नेताजी- १३४

कड़ी धूप में काफ़ी दूरी पैदल ही तय करने के कारण अब सुभाषबाबू बहुत ही थक चुके थे। अब उनके पैरों में दर्द भी होने लगा था। मग़र तब भी एक अभूतपूर्व ज़िद के कारण जैसे तैसे पैर खींचते हुए उस वीरान पहाड़ी इला़के में से वे आगे गुज़र रहे थे। एक तो पहले ही अगले पहाड़ी इला़के के गाईड का इन्तज़ाम होने तक, एक दिन की देर हो चुकी थी। उसमें भी पहाड़ी रास्ता रहने के कारण, घण्टे में एकाद मील से ज़्यादा दूरी तय नहीं की जा सकती थी। मग़र फिर भी अब मैं अँग्रेज़ सरकार की ‘पहुँच’ के बाहर हूँ, इस विचार से उनके मन पर का तनाव काफ़ी कम हो चुका था।

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आसपास देखते हुए, भगतराम से बातचीत करते हुए वे धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे। उस रास्ते पर से प्रायः ग़रीब पठानी मुसाफ़िरों की आवाजाही लगी रहती थी। रास्ते में आनेवाले ५०-६०, या कभी कभी तो २०-२५ घरों के समुदाय को भी ‘गाँव’ कहा जाता था। ये मुसाफ़िर रात को कभी किसी परिचित के घर में उतरते थे। बिलकुल किसी दूर की अप्रत्यक्ष पहचान के सहारे भी, रात-देर रात बेझिझक जिस किसी दरवाज़े पर दस्तक देते थे, वहाँ यक़ीनन उनके रहने-खाने की व्यवस्था की जाती थी। यह मेहमाननवाज़ी भी इस पठानी मुल्क की ख़ास संस्कृतिविशेषता मानी जाती थी। यह बात भी ग़ौर करनेलायक है कि किसी की पहचान न होने पर भी उसकी ख़ातिरदारी अवश्य की जाती थी। प्रायः थोड़े-से बड़े गाँव में प्रार्थनास्थल रहता था। यदि किसी से पहचान न हो, तब भी इन प्रार्थनास्थलों में रात के ठहरने की व्यवस्था रहती थी।

अँग्रेज़ छावनी की सीमा पार कर आगे निकल चुके वे तीनों दिनभर चल रहे थे। बीच में ही एकाद-दो बार भगतराम ने राहगर को लकड़ियों का बन्दोबस्त करने के लिए कहा। लकड़ियाँ मिलने पर उन्हें जलाकर, साथ लाये हुए पराठों को गरम करके उन्होंने खा लिया। बीच में ही वे एक टिले के माथे पर जा पहुँचे। वहाँ से तलहटी का दृश्य दिखायी दे रहा था। वहाँ से आसपास देखते हुए ‘कितनी सुन्दर मुल्क है न यह’ ऐसा सुभाषबाबू ने भगतराम से कहा। उसपर भगतराम ने – ‘इस रूखे वीरान मुल्क़ में भला कैसी सुन्दरता, बाबूजी?’ यह ताज्जुब के साथ पूछा। तब ‘चाहे जैसा भी हो, लेकिन यह आज़ाद तो है ना? तो फिर वह मेरे लिए ख़ूबसूरत ही है’ यह जवाब सुभाषबाबू ने दिया। भगतराम उनकी ओर देखते ही रह गया – भगवान ने यह एक अद्भुत ही रसायन बनाया है। इतनी बड़ी हस्ती, लेकिन मुझ जैसे आम आदमी के साथ भी मित्रतापूर्वक पेश आ रही है और वह भी बिना किसी दिखावटीपन के, बिलकुल मनःपूर्वक। साथ ही, ना तो कोई तक़रार है और ना ही घमण्ड़। कोलकाता के आलिशान घर में रहनेवाला यह मनुष्य आज सेहत के ख़राब होते हुए, इस वीरान मरुस्थल में बिना किसी भी तक़रार के पैदल चल रहा है, महज़ सीने से लगाये हुए एक अजीबोंग़रीब सपने को पूरा करने के लिए! बस, नेता हो तो ऐसा, यह विचार भगतराम के मन को छू गया।

टीले से उतरने तक रात हो चुकी थी। राह में ‘पिश्कन मैना’ नाम का एक देहात था। बाहरगाँव से आनेवाले मुसाफ़िरों के रात के ठहरने की व्यवस्था जहाँ की जाती थी, ऐसा एक प्रार्थनास्थल वहाँ है, यह बात राहगर जानता था। वह उन्हें वहाँ ले गया। वहाँ पर १६ बाय ५० फीट के एक बन्द कमरे में पहले से ही २०-२५ लोग, ठण्ड़ से बचने के लिए बीचोंबीच आग जलाकर अपने अपने गुट के सदस्यों के साथ बातचीत करते हुए बैठे थे। कोई थकाभागा लेटा हुआ था। सोने के लिए सूखी घास बिछायी हुई थी। वहाँ के व्यवस्थापक ने ‘कौन, कहाँ से आये, किसलिए’ इस तरह की मामूली पूछताछ की। अब इस तरह की पूछताछ का जवाब देने में भगतराम माहिर हो चुका था। वह कभी उन्हें अपना बड़ा भाई बताता, तो कभी अपने चाचा!

इस सफ़र की शुरुआत में साथ लिये हुए पराठे और अण्ड़ें तो कबके ख़त्म हो चुके थे। ‘क्या यहाँ पर चाय मिल सकती है’ यह पूछते ही उस ‘व्यवस्थापक’ ने उन्हें मिट्टी की कटोरियों में से गरम-गरम चाय दी और साथ मक्कई की रोटी भी कहीं से लाकर दे दी। पेट में कुछ गरम-गरम जाने के बाद उनकी जान में जान आ गयी। उसे पैसे देने के लिए सुभाषबाबू ने जब भगतराम से कहा, तब ‘यहाँ पर पैसे की बात ही मत कीजिए। यहाँ पर ऐसा रिवाज़ नहीं है। एक तो यह उनकी मेहमाननवाज़ी का अपमान माना जायेगा और मुख्य बात तो यह है कि हमारे द्वारा उसे इस तरह पैसे दिये जाने पर उसे यह शक़ हो जायेगा कि शायद हम पठान नहीं हैं’ यह उसने कहा। मेहमाननवाज़ी का यह अजीबोंग़रीब नमूना देखकर सुभाषबाबू ने मन ही मन में उसके लिए माँ चण्डिका से प्रार्थना की।

थोड़ी ही देर में भगतराम और वह राहगर लेटकर खर्राटें भी लेने लगे। पहले तो काफ़ी थके हुए रहने के कारण सुभाषबाबू को फ़ौरन नीन्द आ तो गयी, लेकिन बीच में ही उनकी नीन्द टूट जाती थी। एक तो, एक भी खिड़की न रहनेवाले उस बन्द कमरे में जलायी गयी आग से काफ़ी धुआँ हो चुका था, जिससे कि सुभाषबाबू को साँस लेने में दिक्कत होने लगी। फिर बीच बीच में वे कमरे से बाहर निकलकर कुछ देर के लिए खुली हवा में जाकर खड़े रहते थे। बाहर कड़ाके की ठण्ड रहने के कारण ज़्यादा देर तक वहाँ रुकना भी मुमक़िन नहीं था। एक बार जब उनका दम घुटने लगा, तब उन्होंने भगतराम को जगाया। उनकी हालत देखकर भगतराम ने फ़ौरन उनके द्वारा बतायी गयी, नाक में डालने की दवा को बॅग में से निकालकर उसकी कुछ बूँदें उनकी नाक में डाल दीं, तब जाकर उनकी जान में जान आयी। इस तरह वह रात बीत गयी।

सुबह उठकर उस ‘व्यवस्थापक’ द्वारा दी गयी चाय पीकर और पराठे खाकर अगला सफ़र शुरू हो गया। चलते चलते सुभाषबाबू को याद आया कि आज २३ जनवरी – मेरा जन्मदिन है। साथ ही, घर की भी याद आ गयी। मन फ़ौरन कोलकाता के उनके घर में पहुँच गया। घर में माँ-जननी, इला किस तरह मेरा औक्षण करती थी, मुझे किसी की नज़र न लगे इसलिए विभाभाभी किस तरह मेरी ‘अलाबला’ लेती थी, किस तरह मेजदा गले लगाकर ‘आय अ‍ॅम प्राऊड ऑफ यू, माय सन’ कहते थे, वह सबकुछ याद आया और उनकी आँखें भर आयीं। घर पर मेजदा की भी कुछ ऐसी ही हालत हुई होगी, यह विचार उनके मन में आ गया। उसी सोच में पैर खींचते हुए वे आगे बढ़ रहे थे। अचानक ही आज के जन्मदिन का विचार उनके मन में उठा। आज के जन्मदिन का यह योग कुछ और ही था। आज बस, चलना, चलते रहना और चलते ही जाना था!

लेकिन अब भगतराम ने वहाँ के बाज़ार के एक सीख दूकानदार से गुज़ारिश करके सुभाषबाबू के लिए खच्चर का बन्दोबस्त किया था। पहाड़ी इला़के में खच्चर जैसा वाहन ही उपयोगी साबित होता है। उस ज़माने में सामान को ले जाने या ले आने के लिए भी खच्चर का ही उपयोग किया जाता था। अब खच्चर पर बैठकर सुभाषबाबू का अगला सफ़र शुरू हो गया।

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