नेताजी-२१

501341337137283 (1)हालाँकि सुभाष के मन में आय.सी.एस. की परीक्षा देने की इच्छा नहीं थी, मग़र फिर भी उसने इस मामले में अपने पिता के साथ झूठ नहीं बोला। वह तो इंग्लैंड़ जाने के बाद बिना पढ़ाई किये भी आय.सी.एस. परीक्षा दे सकता था और फेल होने के बाद, ‘वैसे तो यह परीक्षा काफी मुश्किल रहती है और इतने कम समय में पढ़ाई भी कैसे पूरी हो सकती थी’ ऐसा हौआ भी खड़ा कर सकता था। लेकिन उसकी सच से साथ पाबन्दी अटूट थी। जब वह किसी का जिम्मेदारी का स्वीकार कर लेता, तब वह उसे पूरा करने में जी-जान लगा देता था। उसके स्वभाव के इस पहलु से वाक़िब रहने के कारण उसके पिता भी बेखौफ थे। सुभाष ने पिताजी की आय.सी.एस. परीक्षा देने की शर्त को मानकर ही इंग्लैंड़ जाने के लिए ‘हाँ’ की थी। सुभाष की ‘हाँ’ सुनकर इतमिनान के साथ कटक लौटे जानकीबाबू से जब सुभाष की देशभक्ति और उसके मन में अँग्रे़जों के प्रति रहनेवाली चीढ़ की भावना भली-भाँति जाननेवाली सुभाष की माँ ने पूछा कि ‘वह इंग्लैंड़ जा तो रहा है, लेकिन क्या वह आय.सी.एस. देगा?’ उसपर जानकीबाबू ने ‘मैं सुभाष को भली-भाँति जानता हूँ। उसने एक बार जब ‘हाँ’ कर दी है, तो वह यक़ीनन परीक्षा देगा’ यह बड़े भरोसे के साथ कहा था। सुभाष ने भी उनके विश्‍वास को ठेंस नहीं पहुँचायी।

सुभाष के मन की घडन ही कुछ अनोखी सी थी। स्वामी विवेकानन्दजी के विचारों के प्रभाव से, जीवन में घटित होनेवाली हर एक घटना विधाता की इच्छा से ही हो रही है, इस दृष्टि से वह देखता था। अत एव उसमें से कुछ न कुछ अवश्य अच्छा ही निकलेगा, इस बारे में उसे कोई सन्देह नहीं रहता था। प्राध्यापक ओटन मामले में जब उसे कॉलेज से रस्टिकेट किया गया था और उसे घर बैठना पड़ा था, उस दौर में भी विषादावस्था की पहली लहर के घटने के बाद जब वह अन्तर्मुख होता था, तब उसे उसने सत्य की संलग्नता को क़ायम रखने में कोई समझौता नहीं किया, इस बात की खुशी ही होती थी और चाहे कितने भी तूफानी हालात क्यों न हों, यदि मन का निश्‍चय अटल हो, तो सच की पाबन्दी को बरक़रार रखना नामुमक़िन नहीं है, यह मैंने इस मामले में सिखा, यह सुभाष ने एक जगह कहा था। भविष्य में भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम का नेतृत्व उसके द्वारा किये जाने का स्रोत उसे इसी मामले में दिखायी दिया और स्वयं के आत्मबल का प्रथम एहसास भी हुआ था। क़ामयाब गगनस्पर्शी नेतृत्व को जो एक त्याग की नींव रहती है, ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’ यह जीवनसूत्र रहता है, वह भी उसे अपने सन्दर्भ में इसी मामले में प्रतीत हुआ था। सच के लिए किसी भी बात का त्याग क्यों न करना पड़े, लेकिन सच का हाथ कभी नहीं छोडूँगा, इस भूमिका में जीना नामुमक़िन न होने का साक्षात्कार भी उसे इसी मामले में हुआ। ऐसी मनोभूमिका रखनेवाली ईश्वर की कौनसी सन्तान भला कामयाब नहीं होगी! उसके स्वभाव के इस पहलु की ओर उसके विरोधक भी सम्मानपूर्वक देखते थे। इस मामले में ‘खलनायक’ साबित हुए प्राध्यापक ओटन भी जब रिटायर्ड होकर इंग्लैंड़ लौट गये, तब भी उनके स्मृतिपटल पर सुभाष का नाम क़ायम था। आगे चलकर १९६७ में उन्होंने सुभाष की देशभक्ति का और भीमकाय तुफानो के साथ टक्कर लेनेवाले असीम धैर्य का गौरव करनेवाली एक कविता भी लिखी।

आय.सी.एस. की पढ़ाई के साथ साथ सुभाष आसपास के हालातों पर भी ऩजर रखे हुए था। वहाँ की व्यक्तिस्वतन्त्रता से वह बहुत ही मोहित हो चुका था, लेकिन साथ ही इस व्यक्तिस्वतन्त्रता को इस्तेमाल करते हुए जिस जिम्मेदारी का एहसास रखना पड़ता है, वह विलायत के छात्रों में, दरअसल सभी नागरिकों में पूरी तरह मौजूद है, यह भी उसने देखा था। कई बार हम व्यक्तिस्वतन्त्रता का बड़े जोर-जोर से उद्घोष करते हैं, लेकिन उसे निभाने के लिए जिस जिम्मेदारी का अधिष्ठान जरूरी रहता है, उसका एक कण भी हममें नहीं रहता। इंग्लैंड़ में सुभाष को इस मामले में किसी भी प्रकार का विरोधाभास कहीं पर भी ऩजर नहीं आया। अपनी मातृभूमि की सड़कें साफसुथरी रखने जैसे छोटे से मामले में भी लोगो का आग्रह देखकर वह अचंभित हुआ था। यदि किसी के मन में देशभक्ति ठसाठस भरी है और उसके आचरण में से भी वह साफ़ दिखायी दे रहा है, तब ही उसे किसी व्यक्ति के देशविरोधी बर्ताव को देखकर उसे बोलने का हक़ है, यह उसने मान लिया था।

वहाँ की युनिव्हर्सिटीज् में क़िताबी पढ़ाई के साथ साथ – ये बच्चें कल के देश के जिम्मेदार नागरिक बननेवाले हैं, इस ऩजरिये से उनके मन को आकार प्रदान करने का काम किया जाता था। अत एव ‘मैं एक जिम्मेदार देश का जिम्मेदार नागरिक हूँ’ यह भावना बड़ी सहजता से ही विलायत के छात्रों के मन पर बचपन में ही अंकित की जाती थी। अत एव दुनिया के किसी भी कोने में जाने के बाद, यह ऑक्सफ़ोर्ड अथवा केंब्रिज युनिव्हर्सिटी का छात्र है, यह मालूम होते ही सामनेवाला व्यक्ति उससे साथ अदब से पेश आता था। एक ग़ुलाम देश में से एक आ़जाद वातावरण में पढ़ने के लिए गये सुभाष को तो यह बात प्रकर्षता से महसूस होती थी और लगभग सभी अँग्रे़ज नागरिकों के मन में स्वयं से स्वयं के देश को बढ़कर मानने का तथा सर्वत्र पाया जानेवाला एक तरह का दुर्दम्य आशावाद यह देखकर राष्ट्रीय शिक्षा का महत्त्व उसकी समझ में आया। ये दोनों बातें होनेवाले वहाँ के नागरिकों का वहाँ की सरकार पर अंकुश है, यह भी उसने मन ही मन द़र्ज किया था। ये दोनों बातें जब देश के हर एक नागरिक के मन में ठसाठस भरी हुई होंगी, तब ही हमारे देशवासी पर भरोसा करने की ताकत प्राप्त होती है और इस भरोसे से ही कई कार्य हो सकते हैं, यह भी उसने अनुभव किया था। एक बार सुभाष किसी पुस्तक को ख़रीदने के लिए वहाँ की एक पुस्तकों की दुकान में में गया था, लेकिन उस समय उसकी जेब में पर्याप्त पैसे नहीं थे। तब इंग्लैंड़ के उस अजनबी दुकानदार ने ‘फिलहाल यह पुस्तक आप ले जाइए, बाक़ी के पैसे बाद में दे दीजिए’ यह कहा था। वह सुनकर सुभाष अचंभित हुआ था और भूतकाल में कोलकाता में घटी इसी तरह की एक घटना उसे याद आयी। उसी के देश के एक ‘भारतीय’ दुकानदार ने, पूरी रक़म अदा किये बिना उसे पुस्तक देने से इन्कार करते हुए, उसके प्रति दिखाया हुआ अविश्‍वास भी उसे याद आया। अपने देशवासी भाई पर इस तरह का भरोसा करने के लिए पहले हर देशवासी के मन में प्रखर देशभक्ति की भावना जागृत रहनी चाहिए, इस पर सुभाष को यक़ीन हो गया।

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