नेताजी- ६०

गाँधीजी फिर से राजनीति में सक्रिय सहभाग लेकर कायदेभंग जैसा कोई राष्ट्रव्यापी आन्दोलन छेड़ें और सायमन कमिशन के खिला़फ भारत में ख़ौल उठे जनक्षोभ को उचित दिशा दे दें, यह ‘सुभाष-नीति’ नाक़ामयाब हो गयी। भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम में आसमान की बुलंदी को छू लेनेवाले दो महामानवों के बीच की वैचारिक दरार अधिक सा़फ़ ऩजर आने लगी थी।

इन्सानियत

निराश होकर सुभाषबाबू साबरमती से कोलकाता लौट आये और उन्होंने पुनः स्वयं को राष्ट्रकार्य में व्यस्त कर दिया। छात्रवर्ग, युवावर्ग, कर्मचारीवर्ग – जहाँ कहीं भी देखें, वहाँ असन्तोष फ़ैला हुआ वे देख रहे थे। सन १९१७ में रशिया में श्रमजीवी वर्ग का शासन स्थापित होने के बाद, उसमें से प्रेरणा लेकर १९२० के दशक में भारत में कई जगहों पर म़जदूर युनियन्स स्थापित हुई थीं और अपनी न्याय्य माँगों के लिए म़जदूर संघर्ष करते हुए उन्हें ऩजर आ रहे थे। सुभाषबाबू भी ऐसे कई म़जदूरनेताओं के संपर्क में रहते थे। हालातों का बारिक़ी से अभ्यास कर वे किसी को सबूरी की सलाह देतें, तो किसी को संघर्ष की। ऐसे ही एक संघर्ष के साथ सुभाषबाबू का बहुत ऩजदीकी से संबंध आया।

सन १९२८ में जमशेदपूर के टाटा स्टील के कारखाने में कई म़जदूर ‘कॉन्ट्रॅक्ट बेसिस’ पर थे और उतना ही काम करने के बावजूद उन्हें कुछ भी लाभ प्राप्त नहीं होते थे। अतः उन म़जदूरों ने अपनी न्याय्य माँगों के लिए संघर्ष का हथियार उठाया था। सुभाषबाबू वहाँ की म़जदूर युनियन के अध्यक्ष थे। समझौते की हर कोशीश नाक़ाम हो जाने के बाद मजबूरन् सुभाषबाबू ने हड़ताल के आदेश दे दिये।

इस लड़ाई में सुभाषबाबू का एक अनोखा ही रूप लोगों के सामने आ गया। यूँ तो वज्रनिग्रह होनेवाले, अपने तत्त्वों के खिला़फ़ जानेवाले किसी भी व्यक्ति को न बक्षनेवाले सुभाषबाबू इन्सानियत के विषय में कितने नर्मदिल हैं, यह बात भी लोगों को ज्ञात हुई। वहाँ के म़जदूरों की समस्याओं से वे का़फ़ी व्यथित हो चुके थे। काँट्रॅक्ट-बेसिस पर रहनेवालीं महिला कर्मचारियों को मॅटर्निटी लीव्ह जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं मिलती थीं। इस हड़ताल के दौरान इन समस्याओं का समाधान ढूँढ़ निकालने के लिए सुभाषबाबू ने वहाँ के व्यवस्थापन के साथ बातचीत शुरू की। आख़िरकार व्यवस्थापन को सुभाषबाबू का दृष्टिकोण जँच ही गया और म़जदूर तथा व्यवस्थापन इनके बीच ऐतिहासिक समझौता हुआ, जिससे कि महिला कर्मचारियों मॅटर्निटी लीव्ह की हक़दार होने जैसी अन्य भी कई माँगों को व्यवस्थापन की ओर से स्वीकृति मिल गयी।

यह समझौता कई पहलुओं से ऐतिहासिक माना जाता है, क्योंकि उसमें स्थित कई मुद्दों का रूपान्तरण आगे चलकर स्वतन्त्र भारत में क़ानूनों में हो गया, लेकिन वह भी बहुत सालों के बाद! यह बात ग़ौर करने लायक है कि काँट्रॅक्ट बेसिस पर रहनेवालीं महिला कर्मचारियों को क़ानूनन मॅटर्निटी लीव्ह की हक़दार होने के लिए उसके बाद कई सालों का इन्त़जार करना पड़ा, उस जमाने में सुभाषबाबू ने इस समस्या पर इन्सानियत के दृष्टिकोण से ग़ौर करके जमशेदपूर की महिला-कर्मचारियों को इन्सा़फ़ दिलाया था। केवल उतना ही नहीं, बल्कि आज म़जदूरों को साल में एक बार ‘बोनस’ मिलना, यह बात तो स्वाभाविक-सी हो गयी है, लेकिन उस समय किसीने इसके बारे में सुना भी नहीं था। इस हड़ताल के बाद सुभाषबाबू ने व्यवस्थापन के साथ यह जो समझौता किया, उसीके मुद्दों का विकास कर आगे चलकर सन १९३४ में जमशेदपूर के इस टाटा स्टील के कारखाने के कर्मचारियों को पहली बार बोनस दिया गया। साथ ही, सन १९३७ से वहाँ के कर्मचारियों को सेवानिवृत्तिपश्चात् के लाभ (रिटायरमेंट बेनेफिट्स) मिलना भी शुरू हो गया। जिस समय इन सबके विषय में क़ानून अस्तित्व में नहीं थे, उस जमाने में सुभाषबाबू ने कर्मचारियों के वास्तविक कल्याण का सर्वांगीण विचार कर इन मुद्दों का समावेश इस समझौते में करवा लिया था।

इसके अलावा कंपनी की एक और बात सुभाषबाबू को जँचती नहीं थी। उस समय टाटा स्टील कंपनी में महत्त्वपूर्ण वरिष्ठ स्थानों पर केवल विदेशी लोग ही तैनात किये जाते थे। यह बाब सुभाषबाबू को बिल्कुल भी मान्य नहीं थी। क्या इन पदों के लिए भारतीयों में लायक लोग नहीं है, ऐसा सवाल उन्होंने व्यवस्थापन के सामने उठाया। वे इस अहम बात को मॅनेजमेंट के गले उतारने में सफ़ल हो गये कि म़जदूरों में असन्तोष फैलने का मुख्य कारण यही है कि जिन्हें भारतीय म़जदूरों की समस्याओं के बारे में कुछ भी पता नहीं होता, ऐसे विदेशी अधिकारियों द्वारा निर्धारित की गयीं कंपनी की नीतियाँ कर्मचारियों का नुकसान करती हैं। परिणामस्वरूप, कंपनी में कई वरिष्ठ पदों पर, यहाँ तक कि महाव्यवस्थापक के पद पर भी पहली बार एक भारतीय की नियुक्ति की गयी। इस प्रकार केवल कर्मचारियों के कल्याण के बारे में ही सोचनेवाले, दुनिया के सभी म़जदूरनेता जिन्हें अपना आदर्श मान सकते हैं, ऐसे ये सचमुच के म़जदूर नेता थे। टाटा स्टील की वेबसाईट पर सुभाषबाबू द्वारा कंपनी में दिये गये इस योगदान का अनुरोधपूर्वक उल्लेख किया है। ख़ैर! यह हुई सुभाषबाबू द्वारा म़जदूरों के लिए दिये गये योगदान की बात।

वहाँ भारत के ‘कल्याण हेतु’ भारत आये हुए सायमन कमिशन को किया जानेवाला विरोध कम ही नहीं हो रहा है, यह देखकर सरकार ने भी दमनतन्त्र का इस्तेमाल करना शुरू किया। निदर्शकों पर लाठीचार्ज का मार्ग अपनाया। उतने में ही देश की दृष्टि से अत्यधिक अनिष्ट ऐसी एक घटना घटित हुई। ३० अक्तूबर १९२८ को कमिशन जब लाहोर आया, तब उसका स्वागत इसी तरह काले झँड़ों से तथा ‘लौट जाओ, सायमन’ (गो बॅक सायमन) यह लिखे हुए निषेधफ़लकों से किया गया। निषेध के जुलूस में अग्रस्थान पर थे – वयोवृद्ध लाला लजपतरायजी। सरकार भी अपने आपे से बाहर हो जान पर उसने जुलूस पर लाठीचार्ज करने के आदेश दे दिये। पुलीस ने भी लालाजी की उम्र का लिहा़ज न करते हुए जुलूस के साथ साथ उनपर भी अमानुष लाठीहल्ला शुरू कर दिया। सिंह चाहे कितना भी बूढ़ा क्यों न हो जाये, वह आख़िर तक सिंह ही रहता है। अतः लाठीहल्ला शुरू रहने के बावजूद लालाजी भी पीछे नहीं हटे। लेकिन अन्त में छाती पर ही आघात होने के कारण वे बेहोश होकर नीचे गिर गये। उसके कुछ ही दिन बाद उनका देहान्त हो गया। देश की दृष्टि से यह एक बड़ा ही सदमा था। नेता की दृष्टि से लोग जिनकी ओर उम्मीद से देख सकते थे, ऐसा एक और व्यक्तित्व देश ने गँवा दिया था। स्वतन्त्रतासंग्राम के यज्ञ ने एक और आहुती को निगल लिया था। इसी आहुती से प्रेरणा लेकर आगे चलकर भारतमाता के एक अन्य महान सपूत भगतसिंगजी इनका ‘शहीद भगतसिंग’ होने तक का प्रवास शुरू हो चुका था।

उतने में ही सन १९२८ के दिसम्बर महीने में काँग्रेस का कोलकाता अधिवेशन ऩजदीक आया। सुभाषबाबू की नीतियों को राष्ट्रव्यापी स्वीकृति मिलने की दृष्टि से यह अधिवेशन महत्त्वपूर्ण साबित होनेवाला था।

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