नेताजी-११८

सुभाषबाबू के अनुमान के अनुसार ही इंग्लैंड़ ने जर्मनी के ख़िलाफ़ युद्ध का ऐलान कर दिया था। ३ सितम्बर को चेन्नई के मरिना बीच पर हुई विराट सभा में यह ख़बर मिलते ही, इस अवसर का किस तरह और कहाँ तक लाभ उठाया जा सकता है, इस दिशा में सुभाषबाबू के मन में विचारों के चक्र गतिमान हो गये। ‘तानाशाह हिटलर के ख़िलाफ़ इंग्लैंड़ द्वारा घोषित किया गया युद्ध’ यह रंग उसे दिया गया होने के कारण, कई लोग युद्ध में फँसे इंग्लैंड़ को पेंच में पकड़ने के सन्दर्भ मे दुविधा में थे। हालाँकि यह सच था कि हिटलर तानाशाह था और इंग्लैंड़ दुनियाभर में जनतन्त्र को ढोल पीट रहा था, लेकिन उनका भारत का तत्कालीन शासन किसी तानाशाह से रत्ती भर भी कम नहीं था। इसीलिए यदि सत्ता को पलट देना हो, तो ‘दुश्मन का दुश्मन वह अपना दोस्त’ इस चाणक्यनीति को अपनाने के अलावा कोई और विकल्प सुभाषबाबू को नज़र नहीं आ रहा था। इस मामले में ‘अँग्रेज़ों की ग़ुलामी की ज़ंजीरों में से भारत को मुक्त करने में हमारी मदद करनेवाला, वह हमारा दोस्त’ यह एकमात्र समीकरण सुभाषबाबू के मन में था।

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इसी दौरान उनके नाम एक टेलिग्राम आया। उसे पढ़कर वे ताज्जुब में ही पड़ गये। वह टेलिग्राम गाँधीजी ने खुद भेजा था। करवट बदल रहे हालात पर चर्चा करने के लिए ८ सितम्बर को वर्धा में काँग्रेस कार्यकारिणी की आपात् बैठक बुलायी गयी थी। उसमें गाँधीजी ने व्यक्तिगत रूप से ‘तुम्हें उपस्थित रहना ही होगा’ यह सन्देश भेजकर सुभाषबाबू को बुलाया था। दरअसल महीने भर पहले ही जिस कार्यकारिणी ने प्रस्ताव पारित करके उन्हें पक्ष के सभी पदों से पदच्युत कर दिया था, वहाँ जाने के लिए वे ऊब चुके थे। लेकिन व्यक्तिगत मानसम्मान को अहमियत न देनेवालों में से एक होने के कारण, शायद इस बैठक में से कुछ अच्छा नतीजा सामने आ सकता है, इस आशावादी दृष्टिकोण के साथ और मुख्य रूप से स्वयं गाँधीजी द्वारा न्योता दिये जाने के कारण उनके निमन्त्रण का आदर रखने के लिए अपने अगले कार्यक्रम में थोड़ा बहुत परिवर्तन कर सुभाषबाबू इस बैठक में उपस्थित रहे। बैठक में उन्हें गाँधीजी ने अपने बगल में बिठा लिया है, यह देखकर कई लोग भौंचक्के रह गये। लेकिन मुश्किल में फँसे अँग्रेज़ों की मजबूरी का फ़ायदा उठाकर किसी देशव्यापी आन्दोलन को छेड़ने की उनकी सूचना को कार्यकारिणी से कुछ ख़ास प्रतिसाद नहीं मिला और युद्ध की मुसीबत में फँसे इंग्लैंड़ को और मुसीबत में डालना मुनासिब नहीं है, यह तय किया गया। जिस आशा के साथ सुभाषबाबू बैठक में उपस्थित रहे थे, उसपर पानी फेर गया।

उस बैठक में तथा उसके बाद गाँधीजी के आग्रह के कारण उनके आश्रम में एक दिन ठहरते हुए उनके मन में हाल ही में बीच बीच में उठनेवाली ‘मेरी रणभूमि कहीं दूर है’ यह भावना तेज़ी से उछलकर उनके सामने आ रही थी।

कोलकाता लौटते हुए रास्ते में लखनौ में समविचारी पक्षों के कार्यकर्ताओं की बैठक बुलायी थी। लेकिन ‘सम-विचार’ के होने के बावजूद भी उनके ‘सम-आचार’ के न होने का अनुभव उन्हें यहाँ पर भी आया। शुरू शुरू में बड़े जोश के साथ उनसे आ मिले कई युवा नेता प्रत्यक्ष कृति का समय आते ही उनका साथ छोड़ जाते हुए दिखायी दे रहे थे। सुभाषबाबू ने बैठक बुलायी है, यह ख़बर पुलीस को लगते ही गत दो दिनों से इस बैठक में उपस्थित रहने के लिए आ रहे कार्यकर्ताओं को ग़िऱफ़्तार किया जा रहा था और इस वजह से जो बचे थे, उनका भी सब्र टूट रहा था। हालाँकि सुभाषबाबू के विचार सभी को मान्य थे, लेकिन युद्ध की मुसीबत ओढ़ लेना कोई भी नहीं चाहता था। इसलिए उनसे किसी प्रकार की अपेक्षा न रखते हुए बैठक का समापन करके वे कोलकाता के लिए रवाना हुए। उनके मन में कुछ विशिष्ट विचारचक्र शुरू था। लखनौ स्टेशन में गाड़ी की प्रतीक्षा करते हुए उनके साथ बंगाल के नेता और उनके विश्‍वसनीय सहकर्मी नीहारेंदु दत्त-मुजुमदारजी थे।

सुभाषबाबू ने बातचीत के दौरान बीच में ही नीहारेंदुबाबू से एक अजीबोंग़रीब सवाल पूछा – ‘क्या तुम इसी वक़्त भूमिगत हो सकते हो?’
यह सुनते ही नीहारेंदुबाबू कुछ चकरा गये, मग़र तब भी उन्होंने उनसे कहा, ‘जैसा आप कहेंगे वैसा। मैं आपकी आज्ञा को सिरआँखों पर रखता हूँ।’

उसके बाद काफ़ी देर तक सन्नाटा छाया रहा। सुभाषबाबू गहरी सोच में डूबे हुए थे; वहीं, नीहारेंदुबाबू उलझी हुई मनःस्थिति में उस सवाल पर सोचते हुए स्टेशन में खड़े थे।

कुछ ही देर बाद गाड़ी में बैठने के पश्चात् उन्होंने सुभाषबाबू से कहा, ‘दरअसल मेरा मानना है कि मेरी बजाय यदि आप ही भूमिगत हो जाते हैं, तो उससे बहुत कुछ हासिल हो सकता है।’

यस्! गत कई दिनों से सुभाषबाबू के मन को आन्दोलित कर रहा विचारमन्थन, वह अनामिक अस्पष्ट भावना शब्दरूप धारण कर सुस्पष्ट रूप में सुभाषबाबू के सामने आविष्कृत हुई थी। अगले कार्य की, उस समय तक ओझल रहनेवाली दिशा पलभर में सुस्पष्ट हो गयी थी।
तब भी उन्होंने पूछा, ‘मुझे भूमिगत होना चाहिए?’

उसपर नीहारेंदुबाबू ने जवाब दिया, ‘क्यों नहीं? इटली के मॅझिनी से, चीन के डॉ. सन्यत्सेन से भूमिगत होने के बाद ही तो उनके देश के लिए विशाल कार्य संपन्न हुए थे। इस महत्कार्य को केवल आप ही कर सकते हैं, सुभाषबाबू!’

सुभाषबाबू पुनः कुछ देर तक गहरी सोच में डूबे रहे।

लेकिन थोड़ी ही देर बाद उन्होंने नीहारेंदुबाबू को इस बारे में किसी से कुछ भी न कहने की आज्ञा दी।

कोलकाता पहुँचने तक सुभाषबाबू के मन का निर्धार हो चुका था। एक साधारण संवाद ने भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के एक देदिप्यमान अध्याय के बीज बोये थे।

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