नेताजी-१२६

विदेश जाने की अपनी योजना के हर त़फ़सील को गहराई से जाँचकर वह कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही सुभाषबाबू एक एक कदम आगे बढ़ा रहे थे। इस अद्भुत मुहिम में मेरा सहभाग रहेगा, इस कल्पना से खुश हुआ उनका भतीजा शिशिर बड़े जोश के साथ भूख-प्यास भूलकर अपने काम में जुट गया था। लेकिन घर के तथा आसपास के लोगों का एवं परिस्थिति का भान रखकर उसे कई जगह अपने उत्साह को नियन्त्रित करना पड़ता था। अब वह टायर बदलना, गाड़ी की छोटी-मोटी मरम्मत करना इन कामों में माहिर हो गया था। वह हर रोज़ अपनी वाँडरर गाड़ी लाँग-ड्राईव्ह पर ले जाता था। एक बार तो वह बरद्वान हो आया। उसकी प्रगति देखकर सुभाषबाबू मन ही मन में खुश हो रहे थे।

सुभाषबाबू

यहाँ पर सुभाषबाबू की अन्य तैयारियाँ भी ज़ोरों पर थीं। अछरसिंग चीना के माध्यम से व सरहद स्थित अपने ‘मित्रों के’ सम्पर्क में थे। उनमें से ही एक नाम आगे आया – मियाँ अक़बर शाह। वे सुभाषबाबू के ‘फ़ॉरवर्ड ब्लॉक’ के वायव्य सरहद प्रान्त के प्रमुख संगठक कार्यकर्ता थे। चीना के ज़रिये सुभाषबाबू का सन्देश मिलने के बाद उन्होंने वहाँ के लोगों में से कुछ ख़ास विश्‍वसनीय लोगों को चुना, जो सुभाषबाबू के पेशावर पहुँचने के बाद पहाड़ी इला़के में से भारत की सरहद पार कर रशिया जाने तक उनकी सारी व्यवस्था देखनेवाले थे। वह सारी व्यवस्था करके वे सुभाषबाबू से मिलने आये।

शिशिर तहे दिल से और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ बताये गये काम कर रहा है, यह देखकर सुभाषबाबू ने अब ख़रीदारी की ज़िम्मेदारी भी उसपर सौंपी थी। वह भी किसी को शक़ न हो, इस तरह थोड़ा थोड़ा करके सामान खरीदता था। दोपहर में घर के लोगों का खाना होने के बाद घर के नौकर कुछ देर के लिए आराम करते थे। शिशिर खाने के बाद फ़ौरन ख़रीदारी के लिए निकलता था और घण्टे भर में ही वापस लौटता था। जब वह लौटता था, तब घर के अधिकतर नौकरचाकर सोये हुए रहते थे। सूटकेस, अटॅची, होल्डॉल यह सब ख़रीदकर हो गया। उसमें से कुछ सामान उसने सुभाषबाबू को दे दिया, तो कुछ सामान अपने कमरे में छुपाकर रखा।

वे अपने रोजमर्रा की वस्तुओं में से किसी भी वस्तु को अपने साथ नहीं ले जानेवाले थे। उन्हें सब वस्तुएँ नई खरीदनी थीं। यहाँ तक कि दस-बारह वर्ष पूर्व वे जिस चष्मे की फ़्रेम का इस्तेमाल करते थे, उसी तरह की फ़्रेम का चष्मा उन्होंने बनवाया। बिछायत, चद्दर, रुमाल, दाढ़ी का सामान, साबुन, तेल, पावड़र….स़फ़र में उपयोगी वस्तुओं से अब होल्डॉल, सूटकेस भरने लग गये। शक़ की गुंजाइश ही न हो, इसलिए इनमें से हर वस्तु ‘मेड इन इंग्लंड’ की मुहर देखकर खरीदी जा रही थी। अधिकतर वस्तुएँ मध्यवर्ती महानगरपालिका मार्केट में मिल गयीं।

तैयारियाँ चल ही रही थीं कि सुभाषबाबू के मन में, कोलकाता से बाहर कैसे निकला जाये, यह विचार शुरू हो गया। कोलकाता के पास ही रिशरा में शरदबाबू का एक फ़ार्म था। उनके मन में विचार आया कि क्यों न फ़ार्म हाऊस में एक रात बिताकर सुबह चुपचाप बरद्वान या असनसोल प्रस्थान किया जाये? या फ़ीर शरदबाबू के वूडबर्न पार्क रोड स्थित घर में कुछ दिनों तक रहकर मौका मिलते ही वहाँ से आगे बढ़ा जाये! लेकिन ये दोनों विचार उन्होंने ही रद कर दिये। क्योंकि एक बार उनके घर के बाहर कदम रखते ही, अब तक शिथिल हो चुकी पहरेदार पुलीस यन्त्रणा शक़ से जागृत होकर पुनः नये सिरे से उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जाती। नहीं, ऐसी आ़फत मोल लेना यक़ीनन ही मुनासिब नहीं है। जो कुछ होगा, वह इस घर से ही शुरू होगा, यह का़फ़ी देर तक सोचविचार करने के बाद उन्होंने तय किया।

दूसरा प्रश्‍न यह था कि भले ही घर से निकलने में वे क़ामयाब रहें, लेकिन सार्वजनिक स्थल पर कहीं न कहीं तो सरकार की गुप्तचरयन्त्रणा से पाला पड़कर उन्हें गिऱफ़्तार कर दिया जायेगा, तो उसके लिए क्या किया जाये?

इसका समाधान किया, मियाँ अक़बर शाह ने। की हुई तैयारी का ब्योरा देने के लिए वे कोलकाता सुभाषबाबू से मिलने आये थे।

तब उन्होंने यह सुझाव दिया कि सुभाषबाबू पठान के भेस में ही घर से बाहर निकलें!

यह सुझाव सुभाषबाबू को रास आया, क्योंकि इसमें शक़ की कोई गुंजाईश ही नहीं थी।

लेकिन पठान का भेस करना हो, तो उस पोशाक़ की खरीदारी भी किसी जानकार व्यक्ति को ही करनी चाहिए। सुभाषबाबू ने वह ज़िम्मेदारी मियाँ अक़बर शाह को ही सौंप दी। मियाँसाहब ने सुभाषबाबू के पैजामे का नाप लिया।

मियाँ अक़बर शाह के पेशावर लौटने के दिन सुभाषबाबू ने शिशिर को बुलाकर उनसे परिचित करवाया, ‘वे हमारे ‘स्नेही’ हैं और कुछ खरीदारी करनी है। तुम उन्हें गाड़ी में से ले जाकर उनकी व्यवस्था करना और फ़ीर होटल से उनका सामान लेकर उन्हें हावड़ा स्टेशन छोड़ आना’ यह शिशिर से कहा।

उसके अनुसार शाम को मियाँसाहेब को लेकर वह निकला। गाड़ी वही चला रहा था और ड्रायव्हर पिछली सीट पर बैठा था। उस समय कोलकाता की धरमतला स्ट्रीट पर स्थित ‘बाचेल मोल्ला’ इस मशहूर दूकान में सभी पेशावरी वस्तुएँ मिलती थीं। शिशिर उन्हें वहाँ ले गया। मियाँ साहब ने लम्बे-चौड़े पैजामें, गोंड़ा लगायी हुई काली फ़ैज कॅप, सॉक्स की खरीदारी की। उसके बाद वे मिर्ज़ापुर स्ट्रीट स्थित होटल में वापस आये। वहाँ से उनका सामान लेकर शिशिर ने उन्हें हावड़ा स्टेशन छोड़ा। उनसे विदा लेकर लौटते हुए गाड़ी घर तक पहुँच ही गयी थी कि रास्ते में अचानक शिशिर के बगल में बैछे ड्रायव्हर की नज़र पिछली सीट पर गयी, तो वहाँ मियाँसाहब द्वारा खरीदे गये सामान की बॅग उसे दिखायी दी और उसे देखकर वह चौंक गया। गाड़ी चलानेवाले शिशिर को इस बारे में इत्तला करके ‘अब तक मियाँसाहब की ट्रेन नहीं छुटी होगी। हम गाड़ी पुनः हावड़ा स्टेशन ले चलते हैं’ यह पूछा।

तब शिशिर ने उसे, कुछ ख़ास नहीं हुआ है, यह दर्शाते हुए एकदम ‘कॅज्युअली’ – ‘अरे, लगता है कि मेहमान शायद अपनी थैली भूल गये! ख़ैर, बाद में पोस्ट से भेज देंगे’ यह कहा। लेकिन उसके आँखों की हँसी ड्रायव्हर को दिखायी नहीं दी।

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