशा में साधारण छात्र तो दूर की बात है, लेकिन मध्यम द़र्जे के छात्र भी एक कदम तक उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे| बहुत ही बुद्धिमान रहनेवाले, अध्ययन में हमेशा ही अच्छे नंबरों से पास होकर अपनी क़ाबिलियत को साबित कर चुके छात्र ही केवल इस परीक्षा को देने के बारे में सोचते थे| साथ ही यह परीक्षा विलायत जाकर देनी पड़ती थी और इसीलिए उसका खर्च यह आम इन्सानों के बस के बाहर की बात थी| लेकिन यदि कभी कोई होनहार छात्र आय.सी.एस. बनने के लिए जा रहा है, ऐसी मात्र ख़बर भी यदि फैल जाती थी, तो उस छात्र की प्रशंसा के पूल बनाये जाते थे| ऐसे ‘उपवर’ छात्र के दरवा़जे पर वधुपिताओं की कतारें लग जाती थीं| कुछ भी करके ऐसे ‘भावी आय.सी.एस.’ छात्र के साथ अपनी बेटी का रिश्ता तय करने के लिए वधुपिता हर मुमक़िन कोशिश करते थे, क्योंकि एक बार जब वह आय.सी.एस. होकर भारत लौट आता था, तब वह उनकी ‘पहुँच की बाहर का’ बन चुका होता था| इसीलिए ये वधुपिता – इस लड़के को शादी के बन्धन में यदि बॉंधा जा सकता है, तो अब ही, विलायत जाने से पहले ही; इस भावना के साथ कोशिशों में कोई क़सर बाक़ी नहीं रखते थे|

उस परीक्षा को प्रतिष्ठित माना जाने का दूसरा कारण यह था कि एक बार जब छात्र आय.सी.एस. होकर भारत लौट आता था, तब उसे उस समय इ़ज्जतदार मानी जानेवाली नौकरियों में से कम से कम मामलतदार की सरकारी नौकरी तो बड़ी आसानी से मिल जाती थी| यदि किसी का नसीब अच्छा हो, तो उसे और भी वरिष्ठ पद की नौकरी मिल जाती थी| रहने के लिए सरकारी बंगला, ख़िदमत में नौकर-चाकर, घोड़ों की बग्गी….साथ ही ये लोग जहॉं जाते, वहॉं मानो स्वर्ग में से देवता ही पृथ्वी पर पधारे हों, इस तरह से उनकी मेहमाननवा़जी की जाती थी| आम लोग तो विलक्षण कुतूहल के साथ उन्हें देखते रहते थे| यदि वे कभी रेलगाड़ी से यात्रा करने निकलते थे, तो स्टेशन पहुँचने के बाद सरकारी इतमाम के साथ कैसे उनका स्वागत किया जाता था, कैसे उनके लिए स्पेशल बोगी की व्यवस्था की जाती थी, कैसे वे स्टेशन पहुँचने तक – कभी कभी तो कई घण्टों तक भी उनके लिए रेलगाड़ियॉं भी रोक दी जाती थीं; इन जैसी कहानियॉं लोग अक़्सर बढ़ाचढ़ाकर कहते थे| इस वलय के कारण ही, अपनी बेटी ऐसे घर ब्याही जाये, ऐसा भला किस मॉं-बाप को नहीं लगेगा? सुभाष के भी एक-दो भूतपूर्व सहपाठी पिछले वर्ष आय.सी.एस. करने इंग्लैंड़ गये थे और वह अपनी शादी कोलकाता के प्रतिष्ठित खानदानी घर की धनी लड़कियों के साथ तय करके ही; यह भी सुभाष जानता था|

सुभाष के पास अपना फ़ैसला पिता से कहने के लिए मात्र चौबीस घण्टे का समय था|

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