नेताजी-२०

fl20110814x1c-200x200 आसमान की बुलंदियों को छूने की चाह से इंग्लैंड़ आये सुभाष ने बड़ी उमंग और दृढ़निश्चय के साथ इंग्लैंड़ की भूमि पर कदम रखा| जिंदगी ने एक और नया मोड़ ले लिया था| मन में दृढ़निश्चय था, अँग्रे़ज छात्रों को भारतीयों की क़ाबिलियत दिखाने का; इच्छा थी, खुले वातावरण में बिना किसी तनाव के उच्च द़र्जे की शिक्षा हासिल करने की|

….लेकिन सभी विद्यापीठों की ऍडमिशन्स तो सितम्बर के आख़िर में ही बन्द हो चुकी थीं| सुभाष को पहुँचने में देर हो चुकी थी| सुभाष जब अपने भाई सतीश के साथ वहॉं के क्रॉमवेल रोड पर स्थित ‘ऍडव्हायझर टू इंडियन स्टुडन्ट्स’ के ऑफिस पहुँचा, तब वहॉं के सलाहगार ने उसे स्पष्ट रूप से इस परिस्थिति से वाक़िफ़ कराया और अब केंब्रिज युनिव्हर्सिटी में दाख़िला मिलना नामुमक़िन है, यह भी कहा| लेकिन सौभाग्यवश सुभाष की मुलाक़ात वहीं पढ़नेवाले कुछ भारतीय छात्रों से हुई और उन्होंने उसे यहॉं बैठकर कोशिशें करने से अच्छा है कि तुम सीधे केंब्रिज जाकर वहीं से ऍडमिशन के लिए प्रयास करो, ऐसा मशवरा भी दिया|

सुभाष केंब्रिज पहुँच गया| उसका कोलकाता का एक दोस्त दिलीपकुमार रॉय वहॉं के ‘फिट्झविल्यम हॉल’ में पढ़ रहा था| हालॉंकि यह कॉलेज प्रत्यक्ष रूप से केंब्रिज युनिव्हर्सिटी का हिस्सा नहीं था, मग़र उससे संलग्न था| मि. रेडवे नामक एक भले व्यक्ति वहॉं के मुख्य थे| दिलीपकुमार सुभाष को उनके पास ले गया| उन्होंने सुभाष से सारी हक़ीक़त मालूम कर ली| चन्द कुछ दिनों की देरी के कारण इतने बुद्धिमान छात्र का एक पूरा साल बरबाद न हों, इसलिए उन्होंने खुद केंब्रिज युनिव्हर्सिटी को पत्र लिखकर सारी हक़ीकत बतायी और खानकामगारों की हड़ताल के कारण उसे इंग्लैंड़ पहुँचने में देर हुई, यह भी लिखा| यदि युनिव्हर्सिटी मंज़ूरी दे दे, तो ‘फिट्झविल्यम हॉल’ उसे दाख़िला दे सकता है, जिससे कि उसका पूरा साल बरबाद नहीं होगा, ऐसा भी अवश्य लिखा| सौभाग्यवश युनिव्हर्सिटी ने ‘हॉं’ कर दी और सुभाष ‘मेंटल अँड मोरल सायन्सेस’ में ट्रायपोज् (केंब्रिज का तीन साल का डिग्री पाठ्यक्रम) करने कॉलेज में दाखिल हो गया|

ट्रायपोज् के साथ साथ आय.सी.एस. की परीक्षा की भी पढ़ाई रहने के कारण दिनभर रहनेवाले लेक्चर्स के कारण वह थक जाता| हालॉंकि ट्रायपोज् की परीक्षा के लिए डेढ़ साल उसके पास था, लेकिन आय.सी.एस. की परीक्षा के लिए मह़ज सात महीनों की ही अवधि थी और इतने कम समय में, उस समय के पाठ्यक्रम के अनुसार अँग्रे़जी, संस्कृत, इकॉनॉमिक्स, पॉलिटिकल सायन्स, फिलॉसॉफी, इंग्लैड़ का इतिहास, आधुनिक युरोप का इतिहास, भूगोल और इंग्लिश लॉ इन नौ विषयों की पढ़ाई करनी थी| इसलिए लेक्चर्स को छोड़कर जो शेष समय मिल जाता, उसमें वह पढ़ाई पर ही सारा ध्यान दिया करता था|

लेकिन पढ़ाई के शुरू रहते भी उसका संवेदनशील मन अपने इर्दगिर्द की परिस्थिति का निरीक्षण भी करते रहता| ख़ासकर वहॉं की सामाजिक, राजकीय और शैक्षणिक परिस्थिति की भारत की परिस्थिति के साथ वह तुलना करते रहता| इस कॉलेज का समूचा कर्मचारीवृन्द – बिल्कुल अध्यापकों से लेकर कूड़ा-कचरा निकालनेवाले कर्मचारी तक सारे अँग्रे़ज ही थे| वहॉं का बूटपॉलिश करनेवाला भी अँग्रे़ज रहने के कारण, एक अँग्रे़ज मनुष्य मेरे – उस समय अँग्रे़जों के ग़ुलाम रहनेवाले भारत देश से आये हुए एक छात्र के जूतें पॉलिश कर रहा है, इस घटना में छिपे हुए विरोधाभास को महसूस कर सुभाष को बड़ा म़जा आता था और मन को कम से कम उस समय के लिए तो सुक़ून मिलता था|

वैसे ही वहॉं हर जगह ऩजर आनेवाला व्यक्तिस्वतन्त्रता का मुक्त आविष्कार उसके दिल को छू लेता| भारत में जब वह कोलकाता में पढ़ाई कर रहा था, तब वहॉं पर हर छात्र को – कहीं यह क्रान्तिकारी तो नहीं है, ऐसी शक्की निगाह से देखा जाता था| यहॉं पर ऐसी कोई भावना अंशमात्र भी दिखायी नहीं देती थी और ना ही किसी भारतीय छात्र के साथ, केवल वह भारतीय है इसलिए शक्की ऩजर से या तुच्छतापूर्वक बर्ताव नहीं किया जाता था| कॉलेज के अध्यापक भी भारतीय छात्रों के साथ बड़ी आस्थापूर्वक पेश आते थे| केवल अध्यापक ही नहीं, बल्कि रास्ते में, ट्राम में जिससे अभी अभी जान-पहचान हुई है, ऐसा अपरिचित अँग्रे़ज व्यक्ति भी उनकी ख़ैर पूछता और इतनी दूरी तय करके वे पढ़ाई करने इंग्लैंड़ आये हैं, इस बात की प्रशंसा भी करता था| उन्हें जितनी हो सके, उतनी मदद करता था| इस पार्श्‍वभूमि पर उसे कोलकाता का ऩजारा याद आ जाता था और उसका मन खिन्नता से भर जाता था| भारतीयों को उन्हीं के देश की ट्राम में सफ़र करते समय, सामनेवाली सीट पर अस्तव्यस्त बैठे हुए अँग्रेज से सँभलकर दूर बैठना पड़ता; यदि ग़लती से भी उस अँग्रे़ज को किसी भारतीय आदमी का धक्का लग जाता, तो उसे अपने ही देश में उसके भारतीय होने पर उस अँग्रे़ज से गाली-गलोच सुननी पड़ती| तत्कालीन ‘गुलाम’ भारत में हमेशा वंशभेद का सामना करना पड़नेवाले भारतीय छात्रों की अपेक्षा विलायत के भारतीय छात्रों की स्थिति काफ़ी बेहतर थी|

सुभाष को महसूस हुआ एक और व्यक्तिस्वतन्त्रता का आविष्कार यानि वहॉं के छात्र, किसी भी विषय में उनके मत, फिर चाहे वे कितने भी आत्यन्तिक क्यों न हों, उन्हें खुले दिल से अभिव्यक्त कर सकते थे और उन्हें सब्र से सुना भी जाता था| फिर सामनेवाले का मत चाहे उससे बिल्कुल विरोधी भी क्यों न हो, मग़र फिर भी वह अपनी बात तर्कशुद्धतापूर्वक पेश करने की कोशिश करता| लेकिन किसी की बात का गला नहीं घोट दिया जाता था, बल्कि मतस्वतन्त्रता का सम्मान ही किया जाता था| नवचेतना के इस स्वच्छन्द आविष्कार को देखते हुए सुभाष का मन अपने आप ही वहॉं के अँग्रेजों की, भारतस्थित अँग्रे़जों के साथ तुलना करने में जुट जाता| यहॉं इतनी सभ्यता से पेश आनेवाला अँग्रे़ज, एक बार जब देश छोड़कर भारत आता है, तो पता नहीं उसे क्या हो जाता है और वह भारतीयों के साथ जानवर की तरह क्यों पेश आता है, यह सवाल उसे परेशान करता था|

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