नेताजी-१९

admin-netajiआय.सी.एस. की डिग्री प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड़ जाने का निर्णय लेते समय सुभाष के मन में निर्माण हुए वैचारिक आन्दोलन, भारतमाता से किसी भी परिस्थिति में प्रतारणा न करने के स्वयं के मन से किये हुए निर्णय से शान्त हो गये। साथ ही हेमन्त ने भी उसके विचारों का समर्थन करने के कारण उसके मन का बोझ हलका हो चुका था और मन इस नये पर्व की अधीरतापूर्वक राह देख रहा था।

१५ सितम्बर १९१९ को प्रस्थान करनेवाली बोट का टिकट मिल चुका था। अब प्रस्थान करने  में केवल दस-बारह दिन ही बाक़ी थे। इस प्रस्थान की तैयारी में शरदबाबू तथा विभाभाभी पूरी तरह से जुट गये थे, सुभाष को निरन्तर कुछ न कुछ सूचनाएँ देते रहते थे। बीच बीच में विभाभाभी जब सुभाष को शादी की बात पर से छेड़ती, तब वह शरमा जाता था।

अब प्रस्थान करने का दिन आ गया। सुभाष जिस बोट से प्रस्थान करनेवाला था, उस ‘एस.एस. कलकत्ता’ नामक बोट का प्रस्थान समय सुबह छः बजे था। सुभाष और उसके घरवाले रात के सन्नाटे में कार से बन्दरगाह की ओर निकल पड़े। लगभग सारे लोग चुपचाप थे। सुभाष आय.सी.एस. जैसी महत्त्वपूर्ण परीक्षा देने इंग्लैंड़ जा रहा है, इस बात की अपेक्षा जानकीबाबू को तो आनन्द इस बात का था कि वह यहाँ के विस्फोटक माहौल से दूर जा रहा है। साथ ही उन्हें यह सोचकर दुख भी हो रहा था कि वह इतनी दूर जा रहा है कि आगे के कुछ महीनों तक उनकी उससे मुलाक़ात तक नहीं हो पायेगी। सुभाष की माँ का हाल देखा नहीं जा रहा था। रास्ते में कार कालीघाट पर रुकी। अपनी प्रिय आराध्य काली माँ के दर्शन किये बिना सुभाष भला कैसे प्रस्थान करता? माँ और भाभी पूजा की तैयारी में जुट गये। लेकिन सुभाष का ध्यान वहाँ नहीं था। वह एकटक ‘उस’ माँ – काली माँ की ओर देख रहा था। रात के अन्धेरे में काली माता के उग्र चेहरे को देखकर कोई भी डर जाता, लेकिन उसके बच्चों को भला डर कैसा? उसका यह लाड़ला सपूत उसका आशीर्वाद प्राप्त कर एक बहुत बड़े कार्य की शुरुआत करने सात समुन्दर पार जाने के लिए निकल पड़ा था। रात के उस अन्धेरे में कालीमाता की ओर देखते देखते सुभाष का मन धीरे धीरे प्रकाशमान हो रहा था और उसका निश्‍चय वज्रलेप में बदल रहा था। उसका आत्मविश्‍वास धीरे धीरे बढ़ता ही जा रहा था। असुरों का निर्दालन करनेवाली उस माँ के सामने भावविभोर होकर मानो सुभाष ने अपनी दूसरी माता – अपनी मातृभूमि को ग़ुलामी की जंजीरों से आ़जाद करने की कसम खायी।

माता के दर्शन कर सब लोग बन्दरगाह पहुँच चुके। बन्दरगाह पर हेमन्त और उनके कुछ दोस्त भी सुभाष से अलविदा कहने आये थे। प्रिय मित्र के वियोग की कल्पना ही हेमंत को बेचैन कर रही थी। बड़ी मुश्किल से उसने अपने आप को सँभाला था। सारी दोस्तमंडली सुभाष को अपना ‘आप्त’ ही मानती थी और इसी वजह से उसे अलविदा कहते हुए सबने मानो अपने दिल पर पत्थर ही रखा था। क्या सुभाष कहीं हमसे हमेशा के लिए जुदा तो नहीं हो जायेगा, इस खयाल से उनका दिल काँप रहा था। रुख़सत की घड़ी कभी न आये, ऐसी ही सभी की इच्छा थी।
लेकिन क्या समय कभी किसी के लिए रुका है?

बोट ने भोंपू बजाया। सुभाष ने भी स्वयं को सँभालकर दोस्तों से अलविदा कहकर बोट में प्रवेश किया। बोट किनारे से दूर हो रही थी। किनारा आँखों से ओझल हो जाने तक सुभाष हाथ हिलाकर घरवालों से अलविदा कह रहा था।

धीरे धीरे किनारा दिखायी देना बन्द हो गया। सुभाष पुनः अपने खयालों में खो गया। संमिश्र विचारों की धाराएँ उसके मन में बह रही थी। इच्छित रेडियो स्टेशन की ओर रेडियो की सुई ले जाते हुए जैसे विभिन्न स्टेशन्स पल भर के लिए अपना अस्तित्व जाहिर करते हैं और फिर गुम हो जाते हैं, उसी तरह उसके मन में विचारों की लहरें उठ रही थीं। बीच में ही उसे अपनी माँ का चेहरा दिखायी देता था और उसका दिल भर आता था। सचमुच, उस माँ ने दिल पर पत्थर रखकर मुझे इतने दूर जाने की अनुमति दी है। उतने में ही, बन्दरगाह पर उसे अलविदा करने आये हेमंत का विरहव्याकुल चेहरा उसे दिखायी देता था। तो कभी अ‍ॅडमिशन के विचार दिल में बवाल मचा रहे थे। एक तो मुझे निकलने में इतनी देर हो चुकी है, क्या मेरा अ‍ॅडमिशन हो पायेगा? कहीं इस पूरे साल को गँवाना तो नहीं पड़ेगा? यह आशंका भी उसे घेर लेती थी।

जैसे जैसे दिन बीतने लगे, वैसे वैसे उसी की तरह कुछ न कुछ पढ़ने के लिए विदेश जा रहे कुछ छात्रों के साथ उस बोट में उसका परिचय हुआ और उनका एक अच्छा-ख़ासा ग्रुप भी बन गया। उनमें कुछ ‘नमूने’ भी थे। उनके सन्दर्भ में हँसीम़जाक करना यही उन सबके लिए मनरंजन का साधन था। विदेश जाने से पहले शादी तय हो चुके एक विरही ‘प्रेमी’, अपनी होनेवाली जोरु के विरह से व्यथित होकर विरहगीत गाते रहते थे, हररो़ज अपनी मंगेतर को खत लिखते थे। फिर सुभाष आदि छात्र गंभीर मुद्रा कर उन्हें और भी चढ़ाकर उस रंग में रंगाकर उस ऩजारे का लु़फ़्त उठाते थे। बोट में सवार अँग्रे़ज यात्री युवाओं के इस ग्रुप को बड़ी तुच्छतापूर्वक देखते थे और उनसे दूर ही रहते थे, लेकिन इस ग्रुप को इस बात की तो जरासी भी परवाह नहीं थी, वे अपनी ही मस्ती में मस्त रहते थे। अँग्लो-इंडियन लोगों की हालत बदतर थी। वे इन भारतीय छात्रों को तुच्छता के ऩजरिये से देखते थे और अँग्रे़ज उनको! ना तो वे भारतीय लोगों में शामिल होते थे और ना ही अँग्रे़ज लोग उन्हें अपने में शामिल करते थे।

इस तरह सागर की लहरों को चीरती हुई बोट आगे बढ़ रही थी। वह सुएझ कॅनॉल तक पहुँची ही नहीं होगी कि उसी दौरान इंग्लैंड़ में कोयला ख़ानम़जदूरों की बड़ी हड़ताल शुरू हुई और बोट को सात-आठ दिनों तक सुएझ में ही रुकना पड़ा। सुभाष की चिन्ता अब और भी बढ़ गयी। एक तो मैं पहले से ही देर से जा रहा हूँ और उसमें यह नयी मुसीबत! अब शायद अ‍ॅडमिशन से मुझे हाथ धोना पड़ेगा। लेकिन हड़ताल ख़त्म हो जाने के बाद बोट ने पुनः अपने अगले सफर की शुरुआत करते ही ये खयाल सुएझ के साथ पीछे छूट गये।

देखते देखते ‘एस.एस. कलकत्ता’ ने इंग्लैंड़ के बन्दरगाह की जलसीमा में प्रवेश किया।
२० अक्तूबर को बोट लंदन के बन्दरगाह पहुँच गयी और सुभाष ने इंग्लैंड़ की सऱजमीन पर पहला कदम रखा।

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