नेताजी- ४०

काँग्रेस के स्वयंसेवक दल पर सरकार द्वारा लगायी गयी पाबंदी के निषेध में वासंतीदेवी और दासबाबू की बहन उर्मिलादेवी इन्होंने बंदीहुक़्म को तोड़कर ज़ुल्मी अँग्रे़ज सरकार के खिलाफ नारे लगाते हुए सड़क पर आंदोलन करना शुरू कर दिया। उनके साथ ही युनियन लीडर जे.एम. सेनगुप्ताजी की पत्नी नल्ली सेनगुप्ता भी थीं।

Subhash -नेताजी

साथ ही अन्य स्वयंसेवक शराबखानों पर पिकेटिंग, विदेशी कपड़ों पर बहिष्कार करने के संबंध में कपड़ा दुकानदारों एवं जनता का प्रबोधन कर रहे थे और खद्दर (खादी का कपड़ा) बेच रहे थे। स्वयं वासंतीदेवी के आन्दोलन में उतरने के कारण अब तक उदासीन रहनेवाली जनता में खलबली मच गयी। दासबाबू का परिवार और सड़क पर….? यह ख़बर कोलकाता में ते़जी के साथ फ़ैल गयी और लोग बेचैन हो गये। आन्दोलन में शामिल होनेवालों की संख्या धीरे धीरे बढ़ने लगी। भीड़ को नियंत्रित करते करते पुलीस की नाक में दम आ गया। बंगाल के गव्हर्नर रोनाल्डसे काफी  बेचैं हो गये। गव्हर्नर हाऊस से लगातार टेलीफोन  के जरिये हालात का जाय़जा लिया जा रहा था। आन्दोलन का नेतृत्व एक महिला कर रही है, यह बात पुलीस के लिए भी नयी ही थी। इसीलिए इन हालातों में क्या करना चाहिए, इसका फैसला  वे नहीं कर पा रहे थे, वे ‘ऊपर से’ ऑर्डर आने की राह देख रहे थे।

उसमें ही सरकार ने जल्दबा़जी में ‘वह’ आत्मघाती कदम उठा ही लिया।वासंतीदेवी और उर्मिलादेवी को गिऱफ़्तार किया गया।

इस घटना से तो कोहराम मच गया।

अब तक धीमी गति से चल रहे निदर्शनों में लोगों के झुण्ड उत्स्फूर्ततापूर्वक  सम्मीलित होने लगे। सुभाषबाबू की कचहरी के बाहर आन्दोलन के लिए अपना नाम द़र्ज करानेवाले लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। पुरुष, महिलाएँ, आबालवृद्ध, ग़रीब-अमीर आदि किसी भी भेदभाव के न रहते हुए लोग स्वयंस्फूर्ति से आन्दोलन में शामिल होने के लिए बेक़रार थे। इस एक गिऱफ़्तारी ने असहकार आन्दोलन में जान भर दी थी। दासबाबू खुश थे, लेकिन सुभाषबाबू अपनी प्रिय ‘माँ’ की गिऱफ़्तारी से काफी  दुखी थे और उन्हें जल्द से जल्द कैसे रिहा किया जा सकता है, इस बारे में विचारविमर्श कर रहे थे।

दासबाबू की पत्नी की गिऱफ़्तारी की ख़बर सुनकर मुस्लिम मोहल्लों में भी खलबली मच गयी थी। पहले ही ‘तुर्कस्तान के खलिफा’ मामले में अँग्रे़ज सरकार ने पहले विश्‍वयुद्ध के दौरान मुस्लिमों को अपनी ओर खींच लेने के लिए मीठे आश्‍वासनों का जो प्रलोभन दिखाया था, उसे युद्ध के ख़त्म होते ही ऩजरअन्दा़ज कर देनेवाली सरकार ने मुस्लिमों के साथ दग़ाबा़जी की थी। इसी कारण भारत में अलीबंधुओं ने अँग्रे़ज सरकार के खिलाफ ‘खिलाफत  आन्दोलन’ शुरू किया था और भारत की दुश्मन रहनेवाली अँग्रे़ज सरकार के खिलाफ लड़ने के लिए दोनों धर्मों के बीच एकता बनी रहे, इसलिए गाँधीजी ने खिलाफत  आन्दोलन को समर्थन दिया था और अलीबंधुओ ने असहकार आन्दोलन को। इस असहकार आन्दोलन के लिए जनजागृति करने के उद्देश्य से गाँधीजी और अलीबंधुओं देश भर संयुक्त अभियान भी चलाया था। अत एव उनमें भी पहले से ही सरकार के खिलाफ असंतोष की भावना धधक रही थी।

जातिधर्मभेद को बिल्कुल भी न माननेवाले तत्त्वनिष्ठ एवं निःस्पृह दासबाबू सर्वधर्मियों के ही प्रिय नेता थे और सभी धर्मियों पर उनका समान रूप से प्रभाव था। साथ ही,  उनके मार्गदर्शन में तैयार हो रहे उन्होंने भी अपने इस जनसंपर्क का उपयोग आन्दोलन के लिए किया। अत एव सभी जातिधर्मों के नागरिक आपसी जातिधर्मभेद को भूलकर एक ही आवा़ज में जोर जोर से सरकार के खिलाफ नारे लगा रहे थे, वासंतीदेवी की जयकार कर रहे थे और वासंतीदेवी की रिहाई की माँग के लिए लोगों के झूण्ड पुलीस स्टेशन की दिशा में निकल पड़े। लोगों ने अपनी अपनी गली-कूचे से ही छोटेबड़े मोरचे निकाले थे और सुभाषबाबू की कचहरी अपना नाम द़र्ज करके वे मुख्य जुलूस में शामिल हो रहे थे। जगह  जगह पुलीस अपनी ताकत से भीड़ को नियंत्रण में करने की असफल कोशिशें पुलीस कर रही थी। लेकिन अपने प्रिय नेता की पत्नी की गिऱफ़्तारी के कारण लहू में सुलगते अंगार जिनकी नस नस में सुलगते रहे थे, ऐसे लोग शस्त्रों के दबाव के सामने सिर न झुकाते हुए एक ही ही वज्रनिग्रह से आगे बढ़ रहे थे।

ज़ुल्मी हथियारों का बल महात्मा के ‘निःशस्त्र शस्त्र’ के सामने तिनके जैसा हो गया था।

वासंतीदेवी और उर्मिलादेवी को साथ में लेकर भीड़ में से रास्ता निकालते हुए पुलीस की गाड़ी पुलीस स्टेशन पहुँच गयी। वहाँ पर भी ह़जारों की संख्या में लोग इकट्ठा हो गये थे। जगह जगह सरकार का निषेध और वासंतीदेवी, दासबाबू की जयकार इनके नारे सुनायी दे रहे थे।

पुलीस थाने की पुलीस भी आख़िर भारतीय ही थी और सिर्फ रो़जीरोटी के कारण वे अँग्रे़जों की नौकरी कर रहे थे। दासबाबू उनके भी प्रिय नेता थे। उनकी पत्नी की गिऱफ़्तारी की ख़बर सुनकर पुलीस में से भी कई कर्मचारियों के मन में खलबली मच गयी और ‘अब हम अँग्रे़जों की नौकरी नहीं करेंगे, बल्कि स्वराज्य के आन्दोलन में सम्मीलित होंगे’ ऐसा वे कहने लगे। वासंतीदेवी के पुलीस व्हॅन से उतरते ही उनमें से कइयों ने उन्हें ही कड़क ‘सॅल्यूट’ किया।

‘पुलीस’ यह प्रशासन की प्रमुख कड़ी के ही कम़जोर पड़ जाने पर प्रशासन के पैरों तले की जमीन ही खिसकने लगी। सरकार ने फिर हमेशा की तरह कुटिलनीति का इस्तेमाल करते हुए पुलिसों को मीठे आश्‍वासनों के मोहजाल में फ़साना  शुरू कर दिया। उनकी तऩख्वाह बढ़ाना आदि कई दिनों से प्रलंबित रहनेवाली माँगे जल्द ही पूरी की जायेंगीं, यह आश्‍वासन देनेवाला पत्रक सरकार ने प्रकाशित किया। लेकिन पुलीस ने उसे फूटी कौड़ी तक की कीमत नहीं दी।

यहाँ पर गव्हर्नर का हाल बेहाल हो चुका था। अब यदि ऐसी हालत हो गयी है, तो फिर युवराज के कोलकाता आने तक तो बूँद भर भी इ़ज्जत बाक़ी नहीं रहेगी, ऐसा उन्हें लगने लगा और उन्होंने फ़ौरन  दासबाबू के सामने समझौते का प्रस्ताव रखा।

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