नेताजी-७

Netaji Subhas Chandra Bose - 1936-नेताजी
नेताजी

सुभाष मॅट्रिक की परीक्षा में दूसरे नंबर से पास हुआ, इस बात पर किसी को यक़ीन ही नहीं हो रहा था; क्योंकि मॅट्रिक की परीक्षा के पहले पिताजी के बार बार समझाने के बावजूद भी सुभाष (नेताजी) के देर रात तक घर के बाहर रहने में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था। दरअसल उसका स्वभाव ही क्रान्तिकारी था। मवेशी मार्ग पर चलना उसे नापसन्द था। अँग्रे़जों द्वारा भारत के सन्दर्भ में अपनाये गये सौतेले रवैये के कारण उसकी नस नस में अँग्रे़जों के प्रति तीव्र ग़ुस्सा ठसाठस भरा हुआ था और इस ग़ुस्से के कारण ही इन ख़ूँखार अँग्रे़जों के चँगूल से भारत को यदि छुड़ाना हो, तो ‘ईंट का जवाब पत्थर से’ देना ही पड़ेगा, यह उसकी मनोभूमिका बन चुकी थी। इसी वजह से क्रान्तिमार्ग के प्रति आकर्षित होकर क्रान्तिकारियों के साथ उसका उठना-बैठना भी बढ़ने लगा था। इन सब बातों से दुखी होकर उसके मॉं-बाप ने उसके पास होने की आशा तो कबकी छोड़ दी थी और वैसा उसके पिताजी ने उसे सूचित भी किया था।

लेकिन चुनौतियों का स्वीकार करना ही जिसका स्वभाव था, ऐसे सुभाष का दिल पिता के कटुवचनों के कारण ख़ौल उठा और उसका मूल क्रान्तिकारी स्वभाव पुनः उफान पर आ गया। एक जुनून के साथ दिनरात मेहनत करके चन्द पन्द्रह दिनों में ही अपनी तीव्र बुद्धिमत्ता के बल पर उसने मॅट्रिक की परीक्षा में दूसरा नंबर पाकर कामयाबी के शिखर पर झंड़ा गाड़ दिया।

उसकी इस अनपेक्षित कामयाबी से स्तम्भित होकर उसके पिता ने उसे अगली पढ़ाई के लिए कटक में न रखते हुए कोलकाता – उनके बड़े बेटे शरद के पास भेजने का फ़ैसला किया। कोलकाता के एक नामचीन वक़ील रहनेवाले शरदबाबू ने अपनी मेहनत और बुद्धिमत्ता के बल पर कोलकाता में तीन-मंजिला हवेली बॉंधने तक प्रगति की थी। सुभाष के अन्य दो बड़े भाई भी – एक कामयाब डॉक्टर और एक यशस्वी उद्योजक बनकर कोलकाता में शरदबाबू के साथ ही रहने लगे थे। शरदबाबू के प्रति सुभाष के मन में काफ़ी आत्मीयता थी। सुभाष अपने मन की बात कई बार शरदबाबू को लिखे खतों में अभिव्यक्त करता था। शरदबाबू की स्नेहशील पत्नी विभावती एक मॉं की तरह ही सुभाष का खयाल रखती थी। अत एव एक बार सुभाष को कटक से बाहर निकालकर कोलकाता उसके स्नेहशील भाइयों के साथ यदि रखा जाये, तो उसके मन पर रहनेवाला ‘बुरी संगत’का भी अपने आप ही कम होगा, इस विचार के साथ जानकीबाबू ने उसकी अगली पढ़ाई कोलकाता के कॉलेज में कराने का फैसला किया।

अपने मॉं-बाप के साथ सुभाष कोलकाता आया। कोलकाता के सबसे प्रतिष्ठित माने जानेवाले प्रेसिडेन्सी कॉलेज में उसे दाख़िल कराया गया। उसे शरदबाबू के जिम्मे सौंपकर माता-पिता निश्चिंत हो कटक लौट गये।

मॉं-बाप की छत्रछाया से बाहर निकलकर अब बाहरी दुनिया में कदम रखने के लिए अनुभवप्राप्ति की दहली़ज पर सुभाष खड़ा था। नये रास्ते उसके स्वागत के लिए बेताब थे।

मॅट्रिक की परीक्षा दूसरे नंबर से पास कर चुका छात्र हमारे कॉलेज में दाख़िल हो चुका है, यह ख़बर कॉलेज में फैल ही चुकी थी। इसीलिए सुभाष के कॉलेज में कदम रखने से पहले ही उसके नाम का एक रोब वहॉं पर बन चुका था। साथ ही कटक के उसके विवेकानंदप्रेमी ग्रुप के कई सहाध्यायियों ने भी प्रेसिडेन्सी कॉलेज में ही प्रवेश लिया था। साथ ही वहॉं पर भी पहले से ही एक ‘नव विवेकानंद समूह’ सक्रिय था। जाहिर है कि सुभाष और कटक से यहॉं दाखिल हुए उसके सहाध्यायी, ये सभी उस समूह में शामिल हुए। हाथों में ध्येयप्राप्ति की मशाल लिये हुए देशभक्ति के पथ पर चलनेवाले तेजस्वी युवाओं का वह ग्रुप था। सुभाष के व्यक्तित्व में ही कुछ ऐसा अनोखा जादू था कि उसके प्रति लोग स्वाभाविक रूप से आकर्षित हो ही जाते थे। कुछ ही दिनों में यहॉं पर भी वह इस समूह का भी नेता बन गया। लेकिन सशस्त्र क्रान्ति के मार्ग से दूर रहते हुए आजीवन देशसेवा करने की सौगन्द यह ग्रुप खा चुका था। वहीं, सुभाष के भावविश्‍व में उसे निरन्तर पुकारनेवाली, अँग्रे़जी ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई भारतमाता उसे चैन से सोने नहीं देती थी। कोलकाता के कॉलेज में दाखिला लेते हुए सुभाष को प्रमुख रूप से इस बात की खुशी थी कि कोलकाता की पिछली मुलाक़ात में उसका जिन क्रान्तिकारियों के साथ परिचय हुआ था, उनसे अब उसका रिश्ता दृढ़ हो सकता था।

‘नव विवेकानंद समूह’ का कार्य फिर एक बार ते़ज हो गया। कुछ समय पहले कटक में पिता की मृदु चेतावनी के कारण गुरु की खोज करने की बात सुभाष ने स्थगित कर दी थी, अब उसने पुनः अपनी खोज शुरू कर दी। कोलकाता के सारे मठ, आश्रम वह ढूँढ़ चुका था। अध्यात्म का मार्ग बन्द क्लासरूम की चहारदीवारियों में मिलनेवाला नहीं है, उसके लिए सभी दीवारों को लॉंघकर बाहरी दुनिया में घूमते हुए लोकाभिमुख रहना जरूरी है, दीन-दुखियों के आँसू पोछना आवश्यक है, यह बात वह समूह की सभाओं में आत्मीयतापूर्वक कहता और बाक़ी के सहाध्यायी मन्त्रमुग्ध होकर उसकी बातें सुनते। छुट्टियों में जरूरतमन्दों की सेवा करने जब वे बाहर निकलते थे, तब दरिद्रता के ख़ौंफ़नाक चेहरे को देखकर उन्हें वास्तविकता का एहसास हो जाता था। हमारे भारत में समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा भी है, जिसे रो़जीरोटी भी नसीब नहीं होती, बीमार हो जाने पर वह डॉक्टर के पास न जाते हुए झाड़फूँक करनेवाले भगत के पास जाता है, एक ही वस्त्र होने के कारण उसे ही हररो़ज धोकर सूखने के बाद पहनता है और तब ही वह घर के बाहर निकल पाता है। अपनी मातृभूमि की इस दर्दनाक वास्तविकता को देखकर सुभाष का दिल दहल उठा।

उसकी गुरु की खोज तो जारी ही थी। एक बार ऐसे ही यकायक निर्णय कर समूह के कई सदस्य तीर्थक्षेत्रों में गुरु की खोज करने कोलकाता से निकल पड़े। हरिद्वार, वाराणसी, मथुरा, वृंदावन इस मार्ग से उनकी खोज जारी थी। एक तीर्थक्षेत्र में घटना ऐसी हुई कि भूख लगने के कारण एक मठ में जब वे भोजन करने बैठे थे, तब उन्हें ‘मछलियॉं खानेवाले’ कहकर वहॉं के साधुओं ने बाहर निकाला। इस वर्गविग्रह के कारण सुभाष फिर एक बार अन्तर्मुख बन गया कि हमने ही हमारे इर्द-गिर्द कितनी बड़ी बड़ी दीवारें इस भारत देश में बनाकर रखी हुई हैं।

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