नेताजी-१७

netajiजानकीबाबू से अनपेक्षित रूप से प्राप्त हुई इस सूचना के कारण सुभाष हक्काबक्का रह गया| दरअसल उस जमाने में आय.सी.एस. को भारत में रहनेवाली सर्वोच्च प्रतिष्ठा को देखते हुए वह प्रलोभन ही काफ़ी था| साथ ही, पिछले वर्ष ही आय.सी.एस. के लिए इंग्लैंड़ गये अपने कुछ सहपाठियों के उदाहरण भी सुभाष के सामने थे कि एक से एक बढ़कर करोड़पति, रियासतदार अपनी उपवर बेटियॉं उनसे ब्याहने के लिए हाथ धोकर कैसे उनके पीछे पड़े थे| सुभाष भी इंग्लैंड़ जाना यक़ीनन चाहता ही था, लेकिन ना तो वह इंग्लैंड़ में ऐषोआराम की ज़िन्दगी का म़जा उठाने के लिए जाना चाहता था और ना ही किसी अमीऱजादी से वरमाला पहनने की लालसा से| सुभाष के मन में तो दुनिया पर राज करनेवाले अँग्रे़जी बाघ की गुफा में ठेंठ जाकर उसे मिलने की उत्सुकता थी| इस इंग्लैंड़ में ऐसी क्या बात है, जिसके बलबूते पर, दुनिया के नक़्शे में एक बिन्दी जितना आकार रहनेवाला यह देश आधी से अधिक दुनिया पर हुकूमत करता है, यह क़रीब से देखने के लिए वह इंग्लैंड़ जाना चाहता था|

हालॉंकि सुभाष के मन का यह उद्देश जानकीबाबू को ज्ञात नहीं था, मग़र फिर भी सुभाष के मन में कुछ खलबली जरूर मची हुई है, यह समझने में ‘वक़ील’ जानकीबाबू को देर नहीं लगी| इंग्लैंड़ जाने की बात सुभाष ने ही कुछ वर्ष पहले की थी, इसलिए इंग्लैंड़ जाने के लिए सुभाष को ऐतरा़ज नहीं है; दरअसल वह वहॉं जाने के लिए उत्सुक ही होगा, यह भी उनका अनुमान था| अत एव सुभाष की इस भावना का फ़ायदा उठाकर उन्होंने इस प्रस्ताव को आय.सी.एस. की दुम जोड़ दी थी| लेकिन ऐसा होने के बावजूद भी हमेशा जमीन पर पैर रहनेवाला सुभाष यह भली-भॉंति जानता था कि आय.सी.एस. परीक्षा कितनी मुश्किल होती है और वह यह भी जानता था कि उस वर्ष की परीक्षा के लिए चन्द सात-आठ महीने ही बाक़ी थे| जहॉं पर छात्र आय.सी.एस. की तैयारी चार-पॉंच वर्ष पहले से ही शुरू कर देते हैं, वहॉं पर बिना किसी भी प्रकार की पूर्वतैयारी के, चन्द सात-आठ महीनों में आय.सी.एस. की पढ़ाई क्या ख़ाक होगी?

पिता की बात सुनने के बाद उसने इस समस्या की ओर उनका ध्यान आकर्षित किया| लेकिन पिता ने उसे ख़ारिज कर दिया| सुभाष यदि ठान ले, तो वह कुछ भी कर सकता है, यह दृढ़विश्‍वास जानकीबाबू के तथा शरदबाबू के मन में भी था| सवाल सिर्फ़ सुभाष के हॉं भरने का था और सिवाय आय.सी.एस. के, किसी अन्य परीक्षा के लिए उसे इंग्लैंड़ भेजने जानकीबाबू तैयार नहीं थे| मग़र साथ ही उन्होंने उसे इस बात की छूट दी थी कि यदि वह आय.सी.एस. परीक्षा पास नहीं कर सका, तो अगले वर्ष किसी अन्य डिग्री पाठ्यक्रम के लिए अपना नाम द़र्ज करके वह उस डिग्री को ग्रहण कर सकता है| लेकिन अब यदि इंग्लैंड़ जाना हो, तो वह आय.सी.एस. के लिए ही, यह उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा और अपना फ़ैसले के बारे में बताने के लिए उन्होंने उसे चौबीस घण्टे की मोहलत दी|

यह सुनकर शरदबाबू के कमरे में से बाहर निकले सुभाष के मन की खलबली और भी बढ़ गयी| इस सोचविचार में ही उसके कदम उसके जानी दोस्त हेमंत सरकार के घर की दिशा में अपने आप पड़ने लगे| दरअसल यह हेमंत तो मानो जैसे सुभाष का भक्त ही था| सुभाष को भी उसके बिना चैन नहीं आता था और सुभाष कई बार हेमंत को एक दोस्त के साथ साथ एक मार्गदर्शक की भूमिका में भी देखता था| अपने मन की बात एक-दूसरे को बिना बताये, दोनों को सुक़ून नहीं मिलता था| मातृभूमि की बिग़ड़ती हुई हालत को देखकर दोनों भी इस विषय पर उत्कटतापूर्वक बातचीत करते थे; मातृभूमि को ग़ुलामी की जंजीरों में से मुक्त करने के लिए अपने जीवन की भावी दिशा को तय करते थे; यहॉं की ग़रीब-जरूरतमन्द जनता की आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक उन्नति करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा प्रदान करनेवाले विश्‍वविद्यालय की स्थापना करना इत्यादि सपनों के बारे में विचारविमर्श करते थे| ‘गुरु की खोज’ इस मुहिम में आख़िर तक – उस पर्वत के पीछे रहनेवाले साधुमहाराज द्वारा सुभाष का मार्गदर्शन किये जाने तक उसके साथ रहनेवाला यही था, उसका जिगरी दोस्त हेमंत| आज जीवन के इस महत्त्वपूर्ण मोड़ पर सुभाष को हेमंत के परामर्श की जरूरत प्रकर्षता से महसूस हो रही थी, लेकिन हेमंत के दरवा़जे पर तो ताला लगा हुआ था| वह अपने परिवार के साथ किसी काम के सिलसिले में गॉंव चला गया था|

अब क्या करना चाहिए? सुभाष के मन में विचारों का तूफ़ान उठ रहा| दरअसल उसके मन में उस परीक्षा का डर जरासा भी नहीं था| इतनी मुश्किल परीक्षा की पढ़ाई इतने कम समय में कैसे की जाये वगैरा वगैरा कारण, यह तो उसने अपने पिता से कहा हुआ मह़ज एक बहाना ही था| उसे दरअसल इस बात का डर लग रहा था कि यदि मैं आय.सी.एस. की परीक्षा पास हो गया, तब क्या होगा? आय.सी.एस. बनने के बाद अँग्रे़ज सरकार की नौकरी तो यक़ीनन करनी ही पड़ेगी| फिर क्या?आय. सी.एस. चाहे सोने की खान जैसी क्यों न दिखायी देती हो, मग़र असल में वह तो सोने का खंजर ही है, उसे भला छाती में क्यों भोका जाये? प्रजा की भाव-भावनाओं के साथ ताल्लुक़ न रखनेवाले अँग्रे़जपरस्त काग़ज के घोड़े नचाने में भला अपना जीवन व्यर्थ क्यों गँवाया जाये? अब तक सीने से लगाकर रखे हुए ध्येयवाद का, विवेकानन्दजी के विचारों का, हमारी भारतमाता का खून चूसनेवाले ज़ुल्मी अँग्रे़जों को सबक सिखाने की इच्छा का, एक वर्गविरहित आ़जाद भारत का निर्माण करने की महत्त्वाकांक्षा का क्या गला घोंट दिया जाये? नहीं, हरग़िज नहीं! यह तो नामुमक़िन है|

सुभाष के मन में दुविधा उफान पर थी| उसका एक मन रिझाता था कि पिता को तसल्ली देने के लिए तुम आय.सी.एस. परीक्षा अवश्य देना, लेकिन इतनी कम अवधि में तुम्हारा आय.सी.एस. में पास होना नामुमक़िन है| एक बार जब तुम आय.सी.एस. में फेल हो जाओगे, तब अगले वर्ष किसी अन्य डिग्री की पढ़ाई करने के लिए तुम्हारे पिता ने पहले से ही तुम्हें अनुमति दी हुई ही है, फिर भला डर किस बात का? लेकिन दूसरी संभावना उसके मन को खाये जा रही थी| यदि आय.सी.एस. पास हो गया तो? यदि कल मेरा मन पलट गया तो? आय.सी.एस. द्वारा दिखाये गये ऐशोआराम की जिन्दगी तथा अमिरी के गुलाबी सपनों में मशग़ूल होकर कहीं मैं मेरी भारतमाता को और उसकी वेदनाओं को भूल तो नहीं जाऊँगा? ‘लौटकर आयेंगे ही’ यह दृढ़तापूर्वक कहकर आय.सी.एस. करने इंग्लैंड़ गये हुए उसके कई मित्रों को आय.सी.एस. होने के बाद ध्येयवाद से मुँह फेरते हुए उसने देखा था| नहीं, नहीं! यह खतरा मोल लेना ही नहीं चाहिए| पिता से साफ़ साफ़ ‘नहीं’ कह देना चाहिए| लेकिन एक बार यदि मैं ‘ना’ कर दूँ, तो इसके बाद इंग्लैंड़ जाने की बात ही मुझे भूल जानी पड़ेगी, यह तो बिल्कुल साफ़ है, क्योंकि पिताजी की प्रमुख शर्त तो वही है|

मन में चल रहे इन उलटे-सीधे आन्दोलनों के बीच रात कैसे बीत गयी, इसका उसे पता ही नहीं चला|

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